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Today History 11 August 2025: मुस्कराकर फांसी पर झूलने वाले क्रांतिकारी खुदी राम बोस, ब्रिटिश जज भी जिसके हौसले से थे हैरान
Today History 11 August 2025: खुदीराम बोस बंगाल के छोटे से गांव में जन्मे एक ऐसे युवा क्रांतिकारी हैं जिन्होंने अल्पायु में ही वह साहस, त्याग और देशभक्ति दिखाई, जो भारत की आजादी की गौरव गाथा में अमिट है। दे
History of 11 August (Image Credit-Social Media)
History of 11 August: आजाद भारत अपना 79वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहा है। लेकिन लगातार 200 वर्ष तक अंग्रेजों की गुलामी से निजात पाने और स्वराज का सपना हकीकत में बदलने के संघर्ष के दौरान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कई क्रांतिकारियों ने अपनी जान देश के लिए कुर्बान की। जिनमें एक नाम खुदीराम बोस का भी आता है। जिन्होंने मात्र 18 वर्ष की आयु में बेखौफ होकर स्वराज की तमन्ना में मुस्कराते हुए फांसी का फंदा गले में पहना। किशोर अवस्था में उनका बेखौफ अंदाज और उनका बेबाकी पन देखकर ब्रिटिश जज भी हैरान था। जब अदालत में खड़े होकर उन्होंने अपने गुनाह पर पर्दा डालने की जगह एक भरी अदालत में जज को ही बम बनाना सिखाने की बात कह दी थी। खुदीराम बोस बंगाल के छोटे से गांव में जन्मे एक ऐसे युवा क्रांतिकारी हैं जिन्होंने अल्पायु में ही वह साहस, त्याग और देशभक्ति दिखाई, जो भारत की आजादी की गौरव गाथा में अमिट है। देश प्रेम को लेकर खुदीराम का बलिदान केवल एक क्रांति के रूप में नहीं, बल्कि उस निडर आत्मा की मिसाल है। जो अन्याय और गुलामी के खिलाफ किसी भी कीमत पर मरमिटने को तैयार थी।
खुदीराम बोस ऐसे युवा क्रांतिकारी हैं जो आजादी की लड़ाई में फांसी पर चढ़ने वाले सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी माने जाते हैं। आइए आज खुदी राम बोस की 127वीं पुण्य तिथि पर इन्हें नमन करते हुए इनके जीवन से जुड़े रोचक किस्सों के बारे में जानते हैं -
इस तरह तय किया क्रांतिकारी बनने तक का सफर
अंग्रेजी हुकूमत के दौरान 1905 में बंगाल विभाजन के बाद खुदीराम बोस ने आजादी के पैरोकार सत्येंद्रनाथ बोस के नेतृत्व में अपने क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत की थी।
खुदीराम बोस का जन्म बंगाल में मिदनापुर के हबीबपुर गांव में 3 दिसंबर, 1889 को हुआ था। इन्होंने मात्र 9वीं कक्षा की पढ़ाई की। जिसके बाद उन्होंने स्कूल छोड़ दिया था। उस दौर में पूरे बंगाल में स्वदेशी आंदोलन, ब्रिटिश शासन का विरोध और क्रांतिकारी गतिविधियां अपने जोर पर थीं। खुदीराम को पढ़ाई से ज्यादा आजादी की भूख सता रही थी। जिसके चलते वे रिवॉल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बने। देश वासियों के बीच आजादी का अलख जगाने के लिए इन्होंने ‘वंदे मातरम्’ के पर्चे बांटने में बड़ी भूमिका निभाई। बचपन में माता-पिता की मृत्यु के बाद इनकी बड़ी बहन ने ही इनका पालन-पोषण किया। ये बचपन से ही तेज तर्रार और निर्भीक प्रवृत्ति के थे।
इस तरह पड़ा खुदी राम नाम
खुदी राम के माता-पिता जितने अधिक धार्मिक और संस्कारी थे उतना ही उनका जीवन साधारण था। खुदी राम बोस उनकी सबसे छोटी संतान में से एक थे। खुदी राम के दो बड़े भाई जन्म के कुछ समय बाद ही बीमारी में चल बसे थे। इस डर से उनके माता-पिता ने एक पारंपरिक मान्यता के चलते खुदी राम को उसकी बड़ी बहन के हाथों चावल के बदले बेच दिया था। मान्यता है की इस परंपरा को निभाने से बच्चे का जीवन सुरक्षित रहता है। बंगाल में चावल को ‘खुदी’ कहा जाता हैं, इसी वजह से उनका नाम ‘खुदीराम’ रखा गया था।
जज की हत्या करने का बनाया प्लान
क्रांतिकारियों के खिलाफ सख्त फैसलों के लिए तत्कालीन ब्रिटिश जज डगलस किंग्सफोर्ड क्रूर रवैए के कारण जाना जाता था। वह कई भारतीय युवा क्रांतिकारियों को कठोर सज़ा सुना चुका था। जिसका मुजफ्फरपुर में तबादला होने के बाद भी वह वहां के क्रांतिकारी संगठनों के लिए शिकार बना हुआ था।
एक दिन आया जब 18 अप्रैल, 1908 को खुदीराम बोस अपने साथ के अन्य एक क्रांतिकारी साथी के साथ मुजफ्फरपुर के जज किंग्सफोर्ड की हत्या करने के इरादे से निकल पड़े। इन दोनों ने योजना बनाई कि, जज किंग्सफोर्ड जब अपनी बग्घी से वापस आएगा, तभी उसकी बग्घी पर बम फेंक कर उसकी हत्या कर देंगे। उन्होंने जैसा सोचा था ठीक हुआ भी कुछ ऐसा ही। जैसे ही वो बग्घी किंग्सफोर्ड के घर पहुंची खुदी राम और उनके दोस्त ने बम उसपर बम फेंक दिया। दुर्भाग्य से जज किंग्सफोर्ड की जान बच गई। क्योंकि जिस वक्त बग्घी पर खुदीराम ने बम फेंका उसमें किंग्सफोर्ड की जगह दो यूरोपीय महिलाएं सवार थीं। जिनमें से एक महिला की इस हमले में मृत्यु भी हो गई। इस घटना ने पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में खलबली मचा दी थी।
सुनाई गई फांसी की सजा
खुदीराम बोस ब्रिटिश सैनिकों से बचने के लिए लगातार भागते रहे। आखिरकार 1 मई, 1908 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। उस समय खुदीराम की उम्र मात्र 18 वर्ष थी। उनकी सजा को कम करने और उनकी रिहाई के लिए ऊपरी अदालतों में अपील की गई, लेकिन ब्रिटिश अदालत ने अपना फैसला नहीं बदला। आखिरकार हत्या के इस मुकदमे में अदालत ने खुदीराम को फांसी की सजा सुनाई।
जब जज को दिया बेखौफ जवाब
हत्या के मुकदमे की सुनवाई के दौरान जज कॉर्नडॉफ की अदालत ने जब खुदीराम से सवाल किया गया कि, क्या तुम फांसी की सजा का मतलब समझते हो? इस प्रश्न पर खुदी राम ने बिना भय के बेबाकी से जवाब देते हुए कहा कि, 'इस सजा और मुझे बचाने के लिए मेरे वकील साहब की दलील दोनों का मतलब मैं बहुत अच्छी तरह से समझता हूं। मेरे वकील साहब ने मेरे बचाव में कहा है कि, मैं अभी बहुत छोटा हूं और इस उम्र में कोई बम नहीं बना सकता। खुदी राम ने इसमें आगे कहा कि, जज साहब आपसे मेरा निवेदन है कि आप खुद कृपया स्वयं मेरे साथ चलें। मैं आपको भी बताता हूं कि बम कैसे बनाया जाता है। खुदी राम बोस के इस निर्भीकता पूर्ण जवाब को सुनकर ब्रिटिश जज हैरत में पड़ गया। आखिरकार अदालत ने खुदीराम बोस को फांसी की सजा सुनाने के साथ ऊपर की अदालत में अपील का भी मौका दिया। हालांकि, ऊपरी ब्रिटिश अदालतों ने मुजफ्फरपुर की अदालत के फैसले को मुहर लगाकर अंतिम स्वीकृति प्रदान की। वो दिन भी आ गया जब 11 अगस्त, 1908 को मुजफ्फरपुर जेल में इस वीर क्रांतिकारी को फांसी पर लटका दिया गया।
फांसी का फंदा अपने गले में पहनते समय उनके चेहरे पर भय नहीं, बल्कि गर्व की चमक थी और वे मुस्कराते हुए फंदे पर चढ़े। उनकी फांसी की खबर फैलते ही पूरे देश में गुस्सा और क्रांति की लहर दूनी गति से तेज हो गई। जिसने स्वराज की तमन्ना को आंधी में बदल दिया।
आज भी गर्व से पहनते हैं खुदी राम अंकित धोतियां
धोती पहनने वाले खुदीराम कम उम्र में ही देश में अपनी अमिट छाप छोड़ गए। देश के नाम उनके इस बलिदान से प्रेरित होकर एक बड़ा जनसमुदाय खुदी राम बोस लिखी हुई धोती पहनने लगा। तब से जो बंगाल में ये चलन चला आज भी कायम हैं। बंगाल में कई बुनकर आज भी खुदीराम लिखी धोतियां बुनकर तैयार करते है। जिनकी खास मौकों पर डिमांड रहती है।
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