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शहीदों की कुर्बानी पर भारी पड़ रही क्रूर कैप्टन विलोबी की विरासत, आज भी दर्ज है इस ब्रिटिश अफसर का नाम, गुमनाम हैं शहीद
Legacy of the Cruel Captain Willoughby: उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में मौजूद है कैप्टन विलोबी की विरासत, विडम्बना देखिये जिस अंग्रेज अफसर ने स्वतंत्रता सेनानियों के साथ क्रूरता की उसका नाम आज भी भारत में जीवित है और स्वतंत्रता के लिए अपनी जान देने वाले शहीदों का नाम भी लोग भूल चुके हैं।
Legacy of the Cruel Captain Willoughby (Image Credit-Social Media)
Cruel Captain Willoughby: 2025 में 15 अगस्त को भारत का 79वां स्वतंत्रता दिवस मनाने की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। 78 साल का लंबा सफर तय कर चुका आजाद भारत का स्वतंत्रता संग्राम अनेक नायकों की गाथाओं से भरा हुआ है, लेकिन इतिहास का यह विडंबनापूर्ण पक्ष है कि जिन लोगों ने हमारे देश को गुलाम बनाए रखा, उनके नाम अब भी कई स्थानों पर जीवित हैं। वहीं, जिन लोगों ने भारत माता की स्वतंत्रता के लिए अपनी जान तक दे दी। उनके नाम तक भुला दिए गए हैं। ऐसा ही एक जीवंत उदाहरण हैं उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में मौजूद कैप्टन विलोबी की विरासत। यह अंग्रेज अफसर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय था और उसने न केवल विद्रोह को दबाने में अग्रणी भूमिका निभाई बल्कि भारतीय जनता और अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों के साथ क्रूरता की। उससे जुड़ा हॉल और ट्रस्ट आज भी लखीमपुर शहर में 105 साल बाद भी उसी नाम से मौजूद है, जबकि जिन तीन स्वतंत्रता सेनानियों ने इस ब्रिटिश अफसर के अत्याचारों के विरोध में जान दी। उनके नाम तक आज तक ज़मीन पर दर्ज नहीं किए गए। आइए जानते हैं कौन था कैप्टन विलोबी-
1857 के विद्रोह में कैप्टन विलोबी की भूमिका
1857 में भारत की धरती पर जब पहली बार स्वतंत्रता की चिंगारी जली, तो कैप्टन विलोबी दिल्ली में ब्रिटिश फौज के तोपखाने विभाग में तैनात था। विद्रोह के शुरुआती दिनों में मेरठ से निकले भारतीय सिपाही जब दिल्ली पहुंचे, तो उन्होंने अंग्रेज शासन को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया। विलोबी ने विद्रोहियों को रोकने के लिए दिल्ली में मौजूद जिन तोपखाने का नेतृत्व किया जिससे जल्द ही उसे यह समझ आ गया कि विद्रोही सेना के पास भारी शक्ति है। उसने विद्रोहियों को तोपखाने से दूर रखने के लिए वहां रखे बारूद और हथियारों को नष्ट करने का आदेश ब्रिटिश सेना में शामिल भारतीय सैनिकों को दिया। जिससे कई भारतीय सिपाही मारे गए। इस कार्रवाई को ब्रिटिश शासन की रक्षा के लिए ‘रणनीतिक निर्णय’ कहा गया, लेकिन भारतीय दृष्टिकोण से यह एक क्रूर कृत्य था जिसमें बिना किसी चेतावनी के हमारे सैकड़ों सैनिकों की जान चली गई।
कैप्टन विलोबी ने किए देशवासियों के साथ क्रूरता और अत्याचार
कैप्टन विलोबी पर यह आरोप भी लगे कि उसने न सिर्फ विद्रोहियों के खिलाफ कठोर सैन्य कार्रवाई की, बल्कि आम जनता और स्वतंत्रता के पक्ष में आवाज उठाने वालों पर भी दमनात्मक नीति अपनाई। दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों में विलोबी के नेतृत्व में हुए अभियानों में अनेक निर्दोषों को या तो गोली मार दी गई या फिर खुलेआम फांसी पर लटका दिया गया। इन कार्रवाइयों में न महिलाओं को बख्शा गया और न ही बच्चों को। विलोबी जैसे अधिकारियों के आदेशों पर गांवों को जलाने और विद्रोहियों के परिवारों को सज़ा देने का सिलसिला चलता रहा। ऐसे में विलोबी का नाम भारतीय इतिहास में केवल एक ब्रिटिश अफसर के रूप में नहीं, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने वाले क्रूर चेहरे के रूप में देखा जाता है।
आज भी सांसे ले रहा विलोबी के नाम पर बना हॉल और ट्रस्ट
चौंकाने वाली बात यह है कि जिस अधिकारी पर निर्दोष भारतीयों की हत्या और स्वतंत्रता संग्राम को दबाने का आरोप था, उसके नाम पर लखीमपुर खीरी में आज भी एक हॉल और ट्रस्ट मौजूद है। यह स्मारक लगभग 105 साल पुराना है और ब्रिटिश शासन की उपस्थिति का प्रतीक बना हुआ है। आज़ादी के 78 साल बाद भी इस स्मारक का नाम बदला नहीं गया, जो हमारे स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा को ही चोट पहुंचाता है। स्थानीय नागरिकों और इतिहास प्रेमियों ने कई बार इसके नाम परिवर्तन की मांग की है, लेकिन प्रशासन की उदासीनता के कारण अब तक कोई ठोस निर्णय नहीं लिया गया है। यह विडंबना है कि जहां एक ओर कैप्टन विलोबी को इतिहास में जगह दी गई है, वहीं भारत मां के सच्चे सपूतों के नाम तक किसी स्मारक पर दर्ज नहीं हैं।
तीन शहीदों की अनकही कहानी
सन 1920 में लखीमपुर जिले में तीन भारतीय क्रांतिकारियों नाधू सिंह, मदनलाल और हरिनारायण ने अंग्रेज डीएम की हत्या कर दी थी। उनका उद्देश्य सिर्फ बदला लेना नहीं था, बल्कि वे ब्रिटिश शासन द्वारा किए जा रहे अत्याचारों का प्रतिकार कर रहे थे। यह वही डीएम था जिसकी छत्रछाया में स्थानीय किसानों और नागरिकों पर ज़बरदस्ती लगान वसूला जा रहा था। जिन्होंने विरोध किया उन्हें कोड़ों से पीटा जाता या फांसी दी जाती। इस अन्याय के विरुद्ध इन तीन युवाओं ने अपने प्राणों की आहुति देने का निर्णय लिया। लेकिन अफसोस की बात है कि 1920 में विलोबी के नेतृत्व में इन तीनों को फांसी दे दी गई और आज तक उनके नाम पर न कोई स्मारक बना और न ही किसी सरकारी अभिलेख में उन्हें सम्मान दिया गया।
नाधू सिंह, मदनलाल और हरिनारायण के नाम आज की पीढ़ी शायद जानती ही नहीं, क्योंकि न तो किसी पाठ्यपुस्तक में उनका ज़िक्र है और न ही शहर में कोई बोर्ड या पट्ट उनके नाम का लगा है। ये वे लोग थे जिन्होंने अंग्रेज डीएम की हत्या जैसे बड़े कदम की जिम्मेदारी ली, गिरफ्तारी दी और फांसी पर झूल गए। लेकिन लखीमपुर शहर में आज भी विलोबी के नाम की इमारत खड़ी है, जबकि इन शहीदों के लिए एक छोटा-सा पत्थर भी नहीं रखा गया। उनकी शहादत को भुला देना न केवल ऐतिहासिक अन्याय है, बल्कि हमारे मूल्यों के प्रति उदासीनता भी दर्शाता है।
इतिहास को मिटाया नहीं जा सकता लेकिन उसे सुधारा जरूर जा सकता है। यदि विलोबी के नाम से जुड़ा स्मारक आज भी खड़ा है, तो अब समय आ गया है कि, नाधू सिंह, मदनलाल और हरिनारायण जैसे शहीदों के नाम को वह सम्मान दिया जाए जिसके वे हकदार हैं। शहर में इनके नाम पर स्कूल, लाइब्रेरी या स्मारक बनाए जाएं और शिक्षा प्रणाली में उनके योगदान को स्थान दिया जाए। यह सिर्फ एक सुधार नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए सही उदाहरण स्थापित करने का कार्य होगा।
हमारे देश की आज़ादी सिर्फ गांधी जी, भगत सिंह या नेहरू तक सीमित नहीं थी। यह उन गुमनाम नायकों की देन भी है जिन्होंने अपने जीवन का सर्वस्व न्योछावर कर दिया, लेकिन इतिहास में उनका नाम नहीं रह सका। लखीमपुर खीरी की ज़मीन उन तीन शहीदों की गवाह है, जिन्होंने एक क्रूर अंग्रेज अधिकारी के खिलाफ आवाज़ उठाई और अपनी जान गंवा दी।
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