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छठ की आड़ में गर्म होती राजनीति: बिहार चुनाव में प्रवासी मतदाता और जदयू की सख्ती से बदलता समीकरण
Bihar Election 2025: बिहार में भले ही राष्ट्रीय महत्व के पर्व छठ ने राजनीति की रफ्तार को कुछ दिन थाम लिया हो, लेकिन सियासी तापमान लगातार बढ़ रहा है।
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Bihar Election 2025 Pravasi Voters: बिहार में भले ही राष्ट्रीय महत्व के पर्व छठ ने राजनीति की रफ्तार को कुछ दिन थाम लिया हो, लेकिन सियासी तापमान लगातार बढ़ रहा है। पर्व की शांति के बीच सियासी रणनीतियाँ और भीतरखाने की हलचलें तेज़ हो चुकी हैं। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की बढ़ती सक्रियता ने चुनावी माहौल को गरमा दिया है, जबकि यह सवाल ज़ोरों से उठ रहा है कि महागठबंधन के स्टार प्रचारक और कांग्रेस नेता राहुल गांधी इन दिनों राजनीतिक दृश्य से गायब क्यों हैं। कांग्रेस का कहना है कि राहुल और प्रियंका छठ के तुरंत बाद रोड शो और रैलियों में उतरेंगे — यानी राजनीतिक पिच फिर से गरम होने ही वाली है।
जैसे-जैसे 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव का मतदान करीब आ रहा है, पिछले 24 घंटों में सामने आई राजनीतिक घटनाओं ने चुनावी समीकरणों को नया रूप देना शुरू कर दिया है। इस बार की सियासी गतिविधियों में मुख्य रूप से तीन मुद्दे प्रमुख हैं — जदयू की आंतरिक सख्ती, प्रवासी मतदाताओं की भूमिका और मतदाता सूची में बड़े पैमाने पर संशोधन।
जदयू की आक्रामक सख्ती: अनुशासन या असमंजस का संकेत?
पिछले दो दिनों में जदयू ने दोहरे संदेश दिए हैं — ऊपर से सख्ती और भीतर से असमंजस। पार्टी ने “गुटबाज़ी” और “अनुशासनहीनता” के आरोप में 16 नेताओं को निष्कासित किया है, जिनमें एक मौजूदा विधायक और दो पूर्व मंत्री शामिल हैं। इनमें एक विधायक ने टिकट न मिलने के विरोध में प्रधानमंत्री आवास के बाहर धरना भी दिया था।
इस कदम का असर दोतरफा है —
सकारात्मक पक्ष: जदयू ने यह संकेत दिया कि संगठन के भीतर अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं की जाएगी और यह कार्रवाई पार्टी की एकजुटता बनाए रखने का प्रयास है।
नकारात्मक पक्ष: बार-बार बगावत के स्वर यह दिखा रहे हैं कि संगठनात्मक ढांचा कमजोर हुआ है। विरोधी दल इसे जदयू की आंतरिक कमजोरी के प्रतीक के रूप में पेश कर सकते हैं।
यह सख्ती दिखाती है कि जदयू इस चुनाव में “शांत लेकिन सतर्क” रहने की रणनीति अपना रही है। लेकिन प्रत्याशी चयन से जुड़ी गहमागहमी और अंदरूनी असहमति अब भी पार्टी को घेरे हुए है।
प्रवासी मतदाता: लौटती भीड़, बदलते समीकरण
छठ पूजा के मौके पर राज्य में लौट रहे प्रवासी मजदूर और कर्मचारी अब 2025 के चुनावी परिदृश्य का नया केंद्र बन गए हैं। अनुमान है कि करीब 2.5 से 3.1 करोड़ प्रवासी बिहारी मतदाता इस बार मतदान में हिस्सा ले सकते हैं — यह संख्या किसी भी दल के लिए निर्णायक साबित हो सकती है।
इसी बीच निर्वाचन आयोग द्वारा चलाए गए “Special Intensive Revision (SIR)” अभियान के तहत मतदाता सूची में लगभग 65 लाख नाम हटाए गए हैं, जबकि पटना और मुज़फ़्फरपुर जैसे जिलों में मतदाता संख्या बढ़ी है।
इस परिप्रेक्ष्य में प्रवासी मतदाता एक नए राजनीतिक कारक बन गए हैं —
लौटे हुए मतदाता क्षेत्रीय समीकरणों को नया रूप दे रहे हैं।
दल इस वर्ग तक पहुंचने की रणनीति पर काम कर रहे हैं, क्योंकि यही वह मतदाता है जो जातीय राजनीति से ऊपर उठकर विकास, रोजगार और अवसर जैसे मुद्दों पर मतदान करने की संभावना रखता है।
संगठन-सुधार और प्रवासी-वोटर की वापसी: संयुक्त असर
इन दोनों प्रवृत्तियों का संयुक्त प्रभाव बिहार की चुनावी राजनीति को नए सांचे में ढाल रहा है।
दलों के भीतर संगठनात्मक सुधार के प्रयासों के साथ ही नए मतदाता समूहों की सक्रियता ने रणनीति को और जटिल बना दिया है।
अब सिर्फ पुराने वोट बैंक पर भरोसा नहीं किया जा सकता; दलों को बूथ-स्तर से लेकर प्रवासी समुदायों तक त्वरित संपर्क बनाना होगा।
“युवा-वर्ग और मजदूर-वर्ग” के बीच विकास, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा जैसे मुद्दे इस चुनाव का असली एजेंडा बनते दिख रहे हैं।
वहीं, जदयू और एनडीए की आंतरिक समस्याओं ने विपक्षी दलों को अवसर दिया है — खासकर उन क्षेत्रों में जहां प्रवासी मतदाताओं का प्रभाव बढ़ा है या मतदाता सूची में बड़े बदलाव हुए हैं।
राजनीतिक माहौल: बायपोलर मुकाबले की ओर
इस बार बिहार में बहु-पक्षीय मुकाबले की जगह स्पष्ट रूप से बायपोलर (दो-ध्रुवीय) संघर्ष उभर रहा है। मैदान के एक छोर पर एनडीए (भाजपा-जदयू) है, जबकि दूसरे पर महागठबंधन (राजद, कांग्रेस, वाम दल)।
यह स्थिति कुछ हद तक दलों के लिए संघर्ष को सरल बना रही है, क्योंकि वोट विभाजन सीमित रहेगा, लेकिन साथ ही जातीय और सामाजिक ध्रुवीकरण का जोखिम भी बढ़ा है। यह चुनाव सिर्फ सत्ता की जंग नहीं बल्कि “पहचान बनाम विकास” की प्रतिस्पर्धा बनता जा रहा है।
युवाओं और प्रवासियों में मुद्दे बदल गए हैं — बेरोजगारी, शिक्षा, पलायन, महिला सशक्तिकरण और कानून-व्यवस्था जैसे विषय अब निर्णायक बनते जा रहे हैं।
भविष्य की रफ्तार: बूथ से भरोसे तक
कल और आज की गतिविधियाँ इस बात का संकेत हैं कि अब सिर्फ घोषणाओं से चुनाव नहीं जीते जा सकते।
हर दल को संगठन की जमीनी मजबूती और स्थानीय स्वीकार्यता पर ध्यान देना होगा।
युवा, प्रवासी और महिलाएं इस चुनाव की असली निर्णायक शक्ति बन सकती हैं।
सुरक्षा व्यवस्था, मतदाता सूची और चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता जैसे मुद्दे जनता के विश्वास को प्रभावित करेंगे।
अगर राजनीतिक दल इन संकेतों को समझकर अपनी रणनीति को जमीन तक उतारने में सफल होते हैं, तो वे प्रवासी और युवा मतदाताओं को निर्णायक रूप से अपने पक्ष में कर सकते हैं। लेकिन यदि यह तैयारी केवल कागज़ी घोषणाओं तक सीमित रही, तो लाभ सीमित ही रहेगा।
निष्कर्ष: पहचान नहीं, प्रवासी मतदाता तय करेंगे बिहार की दिशा
प्रवासी मतदाताओं की वापसी, मतदाता सूची के बदलाव और जदयू जैसी पार्टियों की संगठनात्मक सख्ती ने बिहार की सियासत में नया आयाम जोड़ दिया है। कांग्रेस, महागठबंधन, जन सुराज और एनडीए — सभी अब इस सवाल से जूझ रहे हैं कि क्या पारंपरिक वोट बैंक की राजनीति इस नए यथार्थ में चल पाएगी?
2025 का चुनाव अब जाति या गठबंधन का नहीं, बल्कि संगठन, प्रवासी और भरोसे का चुनाव बनता जा रहा है। यह तय करेगा कि बिहार की सत्ता किसके हाथ में जाएगी — गठबंधन मशीन, नया विकल्प या बूथ-स्तर की क्रियाशीलता।
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