क्या नीतीश कुमार के यू-टर्न निति ने उन्हें जनता की नजरों से कर दिया है आउट? जानें इस बार क्या है बिहार चुनाव में जनता का मूड

Bihar Election 2025: आज जब 2025 का विधानसभा चुनाव धीरे-धीरे दस्तक दे रहा है, तो यह सवाल और भी प्रासंगिक हो गया है क्या बिहार के लोग अब नीतीश के 'यू-टर्न मॉडल' से ऊब चुके हैं? क्या इस बार वे कोई नया विकल्प तलाशेंगे, या फिर एक बार फिर 'स्थिरता' और 'अनुभव' के नाम पर नीतीश को ही चुनेंगे?

Harsh Srivastava
Published on: 19 May 2025 4:04 PM IST
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Bihar Election 2025: पटना की फिजाओं में इन दिनों एक बेचैनी है। चाय की दुकानों से लेकर खेतों की मेड़ तक, बसों की कतारों से लेकर WhatsApp ग्रुप्स तक, एक ही सवाल गूंज रहा है – "अबकी बार किसे?" बिहार के मतदाता, जो लंबे समय से नीतीश कुमार को "सुशासन बाबू" के नाम से जानते रहे हैं, अब खुद यह सोचने पर मजबूर हैं कि क्या वह वही नीतीश हैं जो 2005 में लालू-राज के खिलाफ उम्मीद की किरण बनकर उभरे थे? या फिर वह एक ऐसे राजनेता में बदल चुके हैं जो सत्ता में बने रहने के लिए वैचारिक प्रतिबद्धताओं की बार-बार तिलांजलि दे चुके हैं? राजनीति में यू-टर्न लेना नया नहीं है, लेकिन नीतीश कुमार ने इसे एक कला का दर्जा दे दिया है। आज जब 2025 का विधानसभा चुनाव धीरे-धीरे दस्तक दे रहा है, तो यह सवाल और भी प्रासंगिक हो गया है क्या बिहार के लोग अब नीतीश के 'यू-टर्न मॉडल' से ऊब चुके हैं? क्या इस बार वे कोई नया विकल्प तलाशेंगे, या फिर एक बार फिर 'स्थिरता' और 'अनुभव' के नाम पर नीतीश को ही चुनेंगे?

'सुशासन बाबू' से 'सियासी साधक' तक

2005 में जब नीतीश कुमार ने बिहार की सत्ता संभाली थी, तो उन्होंने खुद को लालू यादव के 'जंगल राज' के विकल्प के रूप में पेश किया था। कानून-व्यवस्था में सुधार, शिक्षा में क्रांति, सड़क निर्माण और भ्रष्टाचार पर सख्ती – ये वो प्राथमिकताएं थीं जिनकी बदौलत उन्होंने एक नया बिहार गढ़ने की शुरुआत की थी। उस समय उनका चेहरा ईमानदारी और प्रशासनिक दक्षता का प्रतीक बन चुका था। महिलाओं के लिए आरक्षण, पंचायतों में भागीदारी, साइकिल योजना जैसी पहलों ने उन्हें जननेता बना दिया। लेकिन 2013 में जब उन्होंने बीजेपी से नाता तोड़ा और फिर 2015 में लालू यादव की पार्टी से हाथ मिलाया, तो पहली बार उनकी छवि में दरार दिखी। जनता को यह समझ नहीं आया कि जो नेता 10 साल तक लालू के जंगलराज के खिलाफ खड़ा रहा, वह अब उसी के साथ सरकार कैसे बना सकता है। 2017 में एक बार फिर पलटी मारकर वह बीजेपी के साथ चले गए और 2020 तक मुख्यमंत्री बने रहे। लेकिन हर बार उनके साथ एक नई कहानी जुड़ती गई – 'नीतीश फिर पलटे'।

'थक गए हैं नीतीश', कहता है जनमानस

आज बिहार की गलियों में, चौपालों में और सोशल मीडिया पर एक नया जुमला चल रहा है – "अब नीतीश थक चुके हैं!" यह थकावट केवल उम्र की नहीं है, बल्कि एक ऐसे राजनीतिक चेहरे की है जो अब न उम्मीद जगाता है, न उथल-पुथल। युवा मतदाता, जो 2005 में शायद पहली बार वोट देने आए थे, अब खुद पिता बन चुके हैं और उन्हें लगता है कि 20 सालों में बिहार ने जितनी तरक्की की, उतनी बार नीतीश कुमार ने सियासी गठबंधन बदले। यह 'थकावट फैक्टर' नीतीश की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है। न तो उनके पास अब कोई नया विज़न है, न ही कोई प्रेरणादायक अभियान। 'बेरोज़गारी', 'बढ़ता पलायन', 'स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली' और 'शिक्षा की गिरती गुणवत्ता' – ये सब आज भी बिहार के सबसे बड़े मुद्दे हैं। नीतीश की सरकार ने कई योजनाएं शुरू कीं, लेकिन जमीनी असर उतना नहीं हुआ जितनी अपेक्षा थी।

गठबंधन दर गठबंधन: विश्वसनीयता पर सवाल

नीतीश कुमार ने अपने लंबे राजनीतिक करियर में कम से कम छह बार गठबंधन बदले हैं। कभी बीजेपी के साथ, कभी राजद के साथ, कभी कांग्रेस, तो कभी तीसरे मोर्चे की कोशिश। बार-बार विचारधाराओं को ताक पर रखकर सत्ता के लिए की गई जोड़तोड़ ने उनकी विश्वसनीयता को गहरी चोट पहुंचाई है। लोग अब सवाल करने लगे हैं – क्या नीतीश की कोई वैचारिक प्रतिबद्धता बची भी है? क्या उन्होंने खुद को सत्ता के लिए पूरी तरह से लचीला बना लिया है? 2022 में जब उन्होंने एक बार फिर महागठबंधन के साथ सरकार बनाई और तेजस्वी यादव को उपमुख्यमंत्री बनाया, तो यह ऐलान किया गया कि 2025 तक तेजस्वी को तैयार किया जाएगा। लेकिन जनता जानती है कि नीतीश कब क्या सोच लें, कहा नहीं जा सकता। इसी अनिश्चितता ने मतदाता का भरोसा कमजोर किया है।

2025 में कौन विकल्प?

बिहार में बीजेपी जहां आक्रामक तरीके से नीतीश की 'पलटी पॉलिटिक्स' को मुद्दा बना रही है, वहीं तेजस्वी यादव खुद को नए युग का नेता साबित करने में जुटे हैं। उनकी बेरोजगारी यात्रा, युवाओं को जोड़ने की कोशिश और पिछड़ों-मुसलमानों के बीच मजबूत पकड़ उन्हें एक मजबूत विकल्प के रूप में उभार रही है। हालांकि तेजस्वी पर 'परिवारवाद' और राजद की पुरानी छवि का साया अब भी है, लेकिन वह नीतीश के मुकाबले युवा, ऊर्जावान और 'फ्रेश फेस' हैं। वहीं कुछ नई ताकतें जैसे कि पप्पू यादव, चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा भी समीकरण बदलने की फिराक में हैं, लेकिन जनता की नजर अब स्थायित्व के साथ-साथ भरोसे की ओर है। इसीलिए 2025 का चुनाव सिर्फ सीटों का नहीं, बल्कि भरोसे की लड़ाई बनने वाला है।

जनता का मिज़ाज: बदलाव की आहट?

जनता धीरे-धीरे यह महसूस करने लगी है कि अब बिहार को सिर्फ 'जुगाड़' वाली राजनीति नहीं चाहिए, बल्कि एक स्थिर और स्पष्ट विज़न वाला नेतृत्व चाहिए। नीतीश कुमार ने एक दौर में यह सब दिया, लेकिन अब वह दौर शायद बीत चुका है। उनकी उम्र, राजनीतिक हिचकिचाहट और लगातार बदलते रुख ने मतदाता को भ्रमित कर दिया है। लोग अब किसी ऐसे नेता को देख रहे हैं जो अगले 10 सालों का खाका पेश कर सके। इसके अलावा, बिहार के युवा मतदाता अब सोशल मीडिया से जुड़े हैं, राष्ट्रीय मुद्दों पर जागरूक हैं और बिहार को 'BIMARU' टैग से बाहर निकालने की आकांक्षा रखते हैं। यह नया वोटर अब जाति और गठबंधन से आगे बढ़कर परफॉर्मेंस पर वोट देने की तैयारी में है।

क्या नीतीश आखिरी बार लौटेंगे?

राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता। नीतीश कुमार अभी भी कुशल रणनीतिकार हैं और उन्हें कमजोर आंकना भूल होगी। लेकिन अब उनके सामने पहले जैसी सहानुभूति नहीं, बल्कि गहन जाँच की दृष्टि है। 2025 का चुनाव उनके लिए 'करो या मरो' की तरह है — या तो वह एक बार फिर खुद को साबित करेंगे या फिर उनकी राजनीति का सूर्यास्त हो जाएगा। इस बार जनता सिर्फ वादों से नहीं, नीयत और नीति से भी चुनाव करेगी। नीतीश की सियासत ने बिहार को कई मोड़ दिए हैं, लेकिन अब शायद मतदाता खुद एक नया मोड़ लेने के मूड में है।

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Harsh Srivastava

News Cordinator and News Writer

Harsh Shrivastava is an enthusiastic journalist who has been actively writing content for the past one year. He has a special interest in crime, politics and entertainment news. With his deep understanding and research approach, he strives to uncover ground realities and deliver accurate information to readers. His articles reflect objectivity and factual analysis, which make him a credible journalist.

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