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क्या सच में बदल रहा है लद्दाख? जब बौद्धों और मुसलमानों की एकता ने मचाई हलचल, जानें कैसे बदले समीकरण
लद्दाख में बौद्ध और मुस्लिम समुदाय की ऐतिहासिक एकता ने राजनीति में हलचल मचा दी है। सोनम वांगचुक की भूख हड़ताल और जनता की राज्य के दर्जे व छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग ने आंदोलन को और तेज कर दिया है।
Ladakh Protests: आज से ठीक पाँच साल पहले 2019 में जब लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर एक नया केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था तो पूरे इलाके में मानो दीपावली जैसा माहौल था। जगह-जगह पटाखे फूट रहे थे मिठाइयाँ बाँटी जा रही थीं और लोगों की आँखों में एक नई उम्मीद की चमक थी। दशकों से लद्दाख के लोग जम्मू-कश्मीर से अलग होने की मांग कर रहे थे। उनका मानना था कि उन्हें पर्याप्त फंड नहीं मिलता और वे विकास की दौड़ में पीछे छूट जाते हैं।
दिल्ली से आई सरकार ने उनकी इस अरसे से चली आ रही माँग को पूरा कर दिया था और लोगों को लगा कि अब उनकी किस्मत बदल जाएगी। लेकिन यह खुशी कुछ ही महीनों में धूमिल होने लगी। लोगों को जल्द ही महसूस हुआ कि जम्मू-कश्मीर से अलग होकर भी कुछ खास नहीं बदला है। पहले शासन श्रीनगर से चलता था अब दिल्ली से चलता है। स्थानीय लोगों की प्रशासन में भागीदारी अब भी वैसी नहीं थी जैसी उन्होंने सोची थी। उनकी जमीन उनकी संस्कृति और उनके पारंपरिक रहन-सहन पर खतरा मंडराता नजर आने लगा। इसी बेचैनी ने एक बार फिर से लद्दाख की शांत वादियों में हलचल मचा दी।
सोनम वांगचुक की भूख हड़ताल और जमीन पर फैलती आग
जब प्रशासन की उदासीनता से लोगों का धैर्य जवाब देने लगा तब मशहूर शिक्षाविद और ऐक्टिविस्ट सोनम वांगचुक ने इस मुद्दे को हाथों में लिया। उनकी सक्रियता ने जमीन पर आग में घी का काम किया। लोग एक बार फिर सड़कों पर उतर आए और विरोध-प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया। लद्दाख की जनता अब कहने लगी थी कि उन्हें केवल एक केंद्र शासित प्रदेश नहीं बल्कि अपनी खुद की विधानसभा चाहिए। राज्य का दर्जा मिले ताकि वे अपने फैसले खुद ले सकें। इसके अलावा उनकी सबसे बड़ी मांग है कि लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल किया जाए। यह मांग इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे उनकी भाषा संस्कृति और पारंपरिक अधिकारों की रक्षा हो सकेगी।
विरोध-प्रदर्शनों ने इतना उग्र रूप ले लिया कि हाल ही में प्रदर्शनकारियों ने भाजपा के दफ्तर पर हमला बोल दिया और एक पुलिस वैन को आग के हवाले कर दिया। सोनम वांगचुक समेत कई लोग अब भी भूख हड़ताल पर बैठे हैं जो इस आंदोलन की गंभीरता को दिखाता है। यह आंदोलन अब केवल एक राजनीतिक विरोध नहीं बल्कि लद्दाख की पहचान और अस्तित्व की लड़ाई बन गया है।
जब लेह और कारगिल ने हाथ मिलाया
इस आंदोलन की सबसे दिलचस्प और महत्वपूर्ण बात यह है कि इसने लेह और कारगिल के लोगों को एक साथ ला खड़ा किया है। पारंपरिक रूप से ये दोनों क्षेत्र अलग-अलग राजनीतिक और धार्मिक विचारों के लिए जाने जाते हैं। लेह बौद्ध बहुल क्षेत्र है जबकि कारगिल में शिया मुसलमानों की आबादी अधिक है। लेकिन इस बार राजनीतिक मतभेदों को दरकिनार कर दोनों क्षेत्रों के लोग एक साथ आए हैं। उन्होंने मिलकर ‘लेह कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस’ नाम का एक संगठन बनाया है। इसी संगठन के बैनर तले राज्य के दर्जे और छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग की जा रही है। यह ऐतिहासिक एकता इस बात का प्रतीक है कि लद्दाख की जनता ने अपनी एकजुटता की ताकत को पहचान लिया है। तीन सालों से केंद्र सरकार के सीधे शासन के खिलाफ पनप रहा गुस्सा अब एक संगठित आंदोलन का रूप ले चुका है।
अमित शाह से मुलाकात क्यों हुई नाकाम?
लद्दाख के लोगों की मांगों को शांत करने के लिए केंद्र सरकार ने एक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने कई बैठकें की लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। इसी साल मार्च में गृह मंत्री अमित शाह ने भी लद्दाख के एक प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात की थी। लेकिन यह बातचीत भी विफल रही। स्थानीय लोगों का कहना है कि अमित शाह ने उनकी मुख्य मांगों यानी राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग को ही खारिज कर दिया। इस घटना ने आंदोलन को और हवा दे दी। लोगों का कहना है कि उनकी जमीन संस्कृति और संसाधनों की रक्षा के लिए स्थानीय सरकार का होना बहुत जरूरी है। लद्दाख के लोग अब किसी भी हाल में पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। वे चाहते हैं कि सरकार उनकी मांगों को गंभीरता से ले वरना यह आंदोलन एक बड़े जन आंदोलन का रूप ले लेगा। सवाल यह है कि क्या दिल्ली इन मांगों को मानेगी या फिर लद्दाख की शांति में हमेशा के लिए अशांति घुल जाएगी। यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
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