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‘सवर्ण-शूद्र जैसा रिश्ता…’, MP हाई कोर्ट ने खोली 'न्यायिक व्यवस्था' की पोल, कहा- हाई कोर्ट सामंत, निचली अदालतें गुलाम
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने न्यायिक व्यवस्था पर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि हाई कोर्ट और जिला अदालतों के बीच का संबंध, सवर्ण और शूद्र जैसी सामाजिक संरचना जैसा दिखाई देता है।
Madhya Pradesh High Court (Photo: Social Media)
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर बेहद कड़ी टिप्पणी करते हुए एक पूर्व विशेष न्यायाधीश से जुड़े मामले में मनोवैज्ञानिक गुलामी और न्यायिक असमानता की ओर गंभीर इशारा किया है। न्यायमूर्ति अतुल श्रीधरन और जस्टिस डीके पालीवाल की पीठ ने कहा, हाई कोर्ट और जिला अदालतों के बीच रिश्ता सामंत और दासों जैसा हो गया है।
पीठ ने कहा कि निचली अदालतें हमेशा हाई कोर्ट की नाराजगी के डर में फैसले सुनाती हैं। मामूली गलतियों पर हाई कोर्ट द्वारा की जाने वाली फटकार के चलते जिला न्यायाधीश लगातार मानसिक दबाव में रहते हैं।
यह भी सामने आया कि जब जिला जजों को हाई कोर्ट की रजिस्ट्री में प्रतिनियुक्ति पर भेजा जाता है तो उन्हें बैठने की जगह तक नहीं दी जाती और अगर दी भी जाती है तो वो हिचकिचाते हुए बैठते हैं। यह व्यवहार एक तरह की मनोवैज्ञानिक गुलामी को जन्म देता है।
हाई कोर्ट सवर्ण, निचली अदालतें शूद्र
पीठ ने अपनी टिप्पणी में कह, जिला जजों के सामने हाई कोर्ट के जजों की बॉडी लैंग्वेज गिड़गिड़ाने जैसी होती है। प्रदेश के न्यायिक ढांचे में कोई जातिगत अर्थ रखता है। जहां हाई कोर्ट खुद को 'सवर्ण' और जिला अदालतों को 'शूद्र' मानता है।
भय से न्याय नहीं हो सकता
हाई कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि डर का माहौल न्याय के मूल सिद्धांतों को कमजोर करता है। सही मामलों में भी जमानत नहीं दी जाती और कई बार पर्याप्त साक्ष्य न होते हुए भी दोष सिद्ध कर दिया जाता है क्योंकि निचली अदालतों को डर रहता है कि कहीं हाई कोर्ट नाराज न हो जाए।
पीठ ने उन घटनाओं का भी उल्लेख किया, जहां हाई कोर्ट के जजों का रेलवे स्टेशन पर स्वागत और जलपान तक कराया गया जो एक न्यायिक अधिकारी के आत्मसम्मान के खिलाफ है।
पूर्व विशेष न्यायाधीश को मिला न्याय
इस पूरे केस की पृष्ठभूमि में व्यापमं से पिछला एक केस था, जिसमें 2015 में एक एससी/एसटी कोर्ट के पूर्व विशेष न्यायाधीश को जमानत देने के कारण पद से बर्खास्त कर दिया गया था। 28 वर्षों की निष्कलंक सेवा देने वाले इस जज को, सेवानिवृत्ति से दो साल पहले, सिर्फ पुलिस अधिकारियों के बयान के आधार पर हटा दिया गया। अब उच्च न्यायालय ने उनकी बर्खास्तगी को अवैध करार देते हुए अब रद्द कर दिया और आदेश दिया है कि उन्हें
•ब्याज समेत बकाया वेतन
•सेवानिवृत्ति लाभ
•और ₹5 लाख का मुआवजा देना चाहिए।
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