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जातिगत जनगणना: जातिवाद की जड़ों को और गहरा करने का जोखिम?
Caste Census: क्या आप जानते हैं कि जातिगत जनगणना क्यों ज़रूरी है और इसके क्या फायदे हैं और क्या नुकसान आइये विस्तार से समझते हैं।
Caste Census (Image Credit-Social Media)
जाति: एक अघुलनशील सामाजिक विभाजन : भारत में जाति सिर्फ एक सामाजिक वर्गीकरण नहीं, बल्कि सहस्राब्दियों से चली आ रही एक संरचनात्मक असमानता है। स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी जातिगत भेदभाव के उदाहरण:
- गाँवों में अछूतों के कुएँ/मंदिरों पर प्रतिबंध,
- शहरी क्षेत्रों में सवर्णों द्वारा "गोत्र-जाँच",
- मैनुअल स्कैवेंजिंग जैसी अमानवीय प्रथाएँ,
- शिक्षा/रोजगार में सूक्ष्म जातिगत पूर्वाग्रह।
जातिगत जनगणना: फायदे या नए जोखिम?
समर्थकों के तर्क:
- OBCs का सही आंकड़ा मिलेगा, आरक्षण नीतियाँ सटीक होंगी।
- सामाजिक-आर्थिक अंतराल का पता चलेगा।
गंभीर चिंताएँ:
1. जाति को ‘सामाजिक वास्तविकता’ बना देगी:
- जनगणना जाति को प्रशासनिक मान्यता देती है, जो जातीय पहचान को और सुदृढ़ करेगी।
- ‘तुम्हारी जनगणना वाली जाति क्या है?’ जैसे सवाल समाज में नए विभाजन खड़े करेंगे।
2. राजनीतिक हथियारीकरण:
- आँकड़ों का उपयोग जातिगत ध्रुवीकरण बढ़ाने, चुनावी लाभ के लिए होगा।
- उदाहरण: 1931 की जातिगत जनगणना के बाद साम्प्रदायिकता में उछाल।
3. व्यक्तिगत पहचान का संकुचन:
- व्यक्ति की योग्यता, पेशा या राष्ट्रीयता की बजाय जाति ही प्रमुख पहचान बन जाएगी।
4. आरक्षण व्यवस्था की विफलता पर पर्दा:
- क्रीमी लेयर को लाभ मिलना जारी है, जबकि गरीबों तक पहुँच नहीं।
- जाति-आधारित आँकड़े वास्तविक गरीबी के कारणों-शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी ढाँचे की कमी, को नजरअंदाज करेंगे।
क्यों न हो ‘गरीबी-आधारित दृष्टिकोण’?
एक नया प्रस्ताव:
- सार्वभौमिक आर्थिक कल्याण (Universal Economic Welfare)
- आरक्षण/सुविधाएँ केवल आर्थिक पैमाने-परिवार की आय, भूमिहीनता, शैक्षिक पिछड़ापन, पर दी जाएँ।
- उदाहरण: EWS (Economically Weaker Sections) कोटा का विस्तार, जहाँ लाभ सभी गरीबों को मिले, चाहे वे किसी भी जाति के हों।
- लाभ:
- जातिवाद को बढ़ावा नहीं मिलेगा।
- वास्तविक वंचितों (गरीब सवर्ण, OBCs के अल्पसंख्यक समूह) तक पहुँच।
- सामाजिक एकता को बल मिलेगा।
क्या जाति जनगणना वास्तविक बदलाव लाएगी?
- आँकड़े ≠ समाधान: 2011 की सामाजिक-आर्थिक जनगणना (SECC) के डेटा का अधिकांश भाग अभी भी अप्रयुक्त है।
- सरकारी इच्छाशक्ति का अभाव: OBC आयोग को पूर्ण सांविधिक अधिकार नहीं हैं, अदालती मामले लंबित हैं।
- जमीनी सच्चाई: जातिगत भेदभाव कानूनों से नहीं, सामाजिक मानसिकता से खत्म होगा। शिक्षा, अंतर्जातीय विवाह और सामूहिक संवाद ज़रूरी हैं।
जाति से आगे बढ़ने का समय
जातिगत जनगणना एक दोधारी तलवार है। यदि इसका उद्देश्य केवल राजनीतिक रोटियाँ सेंकना है, तो यह जातिवाद को और पुख्ता करेगी। परंतु यदि इसे वैज्ञानिक दृष्टि से गरीबी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे संकेतकों के साथ जोड़ा जाए, तो शायद कुछ सार्थक निकले। अंतिम लक्ष्य ‘जाति-मुक्त भारत’ का निर्माण होना चाहिए, न कि जाति को स्थायी बनाना। डॉ. आंबेडकर का सपना था—‘एक समतामूलक समाज’, जहाँ मनुष्य की पहचान उसके कर्म से हो, जन्म से नहीं। यही दिशा में हमें आगे बढ़ना होगा।
"जाति पर प्रश्नचिह्न लगाना ज़रूरी है, पर उसे स्थायी बनाने वाली गणना उत्तर नहीं हो सकती। असली बदलाव तब आएगा जब हम 'जाति की नहीं, गरीबी की गिनती' करें।"
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