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Happy Mother's Day 2025: एक मां सौंपती है अचल-अबोध को उसका हिस्सा
Happy Mother's Day 2025: माँ का महत्त्व हर किसी के जीवन में ख़ास होता है ऐसे में आज जहाँ पूरा विश्व मदर्स डे मना रहा है आइये जानते हैं माँ शब्द कितना ख़ास है।
Happy Mother's Day 2025 (Image Credit-Social Media)
Happy Mother's Day 2025: 'माता, मां, अम्मा, मम्मी, ताई, आई, पब्बो, माई, बाऊ, मासा, दाई, महतारी, मया, मांजी, अम्मी, मॉम, माद्रे, मिटेर, उम्मी, ममी, अन्ने, मम, मामा, मम्मा, म्मोनम, ओकासन,म्यूटर, यों, मदर.......' क्या हैं ये सब? में भले ही विभिन्न भाषाओं के शब्द हैं पर अर्थ एक ही है 'मां'। जितनी भाषाऐं हैं, उससे कहीं अधिक है मां के लिए शब्द। दरअसल हम किसी भी भाषा में मां के लिए जो भी शब्द कहते हैं वह सिर्फ शब्द नहीं होता। वह तो भाव होता है जो हमारे मन को भाता है। किसी के लिए मां संध्या होने वाली आरती के दिए के समान होती है, तो किसी के लिए अविरल बहता पानी, किसी के लिए मां स्वभाविक, सहज मन वाली होती है, तो किसी के लिए कठिन धूप में सिके हुए अनुभवों की गठरी, किसी के लिए मां ममता की छांव होती है, तो किसी के लिए जीवन ऊर्जा, किसी की मां वाकई क्रूर होती है तो किसी की मां बहुत ही निर्दयी ,जिन्हें मां भी नहीं कहना चाहिए। मेरे लिए मेरी मां एक सहज, सीधी मनुष्य है क्योंकि माऊ को देवी के रूप में देखना, समझना या सोचना मेरे बस की बात कभी नहीं रही। अपनी ही मां के लिए नहीं बल्कि किसी भी मां को मैं कभी देवी के रूप में स्वीकार नहीं कर पाती। आखिर मैं भी तो एक मां हूं, हांड-मांस का बना शरीर। मां जिससे हम इतने अधिक समर्पण, त्याग, दयालुता, ममता या वात्सल्य की अपेक्षा कर लेते हैं कि उसकी अपनी इच्छाएं, उसका अपना अस्तित्व, उसके अपने सपने और उसका अपना स्वास्थ्य सब उसके नीचे दब जाते हैं। घर का अगर कोई सदस्य बीमार हो या बच्चा बीमार हो तो एक मां को ही अपने कर्म क्षेत्र को छोड़कर, रुकने की और उस बच्चे या बीमार को संभालने की जरूरत पर ही जोर दिया जाता है।
अन्य रिश्तों की तरह मां भी तो एक रिश्ता है, पर बड़ा फर्क यह है कि बाकी सब रिश्ते इस संसार में जन्म लेने के बाद बनते हैं जबकि मां से यह रिश्ता मां के गर्भ में आने के साथ ही 9 महीने पहले से ही जुड़ जाता है। इसलिए मां हर रिश्ते से बढ़कर होती है। एक मां का दिल कोमल होता है लेकिन उसकी आत्मा कहीं अधिक मजबूत। मां को हम बिल्कुल भी नहीं तब तक समझ पाते हैं जब तक हम खुद मां या पिता नहीं बन जाते। और जब एक लड़की मां बनती हैं तब अपने बच्चों की छोटी-छोटी आंखें, छोटे-छोटे हाथ, उसका चेहरा, उसकी दिनचर्या, उसको खिलाना- पिलाना, उसकी हर सांस के उतरने -चढ़ने के साथ एक मां का दिल भी इस तरह से उसी के साथ धड़कता है।
एक मां अपने बच्चों की दिनचर्या के साथ खुद को इस तरह से बांध लेती है कि वह अपना अस्तित्व भी उसके अंदर ही खत्म कर लेती है। एक शिशु जैसे-जैसे बड़ा होता है, एक मां अपने हाथों से उस कोमल पौधे को धीरे-धीरे करके बड़ा करती है और वह जब तक खुद अपने लायक नहीं हो जाता तब तक एक मां को कभी भी छुट्टी नहीं मिलती है। मां कहीं चली भी जाए तो भी वह हमारे अंदर ही कहीं रह जाती है। उसमें उसकी आदतें, उसका स्वभाव, उसके संस्कार, कुछ न कुछ तो हमारे भीतर इस तरह से जड़ जाता है कि हम उससे कहीं भी खुद को अलग करके देख ही नहीं सकते हैं , कर ही नहीं पाते हैं या यूं कहे कि हमारा अस्तित्व ही नहीं होता है।
बहुत से लेखकों, कवियों, साहित्यकारों ने मां पर बहुत कुछ लिखा है और मां तो एक ऐसा शब्द होता है जिस पर या तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है या कुछ भी नहीं लिखा जा सकता है।
' मां तेरी तस्वीर में रंग भरने जब-जब तूलिका उठाई,
न रंग भरे गए, न तूलिका चली।'
सन् 1957 में महबूब खान ने नरगिस, सुनील दत्त, राजकुमार अभिनीत 'मदर इंडिया' शीर्षक से बॉलीवुड की महान फिल्म बनाई थी। जबकि इसी शीर्षक से 1927 में अमेरिकी पत्रकार कैथरीन मेयो की तरफ की एक विवादित किताब छपी थी जो उस समय के भारतीय समाज में महिलाओं और लड़कियों की स्थिति पर आधारित थी। किताब जैसा कि होना ही था, ने पूरे भारत में आक्रोश पैदा कर दिया और किताब की प्रतियों को मेयो के पुतले के साथ जलाया गया। किताब भारतीय महिलाओं के प्रति भारतीय पुरुषों के व्यवहार, बाल विवाह और उनके स्वास्थ्य की निष्कृष्टतम स्थितियों का उल्लेख करती थी। इस किताब ने पूरे देश में एक भूचाल ला दिया और इस आक्रोश ने भारतीय समाज में महिलाओं के लिए एक नई दृष्टि और अधिक उदार रवैये को जन्म दिया इस किताब के विरोध में अनेकों लेख और आलोचनात्मक किताबें और पुस्तिकाएं लिखीं गईं ।अनेकों बड़े और प्रसिद्ध लोगों जैसे महात्मा गांधी, एनी बेसेंट, रवींद्रनाथ टैगोर और अनेकों साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों ने इसके विरोध में लेख भी लिखे। मैक्सिम गोर्की की 'मदर', मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'मां', दीपा मेहता की किताब 'मां', मार्क हीथर की 'एवरी मॉम'स सोल' और भी पता नहीं कितनी किताबें और कितनी ही रचनाएं ऐसी होंगी जो मां पर लिखी गई होगीं, उसे मां पर जिसको कोई शब्द नहीं बांध सकता। जो भले ही दुनिया का सबसे छोटा शब्द हो लेकिन जिसका ओर-छोर , विस्तार कोई नहीं पा सकता।
माँ का होना न केवल एक जैविक तथ्य है, बल्कि यह समाज और संस्कृति की धारा में भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। मां जो पहले दही बिलोकर घी निकाल कर सबसे पहले अपने बच्चों को ही देने की चेष्टा रखती थी, वह मां जो दिन भर कड़ी मेहनत करके अपने बच्चों को अंकवार भर लेती थी , वह मां जो अपने बच्चों को बड़े सपने देख देखने, आत्मविश्वास से लबरेज होने और खुद से प्यार करना सिखाती है , वह मां जो धैर्य और प्यार के साथ अपने बच्चों की देखभाल करती है और उन्हें सुरक्षित और खुश महसूस कराती है। एक मां और उसके बच्चे के बीच आलिंगन से बेहतर तो कोई भाषा हो ही नहीं सकती है। बच्चे के जन्म से ही एक मां के शरीर में बहुत सारे तरह के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक बदलाव आते हैं, कभी-कभी उसे खुद के लिए भी थोड़ा समय चाहिए होता है। एक मां अपनी बेटी को उसके शरीर में हो रहे बदलावों को भी बताती है और उन्हें कैसे सहजता से लेना है वह भी बताती है। मां पोषण करने वाली शक्ति के रूप में भी काम करती है तो वह प्रतिरोध और परिवर्तन को भी बढ़ावा देती है। परिवार के पालन- पोषण से लेकर सेना का नेतृत्व करने तक मां ने इतिहास में महत्वपूर्ण काम किया है। रानी लक्ष्मीबाई ने अगर आप अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध लड़ा तो अपने बच्चे को अपने पीठ से बांधकर लड़ा।
छतीसगढ़ के दंतेवाड़ा में डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड की दंतेश्वरी फाइटर के रूप में महिला कमांडो सुनैना पटेल ने गर्भवती होने के बावजूद 20 किलो का बैग पीठ पर टांगकर नक्सल क्षेत्र में ड्यूटी की और फिर बच्चे को भी जन्म दिया और कर्तव्य से कभी पीछे नहीं हटी। ऐसे बहुत सारे नाम है जहां पर एक महिला मां बनने के समय तक अपने कार्यक्षेत्र में जुटी रही और मां बनने के बाद भी वह अपने कर्तव्य और कर्म क्षेत्र में कहीं भी पीछे नहीं हटी, हमेशा नेतृत्व किया। पहले के समय में मांओं में अधिक कुपोषण की और अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत न रहने की एक सामान्य बात मानी जाती थी। अब महिलाएं सजग हो गई हैं। अब एक मां बनने के बाद में भी वे अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होना सीख गई है। वह जानती है कि हमारे देश में महिला या मां परिवार का केंद्र होती है ,परिवार की धुरी होती है और अगर वह स्वस्थ है तो वह पूरे परिवार को स्वस्थ रख सकती हैं। पुराने समय में जहां लड़कियां पढ़ती नहीं थी, अशिक्षा के कारण उन्हें भेदभाव का भी सामना करना पड़ता था और उन्हें व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी नहीं थी। अब जबकि शिक्षा का प्रचार -प्रसार हो चुका है, महिलाएं अपनी शिक्षा को कर्म क्षेत्र के रूप में ढालना भी जानती हैं और एक मां के कर्तव्य को भी पूरा करना जानती हैं, वे दोनों में बैलेंस बनाना नहीं बल्कि उन्हें मैनेज करना जानती हैं। वे अब जानती हैं कि वे जब इस दुनिया में आगे बढ़ेंगी , तभी वह अपने बच्चों के लिए एक बेहतर उदाहरण प्रस्तुत कर सकती हैं। इसीलिए वह अपने बच्चों को अब वह सब कुछ सीखाना चाहतीं हैं, जो कि उसको, उसके साथ रहने के समय भी और उसके जाने के बाद भी एक मजबूत पेड़ की तरह है हमेशा खड़ा रहने में सहायक बने। अब मां अपनी इच्छा के लिए या अपने सपनों के लिए अपने परिवार पर या अपने बच्चों की इच्छाओं पर निर्भर नहीं रहती है , बल्कि वह अपने सपनों को अपने बच्चों और परिवार के साथ-साथ ही संभालना और पूरा करना सीख गई है।
मां की भूमिका आदर्श और चुनौतीपूर्ण दोनों हो सकती है। जापान में मां को बच्चे की आवश्यकताओं को पूर्वानुमानित करने की अपेक्षा होती है। जबकि कोलंबिया, केन्या, जोर्डन और फिलीपींस, माता-पिता को बच्चों पर कठोर नियंत्रण रखने की आवश्यकता मानी जाती है। ज़िम्बाब्वे में मां को बच्चों को पारंपरिक मूल्यों और संस्कारों का पालन कराने की जिम्मेदारी दी जाती है। मां की भूमिका कभी-कभी बोझिल भी हो सकती है क्योंकि मां होना आसान नहीं, यह एक गहरी जिम्मेदारी, प्रेम और त्याग का प्रतीक है। यह एक ऐसा संबंध है जो जीवनभर चलता है, जिसमें संघर्ष, बलिदान और अपार प्रेम समाहित होता है। उसकी भूमिका समय, समाज और संस्कृति के अनुसार बदलती रही है। प्राचीनकाल के सामूहिक समाजों से लेकर आधुनिक व्यक्तिवादी समाजों तक, मां का स्थान और भूमिका निरंतर विकसित होती रही है। फिर भी, मां का प्यार, त्याग और समर्पण हमेशा अपरिवर्तित रहा है। यह एक ऐसा संबंध है जो न केवल बच्चों को आकार देता है, बल्कि समाज और संस्कृति की नींव भी रखता है। इसलिए मां के को सिर्फ मदर्स डे के दिन याद न रखें बल्कि उसके स्वास्थ्य, पोषण और अन्य जरूरत के साथ उसका हर दिन ध्यान रखें। लीलाधर मंडलोई की कविता का एक अंश--
दुनिया जहान से भागती थी उस तरफ
जिधर सोया थ वह अचल अबोध
छाया से एक मां का होना समझ आता था
मैं चेष्टा में देख सकूं सत्य
बचता-बचाता अवाक इतना कि ऐसा देखा न था
छाया सौंप रही थी आंचल का अटल रस
कि जिधर हो सकते थे अधर अचल अबोध के
वह रस जो उसके हिस्से का था
उतर रहा था बिना रूके
वास्ते उसके जो लौट गया
भूखा अपने रास्ते
एक मां न सही पढ़ी-लिखी,
न दुनियादार
सौंपती है अचल-अबोध को उसका हिस्सा
दौड़ती रहेगी रात-बिरात कि भूखा है वह,
उसकी आत्मा भूखी
लौटेगा एक दिन
वह कि इस तरह लौटा है
कोई कभी उसकी दुनिया से भूखा-प्यासा
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