Jatigat Janganana Kaise Hoti Hai: भारत का जातिगत सर्वे क्या कहता है, कैसे होगी इन जातियों की गिनती, भारत के राज्य क्या चाहते हैं

Jatigat Janganana Kaise Hoti Hai: सरकार द्वारा आगामी राष्ट्रीय जनगणना में जातिगत आंकड़ों को शामिल करने की घोषणा की हुई है।

Akshita Pidiha
Published on: 1 May 2025 3:52 PM IST
Jatigat Janganana Kaise Hoti Hai
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Jatigat Janganana Kaise Hoti Hai

Jatigat Janganana Kaise Hoti Hai: ​30 अप्रैल 2025 को केंद्र सरकार ने एक ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए आगामी राष्ट्रीय जनगणना में जातिगत आंकड़ों को शामिल करने की घोषणा की। यह निर्णय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट समिति की बैठक में लिया गया, जिसे केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने सार्वजनिक किया।

जाति जनगणना का अर्थ है, राष्ट्रीय जनगणना के दौरान जनसंख्या की गणना को उनकी जातिगत पहचान के आधार पर करना।भारत में जनगणना का कार्य मुख्य रूप से भारत के गृह मंत्रालय के अधीन कार्यरत रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त कार्यालय द्वारा किया जाता है।अंतिम जातिगत जनगणना 1931 में कराई गई थी। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, 1931 की जाति जनगणना में कुल 4,147 जातियों की जानकारी दर्ज की गई थी।


भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) 2011 की शुरुआत जून 2011 में की गई थी। यह देशभर में घर-घर जाकर विस्तृत सर्वेक्षण के रूप में किया गया। इस जनगणना में केवल पिछड़ी जातियों (OBC) ही नहीं, बल्कि सभी जातियों के आंकड़े एकत्र किए गए थे, हालांकि यह आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं किए गए।

मांग कब शुरू हुई

जब बात जातिगत सर्वेक्षण और आरक्षण की होती है, तो यह जानना आवश्यक है कि इसकी मांग सबसे पहले किसने और क्यों की थी। जातिगत जनगणना की मांग को संगठित रूप से सबसे पहले बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक कांशीराम ने उठाया था। उनका तर्क था कि जब तक जनसंख्या के आधार पर विभिन्न जातियों का सही आंकड़ा नहीं होगा, तब तक सामाजिक न्याय और संसाधनों का समुचित बंटवारा संभव नहीं है।


इसी सिद्धांत को आधार बनाते हुए उन्होंने एक प्रसिद्ध नारा दिया: "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी"। यह नारा सामाजिक न्याय की लड़ाई में एक महत्वपूर्ण प्रतीक बन गया।

जाति व्यवस्था और वर्गीकरण की जटिलता

हालांकि जाति व्यवस्था भारतीय समाज का एक अहम हिस्सा है, लेकिन यह तय करना कि कौन किस जाति वर्ग में आता है, आज भी एक जटिल मुद्दा है। 2011 की भारत की जनगणना इस संदर्भ में प्रमुख स्रोत मानी जाती है, लेकिन इसमें जाति निर्धारण की प्रक्रिया को लेकर कई विसंगतियाँ और त्रुटियाँ पाई गई हैं।

Cast Ki Ginti (Image Credit-Social Media)

प्यू रिसर्च सेंटर का सर्वेक्षण

प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा 2019 से 2020 के बीच किए गए एक सर्वेक्षण में लगभग 30,000 वयस्क भारतीयों से 17 भाषाओं में सवाल पूछे गए। इस अध्ययन में पाया गया कि:

98% भारतीय, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, खुद को किसी न किसी जाति से जोड़ते हैं।

25% लोग खुद को अनुसूचित जाति (SC) से, 9% अनुसूचित जनजाति (ST) से और 35% अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) से संबंधित मानते हैं।

भारत के 33% ईसाई स्वयं को अनुसूचित जाति से संबंधित मानते हैं, जबकि 43% मुसलमान OBC के रूप में अपनी पहचान करते हैं।

संविधान और आरक्षण नीतियाँ

भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता को अवैध घोषित किया है और अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण नीतियों की व्यवस्था की है। यह आरक्षण विश्वविद्यालयों और सरकारी नौकरियों में अवसर सुनिश्चित करने के लिए लागू किया गया है। हालांकि, इन नीतियों को लेकर समाज में अक्सर मतभेद और राजनीतिक विवाद भी देखे जाते हैं।

2011 की जनगणना में जाति का लेखाजोखा

2011 की जनगणना में

केवल हिंदू, सिख और बौद्ध धर्मावलंबियों को SC के रूप में वर्गीकृत किया गया।

अनुसूचित जनजातियों में सभी धर्मों के लोगों को शामिल किया गया।

अनुसूचित जातियों के लिए आंकड़ा 17% और अनुसूचित जनजातियों के लिए 9% था।

गणनाकर्ताओं ने उत्तरदाताओं द्वारा बताई गई जाति को राज्यवार अनुमोदित सूचियों से मिलाया। यदि कोई जाति सूची में नहीं थी, तो उसे गणना में नहीं जोड़ा गया।

OBC वर्ग और मंडल आयोग

OBC की गणना 2011 की जनगणना में नहीं की गई। हालांकि, 1990 में मंडल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने सरकारी नौकरियों में OBC के लिए 27% आरक्षण लागू किया। इसके साथ कुछ राज्यों में आरक्षण की सीमा 50% से अधिक हो गई। यह निर्णय भारी विरोध और राजनीतिक बहस का कारण बना।


OBC की जनसंख्या का कोई आधिकारिक आंकड़ा आज भी उपलब्ध नहीं है, क्योंकि 2011 में की गई सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना (SECC) का डेटा गुणवत्ता कारणों से सार्वजनिक नहीं किया गया।

सर्वेक्षण और अनुमान का अंतर

प्यू रिसर्च जैसे सर्वेक्षणों में जाति पूछने की पद्धति जनगणना से भिन्न होती है:

सर्वेक्षण सभी धर्मों के लोगों से जाति के बारे में पूछते हैं।

इनमें जातियों की पुष्टि के लिए कोई स्वतंत्र सत्यापन प्रक्रिया नहीं होती।

सामान्यत: ये अनुसूचित जातियों के अनुपात को जनगणना से अधिक दर्शाते हैं।

उदाहरण के लिए, प्यू सर्वेक्षण के अनुसार अनुसूचित जातियों का अनुपात 25% है, जबकि जनगणना में यह 17% था। अनुसूचित जनजातियों के मामले में दोनों के आंकड़े समान (9%) हैं।

अन्य सर्वेक्षणों से तुलना

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS), जो भारत का प्रमुख सरकारी सर्वेक्षण है, जाति पूछने के साथ-साथ अपनी सैंपलिंग पद्धति में भी जाति को शामिल करता है। 2015-16 के NFHS में जाति पर पूछे गए प्रश्नों के माध्यम से व्यापक डेटा संकलित किया गया।

प्यू रिसर्च, NFHS और अन्य सर्वेक्षणों से प्राप्त भिन्न-भिन्न आंकड़े यह दर्शाते हैं कि भारत को एक मजबूत और विश्वसनीय जाति आधारित डेटा प्रणाली की सख्त ज़रूरत है, जो सभी धर्मों और समुदायों को समान रूप से शामिल करे। जब तक यह नहीं होता, तब तक नीति निर्माण अधूरी जानकारी के आधार पर चलता रहेगा।

Cast Ki Ginti (Image Credit-Social Media)

भारत में धर्म के आधार पर प्रजनन दर

भारत में वर्ष 2015-16 में औसत कुल प्रजनन दर (Total Fertility Rate - TFR) 2.2 रही, जो प्रतिस्थापन स्तर 2.1 के बहुत करीब है। यदि धर्म के अनुसार देखा जाए, तो जैन समुदाय की प्रजनन दर सबसे कम 1.2 दर्ज की गई, जो न केवल न्यूनतम है, बल्कि उनके उच्चतम औसत शिक्षा स्तर को भी दर्शाती है। इसके बाद सिख समुदाय की TFR 1.6 और बौद्धों की 1.7 रही। ईसाई समुदाय की प्रजनन दर 2.0 रही, जबकि हिंदुओं की दर 2.1 थी, जो बिल्कुल प्रतिस्थापन स्तर पर है। मुस्लिम समुदाय की TFR 2.6 रही, जो यद्यपि 2005-06 में 3.4 से गिरकर आई है, लेकिन अब भी यह प्रतिस्थापन स्तर से अधिक है।

जातीय आधार पर यदि आंकड़ों को देखा जाए, तो अनुसूचित जनजातियों (ST) की प्रजनन दर 2.5, अनुसूचित जातियों (SC) की 2.3, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की 2.2, और सामान्य वर्ग की 1.9 रही। इससे यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों में प्रजनन दर अपेक्षाकृत अधिक बनी हुई है। आय के आधार पर तुलना करें, तो सबसे गरीब परिवारों में TFR 3.2 रही, जबकि सबसे अमीर वर्गों में यह मात्र 1.5 रही।

महिलाओं की आयु और पहले बच्चे के जन्म के समय का औसत भी धर्म और आर्थिक स्थिति के अनुसार भिन्न रहा। मुस्लिम महिलाओं में पहले बच्चे के जन्म की औसत आयु 21.3 वर्ष रही, जबकि हिंदू महिलाओं में यह 21.6 वर्ष और सिखों में सबसे अधिक 23.8 वर्ष रही। अमीर वर्ग की महिलाएं आमतौर पर 24.4 वर्ष की उम्र में पहले बच्चे को जन्म देती हैं, जबकि गरीब वर्ग में यह आयु 20.3 वर्ष रही।


40 से 49 वर्ष की आयु वर्ग की महिलाओं में औसतन मुस्लिम महिलाओं ने अपने जीवनकाल में 4.2 बच्चे जन्म दिए, जो कि हिंदू महिलाओं (3.1 बच्चे) और जैन महिलाओं (2.2 बच्चे) से अधिक है। परिवार नियोजन के क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण रुझान देखा गया, जहां एक ही बच्चे वाली लगभग 30 प्रतिशत महिलाओं ने नसबंदी (sterilization) को अपनाया, जिससे छोटे परिवार की ओर लोगों की प्रवृत्ति स्पष्ट होती है।

भारत सरकार द्वारा करवाया गया राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण – 5 (NFHS-5) [2019–21] धार्मिक आधार पर TFR का विस्तृत आंकड़ा प्रस्तुत करता है।

प्रमुख अवलोकन

सभी धर्मों में गिरावट: पिछले दो दशकों में लगभग सभी धर्मों की प्रजनन दर में उल्लेखनीय गिरावट देखी गई है।

मुस्लिम समुदाय में तेज गिरावट: मुस्लिम समुदाय में वर्ष 1992-93 में TFR 4.4 थी, जो अब 2.36 रह गई है यह एक बड़ी सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन की ओर संकेत करता है।

हिंदू समुदाय की TFR 1.94 है, जो प्रतिस्थापन स्तर से नीचे है। यह जनसंख्या स्थिरता की ओर इंगित करता है।


जैन और बौद्ध समुदायों में सबसे कम TFR पाई गई है — क्रमश: 1.60 और 1.39, जो अत्यंत निम्न स्तर है और संभावित जनसंख्या संकुचन (population contraction) की ओर संकेत करता है।

शहरी बनाम ग्रामीण अंतर: शहरी क्षेत्रों में TFR आमतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों से कम होती है, और यह अंतर सभी धर्मों में देखा गया है।

संभावित कारण

शिक्षा और साक्षरता: जैसे-जैसे महिलाओं की शिक्षा का स्तर बढ़ता है, प्रजनन दर कम होती जाती है। मुस्लिम महिलाओं में भी शिक्षा के प्रसार से TFR में गिरावट आई है।

स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच: सरकारी योजनाएं जैसे जननी सुरक्षा योजना, मिशन इंद्रधनुष, परिवार नियोजन सेवाओं की उपलब्धता ने TFR को प्रभावित किया है।

शहरीकरण: शहरी जीवनशैली में छोटे परिवार की धारणा प्रबल है।

महिला सशक्तिकरण: नौकरी, आर्थिक स्वतंत्रता और निर्णय लेने की शक्ति बढ़ने से महिलाएं परिवार नियोजन को प्राथमिकता देती हैं।

धार्मिक मान्यताओं में बदलाव: अब धर्म आधारित परिवार वृद्धि की अवधारणाएं धीरे-धीरे पीछे छूट रही हैं।

कौन-कौन से राज्यों ने जातिगत जनगणना या सर्वेक्षण कराया है?

कर्नाटक में क्या हुआ?

2014 में सिद्धारमैया सरकार ने “सामाजिक एवं आर्थिक सर्वे” कराया था। 2017 में रिपोर्ट तैयार हुई लेकिन इसे सार्वजनिक नहीं किया गया। इसमें हजारों लोगों ने अपनी उपजाति को प्रमुख जाति के तौर पर दर्ज कराया, जिससे 192 से अधिक नई जातियों का डेटा सामने आया। इनमें कुछ जातियों की जनसंख्या 10 से भी कम थी। इससे OBC वर्ग की संख्या बढ़ गई और लिंगायत, वोक्कालिगा जैसे प्रभावशाली समुदायों की संख्या कम दिखने लगी। इसी कारण रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया।

बिहार की जातिगत जनगणना का परिणाम


बिहार सरकार द्वारा अक्टूबर 2023 में जारी आंकड़ों के अनुसार राज्य की 63% आबादी पिछड़ा वर्ग से आती है।27% लोग पिछड़ा वर्ग में आते हैं। 36% अति पिछड़े वर्ग में शामिल हैं।SC की आबादी लगभग 20% है, जबकि 2011 में यह 15.9% थी।सामान्य वर्ग की आबादी लगभग 15% बताई गई। अनुसूचित जनजातियाँ (ST): 1.68% हैं।

आंध्र प्रदेश: 19 जनवरी को आंध्र प्रदेश सरकार ने जाति आधारित व्यापक डेटा बेस तैयार करने की प्रक्रिया शुरू की।

तेलंगाना: नवंबर 2024 में, तेलंगाना में 3.54 करोड़ लोगों का सर्वेक्षण किया गया जिसमें सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, रोजगार, राजनीतिक और जातिगत स्थिति पूछी गई। इस सर्वेक्षण में "कोई जाति नहीं" और "कोई धर्म नहीं" जैसे विकल्प भी थे।

जातिगत जनगणना और जाति सर्वेक्षण में क्या अंतर है?

सर्वेक्षण (Survey) किसी जनसंख्या के केवल एक हिस्से से डेटा एकत्र करने की प्रक्रिया है। इसमें नमूना चयन (sample) के आधार पर संपूर्ण जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने की कोशिश की जाती है।जबकि जनगणना (Census) में हर व्यक्ति से जानकारी एकत्र की जाती है। इसलिए जनगणना के आंकड़े अधिक सटीक और विस्तृत होते हैं।

क्या-क्या हुआ

जातिगत जनगणना पर बहस हर जनगणना से पहले संसद में उठती रही है।मार्च 2021 में केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय ने राज्यसभा में कहा: “स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने नीति रूप में निर्णय लिया कि SC और ST को छोड़कर अन्य किसी जाति की जनसंख्या की गणना नहीं की जाएगी।”2021 में महाराष्ट्र विधानसभा ने केंद्र से जातिगत जनगणना कराने की सर्वसम्मति से मांग की थी।2023 में सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार द्वारा कराई गई जाति आधारित जनगणना को चुनौती देने वाली याचिकाएं खारिज कर दीं।2024 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को जातिगत जनगणना कराने का निर्देश देने वाली एक जनहित याचिका खारिज कर दी।2023 में, प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि देश के संसाधनों पर सबसे पहला अधिकार गरीबों का है, क्योंकि वही सबसे बड़ी आबादी हैं।

जातिगत जनगणना क्यों महत्वपूर्ण है?

जातिगत जनगणना केवल एक जनसांख्यिकीय अभ्यास नहीं है; यह एक राजनीतिक रूप से संवेदनशील विषय है जिसके गहरे सामाजिक प्रभाव हैं।सटीक जातिगत आंकड़े वर्तमान सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को दूर करने के लिए शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण जैसी सकारात्मक कार्रवाई नीतियों को बेहतर ढंग से तैयार करने में मदद कर सकते हैं।कई लोग जातिगत जनगणना को वंचित समुदायों की पहचान और उत्थान के लिए जरूरी मानते हैं, लेकिन यह भी चेतावनी दी जाती है कि इससे जातिगत पहचानें और अधिक मजबूत हो सकती हैं और सामाजिक विभाजन भी गहरे हो सकते हैं।

यह घोषणा व्यापक जातिगत गणना एक बड़े नीति परिवर्तन को दर्शाती है, लेकिन यह देखना अभी बाकी है कि डेटा कैसे एकत्र किया जाएगा, वर्गीकृत किया जाएगा और इसका उपयोग कैसे किया जाएगा।

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