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सिमटती हुई भाषा का अर्थ
Meaning of Language Limitation: आखिर हम चैट जीपीटी या अन्य साधनों पर इतना अधिक आश्रित क्यों हो चुके हैं कि हम अपने मस्तिष्क को बिल्कुल भी श्रम नहीं करने देना चाहते।
Meaning of Language Limitation (Image Credit-Social Media)
Meaning of Language Limitation: क्या समाज में भाषा सिमट गई है? क्या हम अपनी कल्पनाओं के घोड़ों को दौड़ाना बंद कर चुके हैं? क्या हम चैट जीपीटी या अन्य साधनों पर इतना अधिक आश्रित हो चुके हैं कि हम अपने मस्तिष्क को बिल्कुल भी श्रम नहीं करने देना चाहते? बच्चे तो बच्चे बड़े भी अब अपनी कल्पना के घोड़ो को लगाम दे रहे हैं। क्योंकि चैट जीपीटी से ही छात्र अब सवालों के उत्तर निकाल देते हैं, यहां तक की सवाल भी निकाल लेते हैं, तो इतना समय या इतना अपने मस्तिष्क को क्यों परिश्रम कराया जाए जब चैट जीपीटी यह काम कुछ ही सेकंड में कर देता है। अब हम बच्चों को देखते हैं कि जब उन्हें किसी तरह का अपने विद्यालय से गृह कार्य दिया जाता है, तो वह उस को करने के लिए चैट जीपीटी का सहारा लेते हैं। इस तरह से वह गृहकार्य तो पूरा हो जाता है पर क्या उस बच्चे ने, क्या उस छात्र ने अपने मस्तिष्क को धारदार किया, नहीं ,क्योंकि उसने न तो सोचने में समय लगाया और न ही उसने अपने सोचने की क्षमता को परिष्कृत किया।
जो चीज नितांत स्थिर और शांत हो जाती है, उनमें कोई द्वंद ही नहीं होता, उनसे भी कोई द्वंद नहीं होता क्योंकि उनके चारों तरफ तो हरियाली ही होती है और उनमें कोई तनाव भी नहीं होता है, तो वह निष्क्रिय हो जाती है। क्या यह तनाव से बचने का एक माध्यम बन गया है? अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था कि 'कल्पना ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि ज्ञान सीमित है जबकि कल्पना समस्त संसार को समेटती है।'
अब 30 वर्ष से कम उम्र की पीढ़ी को बहुत अधिक जानकारी है, बहुत अधिक ज्ञान है और यह उनकी टिप्स पर है क्योंकि उन्हें यह निकालने में बिल्कुल भी समय नहीं लगता लेकिन इस ज्ञान की भी अपनी एक सीमा है। जबकि जो कल्पना का संसार है । कल्पना वह इस आकाश और पृथ्वी के जितना विस्तार लिए हुए होती है, जिसका छोर हमें लगता तो है कि वह अब आया, अब आया । पर वह आता नहीं है। एक व्यक्ति जितना अधिक कल्पना करता है, कल्पना कर सकता है, उसके सोचने की, समझने की क्षमता भी अधिक बढ़ जाती है। कल्पना करने का अर्थ मुंगेरीलाल के हसीन सपने देखना नहीं होता बल्कि यह अनेक तरह के विकल्पों पर काम करना होता है। यह एक जानी हुई बात है कि विचारों के साथ में भाषा का रिश्ता बहुत ही घनिष्ट होता है। अगर किसी का भाषिक आधार मजबूत होता है तो उसके सोचने-समझने और देखने की दृष्टि भी उतनी ही स्पष्ट और विस्तृत होती है। पर अब हम विचारों से परहेज करने लगे हैं, हम उन्हें उत्पन्न ही नहीं होने देना चाहते हैं क्योंकि जब विचारों की अधिकता होगी तो हमें उससे बाहर निकलने के लिए अपने आप को उतना परिष्कृत करना होगा कि हम सारे विचारों को एक तरफ कर, अपने लिए एक विचार या कुछ विचारों के समूह को चुन सके।
अब जबकि हम छात्रों से बात करते हैं तो उनका जो शब्दकोश है वह बहुत ही सिमट गया है, जबकि उन्हीं के माता-पिता या दादा-दादी का शब्दकोश आज भी इतना बड़ा है कि वह बहुत देर तक किसी भी विषय पर बात कर सकते हैं। जबकि हमारा जो युवा है उसके पास में ज्ञान जरूर है । पर वह अब उसको किस अलग-अलग तरह से उसका प्रयोग करे वह अब यह भूलता जा रहा है। वह नवाचार तो कर रहा है पर उसके पास में बात करने के लिए कहानियों की, मुद्दों की, विषयों की कमी होती जा रही है।
वह एक विषय में ज्ञान तो प्राप्त करता है पर वह उसके साथ में अनेक सह विषयों को नहीं जोड़ पाता है। वे कहावतें नहीं जानते हैं, वे मुहावरों का प्रयोग नहीं करना जानते हैं, वे उदाहरण नहीं देना जानते हैं। वे सीधे-सीधे अपनी बात कह देते हैं , जबकि ये कहावतें ,ये मुहावरे जो थे वह हमारी पुरानी पीढ़ियों के एक लंबे समय के अनुभव से निकले हुए कुछ शब्दों के छोटे-छोटे से वाक्य थे, जिनसे वे जीवन का एक बहुत बड़ा सबक या अपना अनुभव या कोई यथार्थ समझा देते थे। वे चाहे फिर हमारे दोहें हो या हमारे संस्कृत के श्लोक हो, उन दो पंक्तियों के दोहों या संस्कृत के श्लोकों में इस तरह का सार छुपा हुआ होता था कि जिसका जब हम भावार्थ निकालें तो वह सिर्फ दो पंक्तियां तक सीमित नहीं रहकर बल्कि एक बहुत बड़े अनुभव का खजाना खुल जाता था।
हमारी आज भी वही मूलभूत आवश्यकताएं हैं, बस यह है कि हमने अपनी सुख-सुविधा के नए संसाधनों का जुगाड़ कर लिया है। हमारी सभ्यता से हम क्या सीख रहें हैं? एक तरफ जब हम अपनी भाषा को ही खोते जा रहे हैं, जो कि हमारे संस्कार, हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता को एक से दूसरे तक पहुंचाती है। ऐसे में हमने इस खजाने को ही कहीं पीछे छोड़ दिया है और यह जीवन उस किताब की भांति होता है जिसमें पन्ने को पीछे पलटने का कोई विकल्प ही नहीं होता, इसलिए हमें सावधानी से इस जीवन रूपी पुस्तक को पढ़ना चाहिए।
अब जब हम सोशल मीडिया पर अपने अनौपचारिक संदेशों में इमोजी का बहुत अधिक प्रयोग कर रहे हैं तो ऐसा लगने लगा है कि अब हमारी संवाद की भाषा के शब्द खत्म होते जा रहे हैं, बिखरते जा रहे हैं यह हमें यह ही नहीं पता होता है कि हमें उन शब्दों का किस तरह से प्रयोग करना चाहिए। क्योंकि जब हम नई पीढ़ी से आमने-सामने या फोन- मोबाइल पर भी बात करते हैं तो उनके पास में खाली इतना ही होता है कहने के लिए कि वह जो कह रहे हैं वह हमें समझ में आ रहा है या नहीं। उनके पास में बहुत अधिक बातें ही नहीं होती हैं करने के लिए।
शायद बातों का जो लच्छेदारपना होता है , वे उसको समझ नहीं रहे हैं। क्योंकि यह भाषा ही होती है जो अन्य से हमें जोड़ती है, अन्य यानि इस समाज से, इस संसार से, इस सृष्टि से हमें जोड़ती है। और अब जबकि हम यह अनुभव कर रहे हैं कि जो भाषा का संसार है वह एक सीमा में सिमटता जा रहा है क्योंकि अब हम किसी के दुख से दुखी नहीं है और सुख से सुखी नहीं है। सोशल मीडिया पर हमें अपनी उपस्थिति रखनी होती है । इसलिए हम दूसरों की पोस्ट को स्क्रोल करते हुए इमोजी डालते हैं और आगे बढ़ जाते हैं, हमें न तो उसके दुख से कोई तकलीफ होती है , न हमें उसके सुख से कोई खुशी होती है। 'रिप' लिखें या बधाई का स्टीकर पोस्ट कर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। बस चुंकि यह करना है इसलिए हमें इमोजी डालकर अपना कर्तव्य पूरा कर लेते हैं। अब तो हमें इमोजी को ढूंढने की भी जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि सोशल मीडिया हमें तुरंत अनेक विकल्प उपलब्ध करा देता है और हमने उस पर सिर्फ टिक करना होता है।
अब हम अपने खोए हुए शब्दों को कहां ढूंढे। पहले जब हम दूसरों तक अपनी भावना पहुंचाना चाहते थे तब हम लिखते थे, हमें एक दूसरे को समाचार देने होते थे, तब हम लिखते थे। एक शहर की, दूसरे शहर की खबरें पढ़नी होती थी, तब हम समाचार पत्र को पढ़ते थे। पर अब यह है सब कुछ लिखना-पढ़ना या अपने अंदर के भावों को उतारकर सामने लिखकर रखना यह अब नयी पीढ़ी के लिए कम होता जा रहा है। और जो अंदर के अव्यक्त को लिखा जाता हैं शायद वह अब इतना महत्वपूर्ण भी नहीं रहा। क्योंकि मशीनी होते जा रहे इस समाज में भावनाओं का महत्व बहुत खत्म होता जा रहा है और जब भावना ही नहीं होती तो विचार नहीं बनते और विचार नहीं बनते तो उसके साथ घनिष्ठ संबंध वाली रखने वाली भाषा भी नहीं बन पाती है। जब भाषा ही नहीं होती तब हमारे शब्द भी कहां से होंगे? न शब्द होते हैं, न भाषा होती है। इसीलिए हम उन साधनों में अधिक दिलचस्पी लेते हैं जहां पर हमें इन दोनों की ही आवश्यकता एकदम कम होती है। शायद इसीलिए आज की पीढ़ी का स्क्रीन टाइम बढ़ गया है क्योंकि वहां पर उसे न भाषा की जरूरत होती है, न शब्दों की, न विचारों को प्रकट करने की। बस वह जैसे चाहे वैसे वह खेलते रहे, उसको प्रयोग करते रहें। सोचना होगा हमें कि हम अपने खोते हुए शब्दों को , खोती हुई भाषा को कैसे संभाल कर रखें।
( लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)
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