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भाषा नहीं, राजनीति का विवाद: कब तक बंटेगा भारत?
Politics: "जब भाषा हथियार बने, तो समझिए राजनीति की ज़मीन दरक रही है।"
Dispute not of Language but of Politics (Image Credit-Social Media)
Politics: दक्षिण के तमिलनाडु से लेकर उत्तर के हिंदी प्रदेशों तक – भारत में "भाषा" का विवाद एक पुराना घाव है, जिसे राजनीति बार-बार कुरेदती है। यह विवाद अब सीमाएँ लाँघ रहा है: विदेशों में बसे भारतीय मूल के लोगों के बीच यह नस्लीय टिप्पणियों और हिंसक झड़पों तक पहुँच चुका है। सवाल यह है: इस विषैले चक्र का अंत कहाँ है? और क्या वैश्विक होती दुनिया में यह विभाजन टिकाऊ है?
तथ्य-जाँच: विवाद का ऐतिहासिक पट्टा
1. 1960 का हिंदी विरोधी आंदोलन:
तथ्य: 1965 में हिंदी को एकमात्र राजभाषा बनाने के प्रयास के खिलाफ तमिलनाडु में भीषण विरोध हुआ।
नतीजा: राजभाषा अधिनियम में संशोधन कर अंग्रेजी को अनिश्चित काल तक जारी रखा गया। यह दक्षिण की सांस्कृतिक अस्मिता और रोजगार के भय का प्रतीक बना।
2. "हिंदी थोपने" का आरोप:
तथ्य: केंद्र सरकार की नई शिक्षा नीति (NEP), रेलवे रिक्रूटमेंट या सोशल मीडिया पर "हिंदी में बोलो" जैसी घटनाएँ दक्षिण और पूर्वोत्तर में आक्रोश पैदा करती हैं।
आँकड़ा: 2011 जनगणना के अनुसार, भारत की 57% आबादी की मातृभाषा हिंदी नहीं है।
3. विदेशों में विषैला रूप:
तथ्य: अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया में "हिंदी vs तमिल/तेलुगु" विवाद सोशल मीडिया पर नस्लीय अपमान ("मद्रासी", "बिहारी") और शारीरिक हिंसा (2023 सिडनी झगड़ा) तक पहुँचा।
कारण: प्रवासी भारतीयों में क्षेत्रीय पहचान का अतिरेक, और देशी राजनीति का "आयात"।
राजनीति का हथियार: तुरंत लाभ, दीर्घकालिक अंधकार
वोट बैंक की राजनीति: कुछ दल हिंदी को "राष्ट्रप्रेम" से, तो दूसरे "क्षेत्रीय गौरव" को भाषा से जोड़कर भावनात्मक ध्रुवीकरण करते हैं।
वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाना: बेरोजगारी, महंगाई, स्वास्थ्य जैसे मुद्दे गौण हो जाते हैं।
सांस्कृतिक श्रेष्ठता का भ्रम: "हिंदी = राष्ट्रभक्ति" या "तमिल = प्राचीन श्रेष्ठता" का नैरेटिव अहंकार और हीनभावना दोनों पैदा करता है।
वैश्विक दुनिया में भाषा-विवाद: एक आत्मघाती रणनीति
1. आर्थिक नुकसान: बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बहुभाषी कौशल (अंग्रेजी + स्थानीय भाषा) चाहती हैं। भाषाई कट्टरता रोजगार क्षमता घटाती है।
2. सॉफ्ट पावर का क्षरण: तमिल सिनेमा, केरल का साहित्य, बंगाल की संस्कृति – भारत की विविधता ही उसकी वैश्विक पहचान है। विवाद इस पहचान को कमजोर करता है।
3. प्रवासी एकजुटता की कमी: विदेशों में भारतीय चीनियों या यहूदियों की तरह एकजुट नहीं हैं। भाषाई विद्वेष इस कमजोरी को बढ़ाता है।
विश्व बंधुत्व का मार्ग – भाषा जोड़े, तोड़े नहीं
भाषा विवाद का "अंत" इन सिद्धांतों में छिपा है:
1. "और" की नीति, "या" की नहीं: हिंदी और तमिल, अंग्रेजी और मलयालम। त्रिभाषा फॉर्मूला (मातृभाषा + हिंदी/क्षेत्रीय भाषा + अंग्रेजी) को ईमानदारी से लागू करें।
2. राजनीति से मुक्ति: भाषा को राष्ट्रवाद या अस्मिता का प्रतीक बनाना बंद करें। इसे संचार और संस्कृति का माध्यम ही रहने दें।
3. विविधता = ताकत: विश्व बंधुत्व की नींव है – अपनी भाषा पर गर्व, दूसरों की भाषा का सम्मान। भारत का बहुभाषावाद उसे 21वीं सदी की ज्ञान अर्थव्यवस्था में बढ़त दे सकता है।
4. युवा पीढ़ी की भूमिका: सोशल मीडिया पर ट्रोल्स को नकारें, भाषाई मित्रता के अभियान चलाएँ। बेंगलुरु का सॉफ्टवेयर इंजीनियर हिंदी सीखे, दिल्ली का छात्र तमिल सीखे।
5. वैश्विक नागरिक बनें: विदेशों में बसे भारतीय "भारतीयता" को क्षेत्रीयता से ऊपर रखें। तेलुगु समारोह में हिंदीभाषी शामिल हों, भोजपुरी गीत पर तमिल थिरके।
अंतिम पंक्तियाँ:
भाषा विवाद का इतिहास हमें चेताता है: जब-जब इसे राजनीति का हथियार बनाया गया, देश कमजोर हुआ। आज जब दुनिया "ग्लोकल" (ग्लोबल + लोकल) की ओर बढ़ रही है, भारत को अपनी बहुभाषी संपदा पर गर्व करना चाहिए। याद रखें: हिंदी किसी की मातृभाषा नहीं छीन सकती, और तमिल किसी का गौरव कम नहीं कर सकती।
अगली बार जब कोई नेता भाषा के नाम पर विष बोए, तो पूछिए: "क्या आपको मेरी बेरोजगारी, महंगाई या अस्पतालों की दुर्दशा से कोई समस्या नहीं है?" क्योंकि भाषा तो जोड़ती है – तोड़ती है वो राजनीति, जिसका मकसद सिर्फ सत्ता पाना है। विश्व बंधुत्व की शुरुआत अपने घर में भाषाई भाईचारे से होती है।
"राष्ट्र एक भावना है, एक विचार है... और इस विचार को जीवित रखने के लिए भाषाओं की बहुतायत बाधा नहीं, बल्कि समृद्धि है।"
– महात्मा गांधी (विचार के संदर्भ में)
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