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सिकंदर और दंडमिस: एक भूली हुई मुलाकात की कहानी

Sikandar and Dandamis: क्या आप जानते हैं कि जब सिकंदर और दंडमिस की मुलाकात हुई थी तब क्या हुआ था? आइये जानते हैं कैसी थी उस भूली हुई मुलाकात की कहानी।

Akshita Pidiha
Published on: 30 Jun 2025 7:28 PM IST
Sikandar and Dandamis
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Sikandar and Dandamis (Image Credit-Social Media)

Sikandar and Dandamis: सिकंदर महान, जिसे दुनिया अलेक्जेंडर द ग्रेट के नाम से जानती है, तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व का वह योद्धा था, जिसने आधा जाना-पहचाना विश्व जीत लिया था। मकदूनिया के इस शासक ने फारस, मिस्र, मेसोपोटामिया और मध्य एशिया को अपने कब्जे में किया। लेकिन जब वह भारत की सरहदों पर पहुँचा, तो उसका सामना न सिर्फ युद्ध के मैदानों में हुआ, बल्कि एक ऐसी दुनिया से भी हुआ, जिसने उसकी सोच को चुनौती दी। 326 ईसा पूर्व में, जब सिकंदर पंजाब के तक्षशिला में था, उसकी मुलाकात हुई एक भारतीय दार्शनिक दंडमिस से। यह मुलाकात इतिहास में कम दर्ज हुई, लेकिन यह सिकंदर के जीवन की सबसे गहरी घटनाओं में से एक थी। यह कहानी न सिर्फ दो व्यक्तियों की बातचीत की है, बल्कि पश्चिमी विजेता और भारतीय दर्शन के बीच एक अनोखे संवाद की भी है।

सिकंदर का भारत अभियान

सिकंदर का जन्म 356 ईसा पूर्व में मकदूनिया के पेला में हुआ था। उनके गुरु थे मशहूर यूनानी दार्शनिक अरस्तू, जिन्होंने उन्हें ज्ञान, विज्ञान और युद्ध की कला सिखाई। 20 साल की उम्र में सिकंदर अपने पिता फिलिप द्वितीय की हत्या के बाद राजा बना। उसने जल्द ही अपने पिता के सपने को पूरा करने का बीड़ा उठाया—एक विशाल साम्राज्य की स्थापना। उसने फारस के विशाल साम्राज्य को हराया, मिस्र में खुद को फिरौन घोषित किया और मध्य एशिया के दुर्गम रास्तों को पार किया। लेकिन उसका मन अभी भरा नहीं था। वह दुनिया के छोर तक जाना चाहता था, और भारत, जो उस समय धन, दर्शन और रहस्यों का देश माना जाता था, उसका अगला लक्ष्य था।


326 ईसा पूर्व में, सिकंदर ने हिंदूकुश पर्वत को पार किया और भारत में प्रवेश किया। उसने तक्षशिला (आज का टैक्सिला, पाकिस्तान) के राजा अंभि को हराया, जो बिना लड़े आत्मसमर्पण कर गया। तक्षशिला उस समय का एक बड़ा शिक्षा और व्यापार केंद्र था, जहाँ यूनानी और भारतीय संस्कृतियों का मेल हो रहा था। लेकिन सिकंदर का रास्ता आसान नहीं था। उसने झेलम नदी के किनारे पोरस (पुरु) के साथ हाइडस्पीज की लड़ाई लड़ी, जो उसकी सबसे कठिन जंगों में से एक थी। पोरस की हार के बाद भी सिकंदर ने उसका सम्मान किया और उसे उसका राज्य लौटा दिया। लेकिन इन युद्धों के बीच, सिकंदर का सामना एक ऐसी दुनिया से हुआ, जो तलवारों से नहीं, बल्कि विचारों से जीती जाती थी—भारतीय दर्शन की दुनिया।

दंडमिस: एक नग्न साधु

दंडमिस, जिन्हें कुछ यूनानी स्रोतों में डंडमिस या डांटमिस कहा गया, एक भारतीय साधु थे, जो जैन या वैदिक परंपरा के दिगंबर साधु माने जाते हैं। उनका असली नाम अज्ञात है, क्योंकि भारतीय परंपरा में साधु अक्सर अपने सांसारिक नाम को त्याग देते थे। यूनानी इतिहासकारों, जैसे स्ट्रैबो और प्लूटार्क, ने उन्हें एक नग्न दार्शनिक के रूप में वर्णित किया, जो जंगल में रहता था और सांसारिक सुखों से दूर था। दंडमिस तक्षशिला के आसपास के जंगलों में अपने कुछ शिष्यों के साथ रहते थे। वे पूरी तरह नग्न रहते थे, ध्यान और तपस्या में लीन, और प्रकृति के साथ एकाकार।


उस समय भारत में जैन, बौद्ध और वैदिक दर्शन अपने चरम पर थे। दिगंबर जैन साधु नग्न रहकर यह दिखाते थे कि उन्होंने सांसारिक मोह-माया को पूरी तरह त्याग दिया है। दंडमिस भी ऐसी ही परंपरा का हिस्सा थे। उनकी सादगी और आत्मनियंत्रण की कहानियाँ तक्षशिला तक पहुँची थीं, और यूनानी सैनिकों ने उन्हें "जिम्नोसॉफिस्ट" (नग्न दार्शनिक) का नाम दिया। सिकंदर, जो अरस्तू का शिष्य था और दर्शन में रुचि रखता था, इन साधुओं के बारे में सुनकर उत्सुक हो गया। वह उनसे मिलना चाहता था, क्योंकि उसे लगता था कि भारत के ये दार्शनिक उसे दुनिया के रहस्यों का जवाब दे सकते हैं।

मुलाकात की शुरुआत

सिकंदर ने अपने दूतों को दंडमिस और अन्य साधुओं को अपने दरबार में बुलाने के लिए भेजा। लेकिन दंडमिस ने सिकंदर का न्योता ठुकरा दिया। यूनानी इतिहासकार अर्रियन के अनुसार, दंडमिस ने कहा कि वह किसी राजा के सामने नहीं झुकेगा, क्योंकि उसे किसी सांसारिक चीज़ की जरूरत नहीं है। यह जवाब सिकंदर के लिए नया था। वह एक ऐसा विजेता था, जिसके सामने बड़े-बड़े राजा घुटने टेक चुके थे। लेकिन एक नग्न साधु ने न सिर्फ उसका न्योता ठुकराया, बल्कि उसे चुनौती भी दे दी। सिकंदर के लिए यह एक तरह का अपमान था, लेकिन उसकी जिज्ञासा और बढ़ गई।

सिकंदर ने फैसला किया कि वह खुद दंडमिस से मिलने जाएगा। यह अपने आप में एक अनोखी बात थी, क्योंकि सिकंदर जैसे शासक के लिए किसी साधु के पास जाना उस समय असामान्य था। वह अपने कुछ सैनिकों और यूनानी दार्शनिकों, जैसे ओनेसिक्रिटस, को लेकर तक्षशिला के जंगल में गया। वहाँ उसे दंडमिस एक पेड़ के नीचे ध्यानमग्न मिला। साधु पूरी तरह नग्न था, और उसका चेहरा शांति से भरा था। सिकंदर, जो सोने-चांदी की पोशाक और शाही ठाठ में था, उस साधु की सादगी से हैरान रह गया।

संवाद: शक्ति बनाम दर्शन

सिकंदर और दंडमिस की बातचीत को यूनानी इतिहासकारों ने अपने-अपने तरीके से दर्ज किया है, लेकिन इसका सार एक ही है। सिकंदर ने दंडमिस से पूछा कि वह नग्न क्यों रहता है और जंगल में क्या कर रहा है। दंडमिस ने जवाब दिया कि वह आत्मा की शांति की तलाश में है। उसने कहा कि शरीर को कपड़ों की जरूरत नहीं, क्योंकि प्रकृति ही सब कुछ देती है। उसने सिकंदर से पूछा कि वह इतनी दूर तक युद्ध क्यों लड़ रहा है, जब असली सुख भीतर छिपा है।

सिकंदर ने अपनी उपलब्धियों का ज़िक्र किया। उसने बताया कि उसने आधा विश्व जीत लिया है और वह दुनिया को एक करने का सपना देखता है। लेकिन दंडमिस ने उसका जवाब कुछ यूं दिया कि जो इंसान अपनी इच्छाओं को नहीं जीत सकता, वह दुनिया जीतकर भी हारा हुआ है। उसने कहा कि सच्चा विजेता वही है, जो अपने मन को काबू में रखता है। यह सुनकर सिकंदर थोड़ा चुप हो गया। वह अरस्तू से दर्शन सीख चुका था, लेकिन दंडमिस का यह सीधा और गहरा दर्शन उसके लिए नया था।


दंडमिस ने सिकंदर से कहा कि वह अपने साथ चलकर भारत के दर्शन को समझे। लेकिन सिकंदर ने मना कर दिया, क्योंकि उसका मिशन युद्ध और विजय का था। सिकंदर ने दंडमिस को अपने साथ ग्रीस चलने का न्योता दिया और वादा किया कि वह उसे सोना-चांदी और शाही सम्मान देगा। लेकिन दंडमिस ने हँसते हुए कहा कि उसे इन चीज़ों की जरूरत नहीं, क्योंकि वह पहले से ही सब कुछ का मालिक है। उसने कहा कि सच्चा धन वह है, जो मन की शांति देता है, न कि वह जो लूट से मिलता है।

सिकंदर पर प्रभाव

यह मुलाकात सिकंदर के लिए एक झटके जैसी थी। वह एक ऐसा शासक था, जिसके सामने दुनिया झुकती थी, लेकिन दंडमिस ने न सिर्फ उसका न्योता ठुकराया, बल्कि उसकी पूरी ज़िंदगी के मकसद पर सवाल उठा दिया। यूनानी स्रोतों के अनुसार, सिकंदर ने दंडमिस का सम्मान किया और उसे बिना परेशान किए वापस लौट गया। उसने अपने साथियों से कहा कि अगर वह राजा न होता, तो वह दंडमिस जैसा बनना चाहता। यह बयान सिकंदर की उस आंतरिक उथल-पुथल को दर्शाता है, जो भारत में उसके सामने आई।

भारत में सिकंदर का अभियान यहीं खत्म नहीं हुआ, लेकिन यह मुलाकात उसके मन पर गहरी छाप छोड़ गई। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि दंडमिस और अन्य भारतीय साधुओं से मिलने के बाद सिकंदर की महत्वाकांक्षा में कमी आई। उसकी सेना पहले से ही थक चुकी थी, और जब उसने गंगा की ओर बढ़ने की योजना बनाई, तो उसके सैनिकों ने बगावत कर दी। सिकंदर को वापस लौटना पड़ा, और 323 ईसा पूर्व में बेबीलोन में उसकी मृत्यु हो गई। वह सिर्फ 32 साल का था।

भारतीय दर्शन की जीत

दंडमिस की कहानी सिर्फ एक मुलाकात की नहीं है। यह उस भारतीय दर्शन की ताकत को दर्शाती है, जो बिना हथियारों के भी दुनिया के सबसे बड़े विजेता को झुका सकता था। सिकंदर ने भारत के कई राजाओं को हराया, लेकिन दंडमिस जैसे साधु ने उसे विचारों के मैदान में चुनौती दी। यह मुलाकात दो सभ्यताओं—यूनानी और भारतीय—के बीच एक अनोखा संवाद थी। जहाँ सिकंदर की दुनिया शक्ति और विजय पर आधारित थी, वहीं दंडमिस की दुनिया आत्मसंयम और शांति पर टिकी थी।


यूनानी इतिहासकारों ने इस मुलाकात को दर्ज किया, लेकिन भारतीय स्रोतों में इसका ज़िक्र नहीं मिलता। इसका कारण शायद यह है कि भारतीय परंपरा में साधुओं के लिए ऐसी मुलाकातें सामान्य थीं। दंडमिस जैसे साधु राजाओं और सैनिकों से ऊपर थे। उनके लिए सिकंदर कोई विशेष व्यक्ति नहीं था, बल्कि एक और सांसारिक इंसान था, जो इच्छाओं के पीछे भाग रहा था।

क्यों भूल गई यह कहानी

यह कहानी कम चर्चित है, क्योंकि सिकंदर के इतिहास को अक्सर उसके युद्धों और विजयों के चश्मे से देखा जाता है। पोरस के साथ उसकी लड़ाई और तक्षशिला की जीत की कहानियाँ ज्यादा मशहूर हैं। लेकिन दंडमिस की कहानी इसलिए भी दब गई, क्योंकि यह सिकंदर की कमज़ोरी को उजागर करती है। वह एक ऐसा शासक था, जो दुनिया जीतना चाहता था, लेकिन एक साधु के सामने उसकी सारी शक्ति बेकार थी। यूनानी लेखकों ने इसे दर्ज किया, लेकिन इसे सिकंदर की महानता से जोड़ने की बजाय एक छोटी घटना के रूप में छोड़ दिया।

भारत में भी, जैन और वैदिक साहित्य में साधुओं की ऐसी कई कहानियाँ हैं, लेकिन सिकंदर का ज़िक्र कम है। भारतीय इतिहास में सिकंदर को एक विदेशी आक्रांता माना गया, जिसका प्रभाव सीमित था। उसका अभियान भारत के उत्तर-पश्चिमी हिस्से तक ही रहा, और उसने कोई स्थायी साम्राज्य नहीं बनाया। इसलिए, दंडमिस जैसी कहानियाँ स्थानीय परंपराओं में खो गईं।

सच्ची ताकत शारीरिक शक्ति या हथियारों में नहीं, बल्कि विचारों और आत्मनियंत्रण में है। सिकंदर ने आधा विश्व जीत लिया, लेकिन वह अपनी इच्छाओं को नहीं जीत सका। दूसरी ओर, दंडमिस ने कुछ भी न होने के बावजूद सब कुछ पा लिया था।

यह कहानी हमें यह भी सिखाती है कि अलग-अलग संस्कृतियाँ एक-दूसरे से कितना कुछ सीख सकती हैं। सिकंदर और दंडमिस का संवाद दो अलग दुनिया, पश्चिम और पूर्व का मिलन था। अगर सिकंदर ने दंडमिस की बातों को और गहराई से समझा होता, तो शायद उसका जीवन और साम्राज्य अलग होता।

आज के ज़माने में, जब हम भौतिक सुखों के पीछे भाग रहे हैं, दंडमिस की सादगी और आत्मसंयम हमें सोचने पर मजबूर करते हैं। क्या हमारी ज़िंदगी का मकसद सिर्फ जीतना और पाना है, या उससे कहीं ज्यादा कुछ है? यह कहानी हमें अपने भीतर झाँकने का मौका देती है।

सिकंदर और दंडमिस की मुलाकात इतिहास की एक ऐसी कहानी है, जो कम लोग जानते हैं, लेकिन इसकी गहराई और सच्चाई इसे खास बनाती है। यह न सिर्फ एक विजेता और साधु की मुलाकात थी, बल्कि दो अलग-अलग दर्शनशास्त्रों का संवाद था। सिकंदर की तलवार ने दुनिया को जीता, लेकिन दंडमिस के विचारों ने सिकंदर के मन को छुआ। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि सच्ची जीत वह है, जो मन और आत्मा को शांति दे। भारत के इस अनाम साधु ने दुनिया के सबसे बड़े योद्धा को कुछ ऐसा सिखाया, जो कोई तलवार नहीं सिखा सकती थी। यह कहानी भले ही इतिहास के पन्नों में धूमिल हो, लेकिन इसका संदेश आज भी उतना ही जीवंत है।

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Shweta Srivastava

Shweta Srivastava

Content Writer

मैं श्वेता श्रीवास्तव 15 साल का मीडिया इंडस्ट्री में अनुभव रखतीं हूँ। मैंने अपने करियर की शुरुआत एक रिपोर्टर के तौर पर की थी। पिछले 9 सालों से डिजिटल कंटेंट इंडस्ट्री में कार्यरत हूँ। इस दौरान मैंने मनोरंजन, टूरिज्म और लाइफस्टाइल डेस्क के लिए काम किया है। इसके पहले मैंने aajkikhabar.com और thenewbond.com के लिए भी काम किया है। साथ ही दूरदर्शन लखनऊ में बतौर एंकर भी काम किया है। मैंने लखनऊ यूनिवर्सिटी से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया एंड फिल्म प्रोडक्शन में मास्टर्स की डिग्री हासिल की है। न्यूज़ट्रैक में मैं लाइफस्टाइल और टूरिज्म सेक्शेन देख रहीं हूँ।

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