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मैं देवरिया बोल रहा हूँ: उपेक्षा के इस पार, उम्मीद के उस पार
देवरिया की विकास यात्रा की दास्तां — उपेक्षा, संघर्ष और नई उम्मीदों की कहानी
Deoria News (Image from Social Media)
मैं देवरिया हूँ। पूर्वी उत्तर प्रदेश की मिट्टी पर बसा वह भूखंड, जो गोरखपुर की छाया में पैदा हुआ, लेकिन अपनी पहचान के लिए सदैव संघर्ष करता रहा। देश की आज़ादी के साथ ही 1946 में गोरखपुर से अलग होकर मैंने भी स्वतंत्र अस्तित्व पाया। जैसे एक नवजात राष्ट्र अपने सपनों की राह तलाश रहा था, वैसे ही मैंने भी नए भविष्य की डगर नापनी शुरू की। लेकिन यह डगर कभी समतल नहीं रही। आज जब मैं अपनी सड़कों की धूल अपने ही बच्चों के कदमों में बिखरी देखता हूँ, तो सोचता हूँ — कहाँ चूके हम? कौन-सा मोड़ था जहां से विकास की राह मेरे गाँवों, कस्बों और शहरों तक नहीं मुड़ी?
पूर्वांचल की इस धरती की पहचान केवल उसकी गरीबी नहीं है, यह उन संतों, महापुरुषों और शिक्षाविदों की भूमि भी है जिन्होंने राष्ट्र को नैतिक चेतना दी। बाबा राघवदास जैसे जननेता ने इस क्षेत्र में सेवा, शिक्षा और चिकित्सा के मंदिर खड़े किए। देवरिया कभी व्यापार और व्यापारिक मार्गों का केंद्र था। चीनी उद्योग ने क्षेत्र की मिठास में आर्थिक आत्मनिर्भरता का रस घोला। पर यह मिठास धीरे-धीरे कड़वी होने लगी जब चीनी मिलें एक-एक कर बंद होती गईं, किसानों के खेतों में गन्ना उगना कम हुआ और बेरोज़गारी का गन्ना पिलाने वाली मशीनें थम गईं।
कभी यहाँ उद्योगों की गाड़ी चली थी — देवरिया, बैतालपुर, भट्टनी से लेकर सलेमपुर तक। पर जब नीति निर्धारण में प्राथमिकताएँ बदलीं, तो यह इलाका विकास की फाइलों में पन्ने भरता रहा, ज़मीन पर हकीकत कुछ और रही। जो क्षेत्र अपने श्रम और संकल्प से देश की ऊर्जा बढ़ा सकता था, उसे केवल श्रमिक के रूप में पहचाना गया, निर्माता के रूप में नहीं।
देवरिया ने नेताओं की कमी नहीं देखी — विधायकों, सांसदों, और मंत्रियों तक से यह ज़िला भरा रहा। लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी ने इस भूभाग के भविष्य को अपनी राजनीतिक दृष्टि में जगह दी?
हर चुनाव में वादों की बाढ़ आई। सड़कों को चार लेन का सपना दिखाया गया, चीनी मिलों को फिर से शुरू करने की चर्चा हुई, गंडक नदी के किनारे पर्यटन विकसित करने की घोषणा हुई। मगर पाँच साल बाद वही नाले उफनाते रहे, वही नौजवान महानगरों की ओर पलायन करते रहे, और वही माताएँ बसों के अड्डों पर अपने बेटों को विदा करती रहीं।
कभी-कभार मंत्री आते, उद्घाटन करते, पत्थर लगाते। लेकिन विकास का वो पत्थर जमीन में कभी गड़ नहीं पाया। देवरिया संवेदना में तो था, पर सत्ता की प्राथमिकता में नहीं। योजनाएँ बनीं — पर उन्होंने दस्तावेज़ों से बाहर कदम नहीं रखा।
आश्चर्य नहीं कि यहाँ के युवा पीढ़ी-दर-पीढ़ी मेहनतकश बनते गए, लेकिन उनके कौशल का दोहन केवल शहरों में हुआ। देवरिया के स्कूलों और कॉलेजों में जज्बा है, प्रतिभा है, पर मार्गदर्शन का दीपक कम है। आज भी यह जिला उच्च शिक्षा के उचित ढांचे के बिना जूझ रहा है। तकनीकी कॉलेजों, व्यावसायिक शिक्षा केंद्रों की संख्या गिनी-चुनी है। परिणाम यह हुआ कि देवरिया की मेधा लखनऊ, वाराणसी, दिल्ली या मुंबई की सीमाओं में जाकर खप गई — घर लौटने की उम्मीद साथ लिए।
कृषि पर निर्भर यह क्षेत्र, मानसून और बाजार की दोहरी मार झेलता है। सरकारी योजनाओं की घोषणाएँ गूंजती हैं, पर जब पानी खेतों तक नहीं पहुँचता और सड़कें बरसात में तालाब बन जाती हैं, तब योजनाएँ किसानों के लिए केवल भाषण का विषय रह जाती हैं।
देवरिया की कहानी सिर्फ उपेक्षा की नहीं है — यह एक ऐसी चेतावनी है कि भारत के भीतर भारत अब भी रह गया है। एक तरफ़ लखनऊ से दिल्ली तक विकसित भारत की गूंज है, दूसरी तरफ़ मैं हूँ — वह देवरिया जो अब भी शाश्वत प्रतीक्षा में है।
यहाँ बिजली की स्थायी आपूर्ति अभी भी सपना है, स्वास्थ्य सेवाओं का ढाँचा कमजोर है, और महिलाओं की सुरक्षा व रोजगार के क्षेत्र बहुत पीछे हैं। यह वह जगह है जहाँ लोग अब प्रश्न पूछ रहे हैं — आखिर हमारी हिस्सेदारी देश के विकास में कब तय होगी?
उम्मीद का नया सूरज
लेकिन मैं निराश नहीं हूँ। मेरी मिट्टी में वो धैर्य है जो गंडक की लहरों में बहकर भी दिशा नहीं खोता। मेरे गाँवों में फिर से नई चेतना जाग रही है। शिक्षा के नए प्रयास हो रहे हैं, किसान आधुनिक खेती की राह पर हैं, और प्रवासी श्रमिक अब लौटकर अपने गाँवों में स्वरोज़गार शुरू कर रहे हैं। इंटरनेट और डिजिटलीकरण के बूते पढ़े-लिखे युवाओं ने यह महसूस करना शुरू किया है कि विकास के लिए केवल राजनीतिक नेतृत्व नहीं, सामाजिक नेतृत्व भी ज़रूरी है।
अब मैं किसी नेता से कम और अपने बेटों-बेटियों से ज़्यादा उम्मीद रखता हूँ। वे जो अपने हाथों में मोबाइल लेकर ज्ञान खोज रहे हैं, स्टार्टअप्स शुरू कर रहे हैं, स्वच्छता, स्वास्थ्य, शिक्षा और जागरूकता के क्षेत्र में छोटे-छोटे बदलाव ला रहे हैं।
मैं देवरिया बोल रहा हूँ — उस आवाज़ में जो अब रोष से भी भरपूर है और उम्मीद से भी। मेरे खेतों में अभी सूरज उगता है, बच्चों की हँसी अब भी शुद्ध है, और मेरे बुजुर्ग अब भी विश्वास करते हैं कि अच्छा वक्त ज़रूर आएगा।
पर मैं यह भी कहता हूँ — मुझे अब नेता नहीं, रहनुमा चाहिए। मुझे वादा नहीं, मार्गदर्शन चाहिए। मैं विकास की रफ्तार से नहीं, नीति की नीयत से वंचित हूँ। और जब तक यह नीयत बदलेगी नहीं, मैं अपनी कहानी यूँ ही कहता रहूँगा।
मैं देवरिया हूँ… और मैं आज भी बोल रहा हूँ — सुनो, मेरी संभावना को पहचानो, समझो, और मुझे देश की मुख्यधारा में शामिल करो।
क्योंकि मेरे बिन, भारत अधूरा है।
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