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Baroda Riyasat Ka Itihas: बड़ौदा रियासत का भारत मे विलय क्यों हुआ, क्या था इतिहास, क्या थी पूरी कहानी , चलिए समझते हैं

Baroda Riyasat Ka Itihas: 19वीं सदी तक बड़ौदा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ सहयोगी बन गया, लेकिन अपनी आंतरिक स्वायत्तता को बनाए रखा।

Akshita Pidiha
Published on: 10 July 2025 12:11 PM IST
Baroda Princely State of India
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Baroda Princely State of India (Image Credit-Social Media)

Baroda Princely State: बड़ौदा रियासत की स्थापना 1721 में पीलाजी गायकवाड़ ने की थी, जब उन्होंने मराठा साम्राज्य के लिए इस क्षेत्र को जीता। गायकवाड़ वंश ने इस रियासत को समृद्धि की ऊंचाइयों तक पहुंचाया। 19वीं सदी तक बड़ौदा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ सहयोगी बन गया, लेकिन अपनी आंतरिक स्वायत्तता को बनाए रखा। यह रियासत अपनी कला, संस्कृति, शिक्षा और प्रशासनिक सुधारों के लिए जानी जाती थी।

महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय, जो 1875 से 1939 तक शासक रहे, ने बड़ौदा को आधुनिकता की राह पर ले गए। उन्होंने शिक्षा, रेलवे, कला और सामाजिक सुधारों को बढ़ावा दिया। उनके शासन में बड़ौदा में पहली बार मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा शुरू हुई। लक्ष्मी विलास पैलेस जैसे भव्य स्मारक आज भी उनकी विरासत की गवाही देते हैं।


बड़ौदा रियासत की समृद्धि का एक और पहलू था इसका आर्थिक ढांचा। रियासत के पास उपजाऊ जमीन, व्यापार और उद्योग थे। यहाँ की कपास और अनाज की खेती ने इसे आर्थिक रूप से मजबूत बनाया। बड़ौदा बैंक, जिसे 1908 में सयाजीराव ने स्थापित किया, आज भी बैंक ऑफ बड़ौदा के रूप में देश की अर्थव्यवस्था का हिस्सा है। लेकिन इतनी समृद्धि के बावजूद, जब भारत आजादी की ओर बढ़ रहा था, तब बड़ौदा रियासत को भी विलय के सवाल का सामना करना पड़ा।

भारत में विलय की प्रक्रिया

1947 में जब भारत को आजादी मिली, तब देश में 565 रियासतें थीं। इन रियासतों को यह चुनना था कि वे स्वतंत्र रहें, भारत में शामिल हों या पाकिस्तान का हिस्सा बनें। बड़ौदा रियासत का विलय भारत में अपेक्षाकृत आसान रहा, लेकिन इसकी राह में कई सियासी और सामाजिक चुनौतियां थीं। बड़ौदा के तत्कालीन महाराजा प्रतापसिंह राव गायकवाड़ थे, जो सयाजीराव तृतीय के पौत्र थे। भारत सरकार के गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल और उनके सचिव वी.पी. मेनन ने रियासतों के विलय की प्रक्रिया को तेजी से अंजाम दिया। बड़ौदा का विलय 1949 में औपचारिक रूप से पूरा हुआ।

विलय की प्रक्रिया में बड़ौदा को बॉम्बे प्रेसीडेंसी (बाद में बॉम्बे स्टेट) में शामिल किया गया। 1 मई 1949 को बड़ौदा रियासत भारत संघ का हिस्सा बन गई। इसके बाद 1956 के स्टेट्स रीऑर्गनाइजेशन एक्ट के तहत इसे गुजरात और महाराष्ट्र में बांटा गया। बड़ौदा का अधिकांश हिस्सा गुजरात में गया, और आज यह वडोदरा जिला है। विलय के समय रियासत के पास 8,135 वर्ग मील का क्षेत्र और करीब 20 लाख की आबादी थी। यह भारत की सबसे समृद्ध और प्रगतिशील रियासतों में से एक थी।

विलय के कारण


बड़ौदा रियासत का भारत में विलय कई कारणों से हुआ। पहला और सबसे बड़ा कारण था भारत सरकार की नीति। सरदार पटेल ने स्पष्ट कर दिया था कि कोई भी रियासत स्वतंत्र नहीं रह सकती। भारत एक एकीकृत राष्ट्र बनना चाहता था, और रियासतों का विलय इस दिशा में जरूरी कदम था। बड़ौदा जैसी बड़ी और समृद्ध रियासत को भारत के लिए महत्वपूर्ण माना गया क्योंकि इसका रणनीतिक और आर्थिक महत्व था।

दूसरा कारण था ब्रिटिश हटने के बाद की सियासी अनिश्चितता। ब्रिटिश शासन के दौरान रियासतें उनके संरक्षण में थीं। 1947 में जब ब्रिटिश चले गए, तो रियासतों को अपनी सुरक्षा और शासन की चिंता हुई। बड़ौदा के पास भले ही एक मजबूत प्रशासन था, लेकिन स्वतंत्र रहना आसान नहीं था। भारत सरकार ने रियासतों को प्रिवी पर्स (निजी भत्ता) और कुछ विशेषाधिकार देने का वादा किया, जिसने विलय को और आसान बनाया।

तीसरा कारण था जनता की भावना। बड़ौदा की जनता, खासकर शिक्षित वर्ग और मध्यमवर्ग, भारत के साथ एकीकरण चाहता था। सयाजीराव तृतीय के समय से ही बड़ौदा में शिक्षा और सामाजिक सुधारों का माहौल था। यहाँ के लोग राष्ट्रीय आंदोलन से प्रभावित थे और महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं के साथ जुड़ाव महसूस करते थे। इस वजह से विलय के खिलाफ कोई बड़ा जन आंदोलन नहीं हुआ।

चौथा कारण था बड़ौदा के शासक का व्यावहारिक दृष्टिकोण। प्रतापसिंह राव गायकवाड़ ने समझ लिया कि भारत के साथ विलय ही भविष्य के लिए बेहतर है। उन्होंने 1948 में ही विलय के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर दिए। इस तरह बड़ौदा रियासत ने बिना ज्यादा विरोध के भारत में विलय स्वीकार किया।

स्कैंडल और विवाद

बड़ौदा रियासत का इतिहास भले ही शानदार रहा हो, लेकिन इसमें कुछ स्कैंडल और विवाद भी जुड़े हैं। इनमें से कुछ का संबंध विलय के समय की सियासत और कुछ का शाही परिवार की निजी जिंदगी से है।

पहला बड़ा स्कैंडल था 1920 के दशक में महाराजा सयाजीराव तृतीय और ब्रिटिश सरकार के बीच तनाव। सयाजीराव एक प्रगतिशील शासक थे और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति सहानुभूति रखते थे। 1911 में दिल्ली दरबार में उन्होंने ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम को जानबूझकर गलत तरीके से अभिवादन किया, जिसे ब्रिटिश सरकार ने अपमान माना। इसके बाद ब्रिटिशों ने सयाजीराव पर नजर रखना शुरू कर दिया और उन पर राष्ट्रीय आंदोलन को समर्थन देने का आरोप लगाया। यह स्कैंडल उस समय सुर्खियों में रहा और बड़ौदा की सियासत में हलचल मचा दी।

दूसरा स्कैंडल था सयाजीराव की निजी जिंदगी से जुड़ा। उनकी दूसरी पत्नी महारानी चिमनाबाई द्वितीय के साथ उनके रिश्ते और शाही परिवार की आंतरिक कलह ने कई बार चर्चाएं बटोरीं। सयाजीराव की प्रगतिशील सोच और पश्चिमी जीवनशैली को अपनाने की चाह ने कुछ रूढ़िवादी दरबारियों को नाराज किया। इसके अलावा, उनके बेटे जयसिंहराव के जीवनशैली और खर्चों ने भी विवाद खड़े किए।

विलय के समय भी कुछ छोटे-मोटे स्कैंडल हुए। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि प्रतापसिंह राव गायकवाड़ शुरू में विलय के लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे। उनके और भारत सरकार के बीच कुछ गुप्त बातचीत हुई, जिसमें प्रिवी पर्स और शाही संपत्ति को लेकर सौदेबाजी की बात सामने आई। हालांकि, ये बातें सार्वजनिक रूप से ज्यादा चर्चा में नहीं रहीं, लेकिन स्थानीय स्तर पर इनकी खूब चर्चा थी।

एक और विवाद था बड़ौदा की संपत्ति का बंटवारा। विलय के बाद शाही परिवार की कई संपत्तियां, जैसे लक्ष्मी विलास पैलेस, भारत सरकार के अधीन आईं। शाही परिवार ने कुछ संपत्तियों को अपने पास रखने की मांग की, जिसके कारण कुछ समय तक तनाव रहा। यह विवाद ज्यादा बड़ा नहीं हुआ, लेकिन स्थानीय लोगों के बीच इसे लेकर कई कहानियां प्रचलित रहीं।

साजिशों की बात

बड़ौदा रियासत के विलय में साजिशों की बात भी सामने आती है, हालांकि इनमें से ज्यादातर सिद्ध नहीं हुईं। एक साजिश की अफवाह थी कि कुछ स्थानीय जमींदार और दरबारी विलय के खिलाफ थे और उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों के साथ मिलकर रियासत को स्वतंत्र रखने की कोशिश की। लेकिन ब्रिटिश 1947 तक भारत छोड़ चुके थे, और उनकी कोई रुचि रियासतों को स्वतंत्र रखने में नहीं थी। इस वजह से यह साजिश ज्यादा प्रभावी नहीं हो सकी।

दूसरी साजिश की बात थी कि कुछ रियासतें, जिनमें बड़ौदा भी शामिल था, पाकिस्तान के साथ गठजोड़ की सोच रही थीं। यह सिर्फ अफवाह थी, क्योंकि बड़ौदा की भौगोलिक स्थिति और जनता की भावना इसे असंभव बनाती थी। सरदार पटेल ने ऐसी किसी भी संभावना को शुरू में ही खत्म कर दिया।

तीसरी साजिश थी शाही परिवार के आंतरिक मतभेद। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि प्रतापसिंह राव के कुछ रिश्तेदार विलय के खिलाफ थे और उन्होंने भारत सरकार के खिलाफ गुप्त रूप से कुछ दरबारियों को भड़काने की कोशिश की। लेकिन ये कोशिशें नाकाम रहीं क्योंकि जनता का समर्थन भारत के साथ था।

रोचक तथ्य


बड़ौदा रियासत का विलय भारत में अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण रहा, लेकिन इसके कुछ रोचक पहलू हैं। सयाजीराव तृतीय ने 1930 में ही बड़ौदा में एक तरह की संवैधानिक व्यवस्था शुरू की थी, जिसमें जनता के प्रतिनिधियों को शासन में हिस्सेदारी दी गई। यह उस समय की रियासतों में एक अनोखा प्रयोग था।

विलय के बाद भी गायकवाड़ परिवार का प्रभाव बना रहा। प्रतापसिंह राव और उनके वंशजों ने वडोदरा में सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यों में हिस्सा लिया। लक्ष्मी विलास पैलेस आज भी गायकवाड़ परिवार के स्वामित्व में है और एक प्रमुख पर्यटक स्थल है।

बड़ौदा रियासत ने कला और संस्कृति को बढ़ावा देने में बड़ा योगदान दिया।

सयाजीराव ने मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा को संरक्षण दिया, जिनके चित्र आज भी बड़ौदा संग्रहालय में देखे जा सकते हैं।

बड़ौदा रियासत का भारत में विलय एक ऐतिहासिक प्रक्रिया थी, जिसमें सियासत, समझौते और कुछ विवाद शामिल थे। इस रियासत की समृद्धि, प्रगतिशील शासन और सांस्कृतिक विरासत ने इसे भारत की महत्वपूर्ण रियासतों में से एक बनाया। विलय के पीछे भारत सरकार की एकीकरण नीति, जनता की भावना और शाही परिवार का व्यावहारिक रवैया मुख्य कारण थे। कुछ स्कैंडल और साजिशों की अफवाहों ने इस प्रक्रिया को रोचक बनाया, लेकिन बड़ौदा का विलय अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण रहा। आज वडोदरा के रूप में यह शहर अपनी ऐतिहासिक विरासत और आधुनिकता का संगम बनकर भारत का गौरव बढ़ा रहा है।

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