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US Citizenship Denied: 64 साल की उम्र में भी नहीं मिला अमेरिकी नागरिकता का हक, शुरू हुई देश निकाले क
US Citizenship denial: 9 महीने की उम्र में अमेरिका पहुंचे सुब्रमण्यम वेदम अब 64 की उम्र में भी नागरिकता से वंचित हैं, 43 साल जेल में बिताने के बाद अब निर्वासन का सामना कर रहे हैं।
Subramanyam Vedam
ज़रा सोचिए कि एक बच्चा जिसे उसके माता-पिता भारत से सिर्फ 9 महीने की उम्र में अमेरिका लेकर गए। वहीं पला-बढ़ा, पढ़ाई की, नौकरी की और खुद को अमेरिकी नागरिक की तरह समझा। लेकिन उम्र के 64वें पड़ाव पर उसे बताया जाता है कि वह इस देश का नागरिक ही नहीं है और अब उसे उसके वतन भारत वापस भेजा जा सकता है। यह दर्दभरी कहानी है भारतीय मूल के सुब्रमण्यम वेदम उर्फ सुबू की। उस शख्स की जिसने 43 साल जेल में बिताए, निर्दोष साबित होने के बाद आज़ाद हुआ, लेकिन अब भी सुकून से जीने की अनुमति नहीं मिली। अमेरिका में दो अदालतों ने उनकी ईमानदारी और बेगुनाही पर भरोसा करते हुए फिलहाल उनके 'देश निकाले' पर रोक लगाई है। यह मामला अमेरिकी न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता और मानवीय संवेदना दोनों पर सवाल खड़ा करता है। आइए जानते हैं इस पूरे प्रकरण के बारे में विस्तार से -
9 महीने की उम्र से अमेरिका निवासी, लेकिन नागरिकता से दूर
सुब्रमण्यम वेदम को उनके माता-पिता भारत से तब अमेरिका लाए थे जब वे महज नौ महीने के थे। उनके पिता पेंसिल्वेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर थे। परिवार अमेरिका में बस गया, और एक सामान्य अमेरिकी किशोर की तरह सुबू वहीं बड़े हुए । उन्होंने सरकारी स्कूल में पढ़ाई की, स्थानीय समुदायों में हिस्सा लिया और कॉलेज से ग्रेजुएशन की डिग्री ली। लेकिन उनकी ज़िंदगी में उनके माता-पिता की एक छोटी सी गलती हमेशा के लिए एक नासूर बन कर रह गई। असल में उनके माता-पिता ने कभी अमेरिकी नागरिकता के लिए औपचारिक आवेदन नहीं किया। यही गलती आज सुबू के लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन चुकी है।
जब महज 19 की उम्र में लगा हत्या का आरोप
वर्ष 1980 में पेंसिल्वेनिया के एक छोटे से शहर में उनका 19 वर्षीय दोस्त थॉमस किन्सर अचानक लापता हो गया। नौ महीने बाद जंगल में उसका शव मिला। पुलिस को आखिरी बार थॉमस वेदम के साथ दिखा था। बस, यही एक कड़ी थी जिसने पूरी ज़िंदगी बदल दी। 1982 में पुलिस ने वेदम को गिरफ्तार कर लिया और 1983 में अदालत ने उन्हें हत्या का दोषी ठहराकर आजीवन कारावास की सजा दे दी। जिस गुनाह की सजा सुबू को मिली थी उसका न कोई प्रत्यक्ष गवाह था, न ठोस सबूत। सिर्फ परिस्थितिजन्य बयान और शक के आधार पर सजा सुनाई गई थी।
जेल की कोठरी से फैलाया शिक्षा का उजियारा
जेल की कालकोठरी के भीतर रहकर भी वेदम ने हार नहीं मानी। जेल की अंधेरी कोठरी में उन्होंने पढ़ाई शुरू की। अंग्रेज़ी, समाजशास्त्र और व्यवहार विज्ञान विषय में एक के बाद एक तीन डिग्रियां हासिल कीं। यही नहीं वहां रहते हुए वे अन्य कैदियों को भी शिक्षा देने लगे, उन्हें बेहतर जीवन के लिए प्रेरित करने लगे। जेल प्रशासन भी उनकी मेहनत को सराहे बिना नहीं रह सका। अब कैदियों के बीच वे ‘टीचर सबू’ के नाम से जाने जाने लगे। लेकिन उनकी जीवन की चुनौतियां ने अभी उनका दामन नहीं छोड़ा था। असल में 2009 में पिता और 2016 में मां का निधन हो गया। दोनों के अंतिम संस्कार में वे शामिल नहीं हो सके।
43 साल बाद साबित हुई उनकी बेगुनाही
वर्षों तक वकीलों और सामाजिक संगठनों ने उनके मामले को उठाया। आखिरकार, 2025 में नए सबूत सामने आए। बैलिस्टिक जांच रिपोर्ट से साबित हुआ कि 1980 के दशक में अभियोजन पक्ष ने कई अहम साक्ष्य छिपा लिए थे। पेंसिल्वेनिया की अदालत ने माना कि यह न्यायिक गलती थी और वेदम को पूरी तरह निर्दोष घोषित करते हुए रिहा कर दिया। 43 साल बाद
3 अक्टूबर 2025 को उन्होंने जेल के बाहर कदम रखा।मीडिया, परिवार और वकीलों की भीड़ में वे स्तब्ध खड़े वेदम ने बस इतना कहा कि 'अब शायद जिंदगी शुरू होगी', लेकिन जिंदगी ने अभी उनको इस बात की मोहलत नहीं दी थी।
रिहाई के कुछ घंटे बाद ही फिर हुई गिरफ्तारी
वेदम को 43 वर्षों बाद मिली यह आज़ादी ज़्यादा देर नहीं टिक पाई। जेल से निकलने के कुछ ही घंटे बाद अमेरिकी आव्रजन और सीमा शुल्क प्रवर्तन (ICE) अधिकारियों ने उन्हें हिरासत में ले लिया। जिसकी वजह बना 1980 के दशक का एक पुराना मादक पदार्थ से जुड़ा मामला। उस समय, 20 साल के वेदम ने 'नो-कॉन्टेस्ट' (मतलब अपराध स्वीकार नहीं, पर विरोध भी नहीं) की याचिका दी थी। अदालत ने उस पर मामूली सजा दी थी, जिसे उन्होंने पहले ही पूरी कर ली थी।अब ICE का कहना था कि इस दोषसिद्धि के आधार पर उन्हें अमेरिका में रहने का अधिकार नहीं है और उन्हें भारत वापस भेजा जाना चाहिए।
अदालतों से मिली राहत, लेकिन अभी भी अनिश्चितता बरकरार
इस मामले के विरोध में वेदम के वकीलों ने तुरंत याचिका दायर की। उनका तर्क था कि 'एक व्यक्ति जिसने बचपन से अमेरिका में जीवन बिताया, जो यहां की जेलों में आधी सदी सड़ चुका, जिसने अपराध नहीं किया, उसे अब किस आधार पर देश से निकाला जा सकता है?'
इस पर अदालतों ने भी गंभीरता दिखाई।
एक आव्रजन जज ने आदेश दिया कि वेदम को तब तक देश से नहीं भेजा जा सकता जब तक Board of Immigration Appeals (BIA) इस मामले की समीक्षा न कर ले।
इसके बाद एक संघीय जिला अदालत ने भी ICE को कोई कार्रवाई न करने का आदेश दिया। फिलहाल वेदम लुइसियाना के अलेक्जेंड्रिया में स्थित एक अस्थायी हिरासत केंद्र में हैं। यह वही जगह है, जहां से आमतौर पर विदेश भेजे जाने की उड़ानें भरी जाती हैं।
अब बहन ने लगाई गुहार
वेदम की बहन ने मीडिया से कहा 'उसने 43 साल जेल में बिताए उस अपराध के लिए जो उसने किया ही नहीं। अब वह बूढ़ा हो चुका है, उसे एक घर चाहिए, न कि निर्वासन की सजा।'
सोशल मीडिया पर भी लोग उनकी रिहाई और देश से निकाले जाने की खबर पर भावुक प्रतिक्रिया दे रहे हैं। कई मानवाधिकार संगठन इसे 'डबल पनिशमेंट' यानी 'दोहरी सजा' बता रहे हैं।
वेदम के साथ अब आगे क्या होगा, घर मिलेगा या देश निकाला?
यह मामला अब BIA (Board of Immigration Appeals) के पास है। अगर वेदम के पक्ष में फैसला आता है तो उन्हें अमेरिका में रहने और स्थायी निवास (ग्रीन कार्ड) के लिए आवेदन करने की अनुमति मिल सकती है।
लेकिन अगर फैसला उल्टा हुआ, तो 64 साल की उम्र में उन्हें उस देश लौटना होगा, जिसे वह सिर्फ 9 महीने की उम्र में छोड़ आए थे। अब उनके लिए भारत एक ऐसा देश जो अब उनके लिए अजनबी है। सुब्रमण्यम वेदम की घटना यह सोचने पर मजबूर करती है कि इंसानियत और न्यायव्यवस्था को जिंदा रखने के लिए बनाए गए कानून की पेंचदार प्रक्रियाएं कभी-कभी एक बेगुनाह इंसान की भी पूरी जिंदगी को तहस नहस करके रख देती हैं।
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