TRENDING TAGS :
चार महीने, चार दौरे, 85 हजार करोड़! चुनाव से पहले विकास का महास्फोट, बिहार में नीतीश-मोदी का ‘डबल ड्रामा’?
Bihar Politics: कुछ साल पहले तक जिसे गंदगी, जाम और बदहाल बुनियादी ढांचे के लिए जाना जाता था, वही पटना आज देश के पहले डबल डेकर फ्लाईओवर का गवाह बन चुका है। करगिल चौक से साइंस कॉलेज तक 422 करोड़ रुपये में बना ये फ्लाईओवर एक नया सपना दिखा रहा है—"न्यू पटना" का।
Bihar Politics: पटना की सड़कों पर चमकती फ्लाईओवर की लाइटें, गंगा के ऊपर उड़ते डबल लेन पुल, एयरपोर्ट के नए टर्मिनल की चकाचौंध और योजनाओं की झड़ी—बिहार में इन दिनों कुछ ऐसा महसूस हो रहा है मानो विकास ने रफ्तार नहीं, रॉकेट पकड़ लिया हो। लेकिन क्या ये सच में जनता की जिंदगी बदलने वाला विकास है, या फिर यह सब महज़ एक चुनावी तमाशा है? क्या ये "डबल इंजन" की सरकार बिहार को भविष्य की ओर ले जा रही है या फिर वोट बैंक की सियासी रणनीति का हिस्सा है?
पटना बन रहा है दिल्ली?
कुछ साल पहले तक जिसे गंदगी, जाम और बदहाल बुनियादी ढांचे के लिए जाना जाता था, वही पटना आज देश के पहले डबल डेकर फ्लाईओवर का गवाह बन चुका है। करगिल चौक से साइंस कॉलेज तक 422 करोड़ रुपये में बना ये फ्लाईओवर एक नया सपना दिखा रहा है—"न्यू पटना" का। लेकिन ये सपना सिर्फ फ्लाईओवर तक सीमित नहीं है। मीठापुर-महुली ऐलिवेटेड रोड हो या जेपी गंगा पथ का अंतिम चरण, पीएमसीएच का 1117 बेड का नया भवन हो या जेपी इंटरनेशनल एयरपोर्ट का चमचमाता नया टर्मिनल—बिहार की राजधानी को अचानक करोड़ों की योजनाओं की सौगात मिलने लगी है। और इन सबके उद्घाटन, लोकार्पण या शिलान्यास के मौके पर अगर कोई चेहरा सबसे ज्यादा नजर आया है, तो वो हैं—प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार।
पैसे की बरसात या वोटों की बारिश?
फरवरी से जून के बीच सिर्फ चार महीनों में 85 हजार करोड़ रुपये की योजनाएं बिहार को दी गई हैं। 48 हजार करोड़ की घोषणा बिक्रमगंज से, 5,900 करोड़ की सीवान से और सैकड़ों योजनाएं अलग-अलग जिलों से। ऐसा लग रहा है जैसे चुनाव की दस्तक के साथ ही विकास की गंगा भी बिहार में बहने लगी हो। चौंकाने वाली बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी सिर्फ चार महीनों में चार बार बिहार दौरे पर आए और हर बार करोड़ों की सौगात लेकर आए। वहीं नीतीश कुमार ने 26 अलग-अलग कार्यक्रमों में योजनाओं का शिलान्यास या उद्घाटन कर ये जताने की कोशिश की है कि "बिहार अब बदलेगा, और उसी सरकार से बदलेगा, जिसने पहले मौका गवांया और अब सुधारने की कवायद कर रही है।"
चुनावी गंगा में बहता विकास?
आम जनता इस पूरे घटनाक्रम को कैसे देखती है? एक तरफ जहां कई लोग इस बदलाव को लेकर उत्साहित हैं, वहीं कुछ लोगों की आंखों में शक की परछाई भी है। सवाल उठता है—अगर बिहार के लिए इतना कुछ किया जा सकता है, तो फिर ये सब पहले क्यों नहीं हुआ? ये योजनाएं पहले क्यों नहीं पूरी हुईं? और क्या चुनावों के समय ही नेताओं को लोगों की याद आती है? विशेषज्ञ भी मानते हैं कि बिहार में योजनाओं का यह अचानक तेज़ प्रवाह चुनावी चतुराई का हिस्सा है। राजनीतिक विश्लेषक इसे "विकास की पैकेजिंग" कहते हैं—जैसे किसी प्रोडक्ट को आकर्षक पैक कर दिया जाए ताकि ग्राहक यानी वोटर उसे खरीदने पर मजबूर हो जाए।
नीतीश की वापसी या बीजेपी की बिछी बिसात?
इस बार का चुनाव सिर्फ सीटों का नहीं बल्कि साख का सवाल बन चुका है। बीजेपी के लिए यह मौका है अपने 'डबल इंजन' मॉडल को वैध ठहराने का, वहीं नीतीश कुमार के लिए यह लड़ाई अपने खोते हुए जनाधार को दोबारा पाने की है। लेकिन इस बीच असली सवाल है—क्या जनता इन चमचमाती योजनाओं से बहल जाएगी, या वो बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के असल मुद्दों पर सवाल उठाएगी?
जनता पूछ रही है—विकास का असली चेहरा कब दिखेगा?
ड्रेनेज, जल आपूर्ति, शहरी विकास, एसटीपी प्लांट, मेडिकल कॉलेज—इन सभी योजनाओं की लागत हजारों करोड़ों में है। लेकिन क्या इन योजनाओं का धरातल पर असर दिखा? क्या आम आदमी की जिंदगी बदली? या फिर ये योजनाएं सिर्फ पत्थर पर नाम लिखवाने का माध्यम बन गई हैं? वोटों का सीजन शुरू हो चुका है, घोषणाओं का तांडव जारी है, और बिहार एक बार फिर बन चुका है 'पॉलिटिकल लैंडस्केप' का सबसे बड़ा रंगमंच। जहां हर नेता विकास का नायक बनने की होड़ में है, वहीं जनता असली विलेन को पहचानने की कोशिश में है—जो वादों में सपने बेचते हैं, पर हकीकत में नींद तक छीन लेते हैं।
Start Quiz
This Quiz helps us to increase our knowledge