कभी विचारों का केंद्र, अब जातीय समीकरणों का मैदान, बिहार कैसे बना जातिवादी पॉलिटिक्स का अखाड़ा?

सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक चेतना का केंद्र रहा बिहार आज जातिवादी राजनीति की जकड़ में क्यों है? कभी विश्व के पहले गणराज्य वैशाली और नालंदा-विक्रमशिला जैसे ज्ञान केंद्रों से समृद्ध यह भूमि अब सामाजिक विभाजन का प्रतीक बन चुकी है। जानिए कैसे बिहार की राजनीति, जो कभी राष्ट्रीय आंदोलनों की धुरी थी, आज जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमने लगी।

Shivam Srivastava
Published on: 30 Oct 2025 8:34 PM IST
कभी विचारों का केंद्र, अब जातीय समीकरणों का मैदान,  बिहार कैसे बना जातिवादी पॉलिटिक्स का अखाड़ा?
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राजा जनक, जरासंध, कर्ण, सीता, कौटिल्य, चन्द्रगुप्त, मनु, याज्ञबल्कय, मण्डन मिश्र, भारती, मैत्रेयी, कात्यानी, अशोक, बिन्दुसार, बिम्बिसार, से लेकर बाबू कुंवर सिंह, बिरसा मुण्डा, बाबू राजेन्द्र प्रसाद, रामधारी सिंह दिनकर, फणीश्वर नाथ रेणु, नार्गाजुन और न जाने कितने महान तेजस्वियों को जनने वाली मध्य पूर्व भारत का राज्य बिहार जो सांस्कृतिक समृद्धि का केंद्र रहा और आज वही बिहार सामाजिक और राजनीतिक दोनों खंडों में जातिवाद के दंश को झेल रहा है।

आजादी से लेकर कई सालों तक बिहार का देश के राजनीतिक जीवन में, सामाजिक जीवन में और देश के इतिहास में बहुत बड़ा योगदान रहा। यह वही बिहार था जिसने संविधान सभा का अध्यक्ष दिया था, जिसने सामाजिक न्याय के पुरोधा बाबू जी (जगजीवन राम) दिए थे, जिस और जिसने आजादी के पहले और आजादी के बाद लोकतंत्र पर जो हमला हुआ, उसके खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व किया था। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि ऐसे राजनीतिक चेतना से ओतप्रोत और सामाजिक बदलाव के लिए देश का प्रतिनिधित्व करने वाले राज्य को आखिर 'बीमारू राज्य' क्यों कहा गया?

वैसे तो बिहार को सही से देखना हो तो इसको इस तरह से पॉकेटों में बांटकर देख सकते हैं ताकि आपको इसकी सांस्कृतिक समृद्धि का अंदाजा स्वतः लग जाएगा। मगध, मिथिला, वैशाली, अंग, भोजपुर और अब एक और नया पॉकेट सीमांचल। पूरे बिहार को इसी के अंदर सजते-संवरते, रचते-बसते और समृद्ध होते तब से अब तक देखा जा सकता है। वैसे वैदिक साहित्य को ध्यान से समझें तो प्राचीन काल में बिहार तीन भागों में विभाजित था, जिसमें मगध, अंग और विदेह (या मिथिला) शामिल था।

जर्दालू आम, शाही लीची, चिनयां केला, मखाना, भागलपुर का सिल्क, तसर, टिकुली कला, टेराकोटा शिल्प, मधुबनी पेंटिंग, पेपरमैशी शिल्प, सिक्की शिल्प, पाषाण शिल्प, सुजनी कला, काष्ठ कला, गुड़िया कला, वेणु शिल्प, बावन बूटी, भोजपुरी कला और कोहबर शिल्प बिहार की धरती की उपज हैं, जो आज पूरी दुनिया में छाए हुए हैं।

इसके साथ शिक्षा के प्राचीन से लेकर आधुनिक केंद्र जैसे नालंदा विश्वविद्यालय (प्राचीन), विक्रमशिला विश्वविद्यालय, नया नालंदा विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय जैसे ज्ञान के मंदिर, जिसने बिहार की धरती को विश्व भर में शिक्षा का केंद्र बना दिया।

यह वही धरती है जहां से मगध साम्राज्य का उदय हुआ और यह काबुल, कंधार तक फैला। इस धरती ने सनातन, मुस्लिम, सिख, जैन और बुद्ध हर धर्म के देवताओं, गुरुओं और पैगंबरों को अपनी धरती पर बराबर का सम्मान दिया। यह बिहार की धरती 1000 वर्षों तक शिक्षा, संस्कृति, शक्ति और सत्ता का केंद्र रही।

इसी धरती को समृद्ध करता है वैशाली, जिसे दुनिया का पहला गणराज्य होने का गौरव प्राप्त है और जो बौद्ध और जैन धर्म दोनों के लिए एक महत्वपूर्ण स्थल है। सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया अशोक स्तंभ और विश्व शांति स्तूप यहां के प्रमुख स्थल हैं। वैशाली को जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्मस्थान भी माना जाता है, जबकि पटना साहिब में सिखों के 10वें और अंतिम गुरु गुरु गोविंद सिंह का जन्म हुआ।

यानी बिहार एक ऐसा राज्य है जो अपनी प्राचीन विरासत को आधुनिक जीवंतता के साथ सहजता से जोड़ता है। बोधगया की आध्यात्मिक पवित्रता और नालंदा की शैक्षणिक भव्यता से लेकर पटना की चहल-पहल भरी गलियों और राजगीर के ऐतिहासिक आकर्षण तक, बिहार विविध प्रकार के अनुभव प्रदान करता है।

1912 से पहले, बिहार को ग्रेटर बंगाल के एक हिस्से के रूप में जाना जाता था। लेकिन, 22 मार्च 1912 को दो राज्य बिहार और उड़ीसा के गठन की अंतिम औपचारिक घोषणा की गई। तब अंग्रेज भी नहीं समझ पाए थे कि इस बिहार की धरती से उनके खिलाफ ही क्रांति का बिगुल बज उठेगा। 1917-18 में महात्मा गांधी के चंपारण ‘सत्याग्रह’ के समय के आसपास, राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम की गतिशीलता बदल गई और यही आग चलकर असहयोग आंदोलन, गांधी का दांडी मार्च, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में परिणत हुई।

क्षेत्रफल की दृष्टि से देश का 13वां सबसे बड़ा राज्य कभी देश की राजनीति के केंद्र में पहले नंबर पर रहता था। एक समय तो देश की आजादी के बाद यहां से भरी गई जयप्रकाश नारायण की आंधी ने केंद्र की सत्ता के सिंहासन को हिलाकर रख दिया था। मतलब देश की राजनीति में आजादी के बाद भी जो बड़े बदलाव आए वह बिहार की धरती से हीं चलकर आए।

यानी राजनीतिक रूप से सबसे जागरूक राज्य समय के साथ राजनीतिक रूप से सबसे अस्थिर राज्यों में शामिल हो गया, और यहां की जमीन पर जातिवादी राजनीति ने ऐसी जड़ें जमा दीं, जिससे आज भी बिहार बाहर नहीं निकल पाया है। बिहार की राजनीति में कभी कांग्रेस का दबदबा रहा, तो कभी जनता पार्टी और कभी लालू प्रसाद और अब नीतीश कुमार यहां राजनीति के पर्याय बन गए हैं। राजनीतिक चेतना का केंद्र रहे इस राज्य ने ऐसा भी दिन देखा जब तीन साल में 5 सरकारें बन गईं और दो बार प्रदेश में राष्ट्रपति शासन भी लगा। उस समय एक मुख्यमंत्री तो सिर्फ दो हफ्ते ही उस कुर्सी पर रह पाए, और ऐसी विषम राजनीतिक परिस्थिति में जो सबसे लंबी सरकार चली वह 10 महीने की थी। यह 1969 से 1972 का समय था।

बिहार में आजादी के बाद से अब तक जितनी सरकारों का गठन हुआ, उसमें लगभग हर जाति, वर्ग के लोगों को प्रदेश का नेतृत्व करने का मौका मिला। प्रदेश में 1 भूमिहार, 1 मुस्लिम, 2 कायस्थ, 3 दलित, 5 ब्राह्मण, 4 राजपूत और 7 पिछड़े वर्ग के सीएम ने सत्ता संभाली।

इतनी समृद्ध संस्कृति वाले और राजनीतिक चेतना से भरे राज्य की राजनीति में आखिर ये जातिवाद आया कहां से? दरअसल, आज जब आप बात बिहार की और खासकर यहां के चुनाव की करेंगे तो एक लाइन खूब सुनने को मिलती है, बिहार की जनता चुनाव के लिए मतदान नहीं करती, बल्कि जाति के लिए मतदान करती है।

प्रदेश का एक बड़ा तबका मानता है कि आजादी के बाद बीस वर्षों तक यहां सर्वणों ने राज किया और भूमिहार मुख्यमंत्री को बिहार की पहली सत्ता मिली, हालांकि इसके बाद बिहार की सत्ता कभी भूमिहारों के हाथ नहीं आई। हालांकि तब एक दिलचस्प बात देखने को मिली कि बिहार में पारंपरिक रूप से एक-दूसरे के धुर-विरोधी रहे भूमिहार और राजपूतों ने सुविधानुसार सत्ता के सुख का पान किया। श्रीकृष्ण सिंह (भूमिहार) के समय ही अनुग्रह नारायण सिंह (राजपूत) बिहार के पहले उपमुख्यमंत्री बने थे।

भूमिहार और राजपूतों के बाद बिहार में सत्ता पर ब्राह्मण काबिज हुए, इसके बाद कायस्थों की बारी आई, फिर भूमिहारों-राजपूतों और ब्राह्मणों को सत्ता से दूर कर दलितों और पिछड़ों ने कर्पूरी ठाकुर को आगे बढ़ाया। यानी बिहार में सत्ता की कहानी जो भूमिहारों से शुरू हुई थी, वह राजपूत, ब्राह्मण, कायस्थ और पिछड़ों के बाद दलितों के हाथ में जा चुकी थी। बिहार में जातिगत सत्ता-स्थानांतरण की मुख्य वजह थी दलितों और पिछड़ों में राजनीतिक जागरूकता और जिनके हाथों से सत्ता गई उनके भीतर की छटपटाहट। यहीं से बिहार में राजनीतिक अस्थिरता का दौर भी शुरू हो गया था।

फिर बिहार की सत्ता में यादवों का वर्चस्व बढ़ा, लालू यादव के हाथ बिहार की सत्ता आई और एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण जैसे शब्द यहीं से विचार में आए। यानी राजनीति में जातिवाद का बोलबाला यहीं से बढ़ा।

बिहार तो ऐसा प्रदेश रहा जहां 7 दशक से अधिक के समय में सत्ता के शीर्ष पर 38 वर्ष से ज्यादा समय तक पिछड़ा व अति पिछड़ा वर्ग के लोग रहे हैं। वहीं सवर्ण समाज के लोग भी यहां सत्ता के शीर्ष पर 37 वर्ष से ज्यादा समय तक काबिज रहे हैं। इस प्रदेश में अनुसूचित जाति का प्रतिनिधित्व तीन बार हुआ, लेकिन केवल एक साल 327 दिन ही इस वर्ग के लोग मुख्यमंत्री के पद पर रह पाए। वहीं अल्पसंख्यक समाज से केवल एक बार मुख्यमंत्री बना और वह भी एक साल 283 दिन के लिए।

राजनीति में जाति का बढ़ता आधार सन 1980 के चुनाव में ज्यादा देखने को मिला जब कांग्रेस पार्टी ने चुनाव में नारा दिया- 'जात पर न पात पर, मुहर लगेगी हाथ पर।' फिर क्या था, इसके बाद से तो राजनीति में जैसे जातिवाद को पंख लग गए। मंडल कमीशन के द्वारा पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने की सिफारिश और फिर भारतीय राजनीति में भूचाल आया, जिसकी वजह से 7 नवंबर, 1990 को वीपी सिंह की सरकार चली गई। यह वही दौर था जब बिहार में लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार जैसे पिछड़ों के नेता जनता के बीच अपना स्थान बना चुके थे। ऐसे में जाते-जाते वीपी सिंह लालू प्रसाद यादव को बिहार में मुख्यमंत्री बना गए। बिहार की राजनीति में जातिवाद वहां का आधार बन गया। अब जाति के नाम पर ही वहां चुनाव लड़े जाने की शुरुआत हो गई। लालू यादव के समय एमवाई का समीकरण और वह नारा 'भूरा बाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला) साफ करो' ने खूब हंगामा मचाया। इस जातिगत समीकरण ने बिहार के राजनीतिक और सामाजिक संतुलन को हमेशा के लिए बदल दिया।

बिहार में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार की स्थापना के बाद की घटनाओं जैसे संपूर्ण क्रांति, मंडल कमीशन आंदोलन आदि के बीच बिहार में पिछड़ी और दलित जातियों के नेता के तौर पर तीन नाम उभर कर सामने आए, जिनमें लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और रामविलास पासवान के नाम शामिल थे। बिहार की पिछड़ी और दलित जातियों के लोग इन्हें ही अपना नेता मानने लगे। इसके बाद 1990 के बाद से बिहार की राजनीति को देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि ये तीन नेता ही बिहार की राजनीति के केंद्र में बने हैं और इसका सबसे बड़ा कारण इन तीनों को अपनी-अपनी जातियों का समर्थन मिलना रहा है।

अब बिहार में जातीय वोटों का बंटवारा देखते हैं, लालू प्रसाद अपने मुस्लिम एवं यादव समीकरण तक सिमटते गए तो दूसरी तरफ नीतीश कुमार उच्च जातियों, पिछड़े, और महादलित जातियों के समर्थन से बिहार के मुख्यमंत्री बने। हालांकि रामविलास पासवान बिहार के मुख्यमंत्री नहीं बने, लेकिन उनको और उनके देहांत के बाद भी उनकी पार्टी को दलित जाति का समर्थन मिलता रहा है। इतना ही नहीं, बिहार में कुछ और नेताओं के नाम देखें तो पता चलेगा कि राजनीति में इन नेताओं का महत्व भी इनकी अपनी-अपनी जातियों के समर्थन के कारण ही है, जिनमें जीतनराम मांझी, उपेन्द्र कुशवाहा, मुकेश सहनी जैसे नाम शामिल हैं।

वैसे एक और तथ्य सत्य है कि बिहार में राजनीतिक दलों को जातिगत समर्थन मिलते-मिलते अब यह व्यक्तिगत समर्थन तक आ गया है। अब जातियां जो पहले दलों का समर्थन कर रही थी वह अब नेताओं या उनके परिवार के जुड़े सदस्यों यानी व्यक्ति विशेष के नाम पर मतदान कर रही हैं। ऐसे में बिहार के संदर्भ में यह कथन उचित होगा कि बिहार की जातीय राजनीति ने व्यक्तिवादी राजनीति को बढ़ावा दिया है।

IANS इनपुट के साथ

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