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Bihar Election 2025: नीतीश से टूटा नाता! अब अकेले चलने की तैयारी, बिहार में BJP की नई चाल से सियासी बवाल; क्या इस बार भाजपा लहराएगी परचम?
Bihar Election 2025: बिहार की राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता न दोस्ती, न दुश्मनी। यहां सत्ता की कुर्सी पाने के लिए जाति, धर्म, विकास और गठबंधनों की चाबियां हर चुनाव में दोबारा से खोजी जाती हैं।
Bihar Election 2025
Bihar Election 2025: बिहार की राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता न दोस्ती, न दुश्मनी। यहां सत्ता की कुर्सी पाने के लिए जाति, धर्म, विकास और गठबंधनों की चाबियां हर चुनाव में दोबारा से खोजी जाती हैं। लेकिन इस बार जो बदला है, वो है भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का रुख। वो पार्टी जिसने नीतीश कुमार जैसे नेताओं के साथ मिलकर बिहार की सत्ता में लंबे समय तक भागीदारी की, अब एक अलग ही राह पर निकलती दिखाई दे रही है। हवा में गूंज रहा है एक नया सवाल क्या भाजपा अब बिहार में अकेले दम पर सत्ता का स्वाद चखना चाहती है? क्या वो गठबंधन राजनीति से किनारा कर रही है या ये सिर्फ एक दबाव की रणनीति है? बदलते समीकरण, बदलती भाषा और बदला हुआ नेतृत्व इन सबका मेल भाजपा की नई रणनीति का इशारा दे रहा है। बिहार के सियासी गलियारों में अब चर्चा है कि भाजपा अपने पुराने सहयोगियों की जरूरत कम और अपनी ताकत पर भरोसा ज़्यादा करने लगी है।
गठबंधन से आत्मनिर्भरता की ओर: क्यों बदल रही है बीजेपी?
बीजेपी ने लंबे समय तक बिहार में जेडीयू के साथ मिलकर शासन किया, लेकिन नीतीश कुमार के बार-बार पाला बदलने से पार्टी की रणनीतिक टीम अब सतर्क हो गई है। पार्टी को ये एहसास हो गया है कि बार-बार के गठबंधन और ‘डबल इंजन सरकार’ के जाल में उसका खुद का चेहरा धुंधला पड़ रहा है। 2020 में भले ही एनडीए को जीत मिली थी, लेकिन बीजेपी को इस जीत का पूरा राजनीतिक मुनाफा नहीं मिल पाया। अब पार्टी खुलकर यह संकेत दे रही है कि वह अगला चुनाव अकेले लड़ने की स्थिति में है और शायद यही उसकी सबसे बड़ी तैयारी भी है।
कैडर vs गठबंधन: बीजेपी की असली ताकत क्या है?
बीजेपी का दावा है कि उसके पास सबसे मजबूत जमीनी कैडर है। आरएसएस का समर्थन, आईटी सेल की आक्रामक सोशल मीडिया मौजूदगी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा ये वो हथियार हैं जो उसे दूसरे दलों से अलग खड़ा करते हैं। पार्टी का मानना है कि बिहार जैसे राज्य में जहां जातीय समीकरण अहम होते हैं, वहां भी अब मुद्दों, योजनाओं और ब्रांड मोदी की ताकत से चुनाव जीते जा सकते हैं। 2024 लोकसभा चुनाव में एनडीए की सफलता के बाद भाजपा को भरोसा है कि वह ‘जमीनी गठबंधन’ यानी OBC, दलित, महिला और युवा वोटरों के समर्थन से किसी भी पारंपरिक गठबंधन को चुनौती दे सकती है।
संदेश सहयोगियों को भी और जनता को भी
बीजेपी के रणनीतिक बदलाव का असर सिर्फ जनता तक सीमित नहीं है, बल्कि ये एक मजबूत संदेश है सहयोगी दलों को भी। चाहे वो जेडीयू हो या लोक जनशक्ति पार्टी, बीजेपी यह साफ करना चाहती है कि वो अब ‘भाई-बेटे’ की राजनीति नहीं, बल्कि संगठन और कार्यकर्ता की ताकत से सत्ता में लौटना चाहती है। यह एक तरह का पावर प्ले है, जिसमें भाजपा अपने सहयोगियों को यह समझा रही है कि अब कोई भी सीट बंटवारे की राजनीति उसके दरवाजे पर नहीं चलेगी।
क्या यह दांव उल्टा पड़ सकता है?
जहां एक तरफ भाजपा की यह रणनीति उसे स्वतंत्र और निर्णायक दिखाने की कोशिश कर रही है, वहीं यह जोखिम भरी भी है। बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण आज भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव जैसे नेताओं की पकड़ अपने-अपने वर्गों में अभी भी मजबूत है। ऐसे में अगर बीजेपी सहयोगियों से पूरी तरह अलग हो जाती है, तो उसे कई इलाकों में स्थानीय चेहरों और आधारभूत संगठन की कमी का नुकसान उठाना पड़ सकता है।इसके अलावा, अकेले चुनाव लड़ने का मतलब यह भी होगा कि अब हार की जिम्मेदारी पूरी तरह भाजपा पर होगी। गठबंधन में हार का ठीकरा किसी और के सिर फोड़ा जा सकता है, लेकिन अकेले मैदान में उतरना मतलब पूरी जवाबदेही अपने सिर लेना।
राजनीतिक ब्रैंडिंग और आत्मविश्वास की सियासत
बीजेपी का यह रुख सिर्फ रणनीति नहीं, बल्कि राजनीतिक ब्रैंडिंग का हिस्सा भी है। पार्टी अब बिहार में खुद को एक ‘सिंगल पार्टी शासन’ के तौर पर पेश करना चाहती है, जो न तो गठबंधनों की डोर से बंधी है और न ही किसी क्षेत्रीय दल के रहमो-करम पर निर्भर है। यह आत्मविश्वास उस पार्टी का है जिसने पूरे देश में खुद को सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बना लिया है।
क्या भाजपा करेगी अकेले बिहार चुनाव में फतह
भाजपा की यह नई रणनीति निश्चित ही साहसी है। यह पार्टी की ताकत को उजागर करती है, लेकिन साथ ही इसके भीतर खतरों की भी परछाई है। बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण, स्थानीय नेता और गठबंधन की बुनावट अब भी उतनी ही अहम है जितनी पहले थी। ऐसे में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला भाजपा के लिए या तो ‘मास्टरस्ट्रोक’ साबित हो सकता है या फिर एक बड़ी राजनीतिक चूक। अब देखना यह है कि भाजपा का यह 'अकेले बिहार फतह' वाला सपना, हकीकत में बदलता है या चुनावी जंग में अकेलापन ही इसकी सबसे बड़ी कमजोरी बन जाता है। बिहार की राजनीति में तो एक कहावत है जो अकेला चला, वो बहुत दूर नहीं गया। अब भाजपा साबित करना चाहती है कि शायद वही पहला अपवाद बने।
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