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Indian Passport History: जब भारतीय पासपोर्ट एक अधिकार नहीं, बल्कि विशेषाधिकार हुआ करता था
Indian Passport History: आज भारतीय पासपोर्ट प्राप्त करना इतना आसान और तेज़ हो गया है कि हम अक्सर इसके बारे में सोचते भी नहीं।
Indian Passport History
Indian Passport History: आज भारतीय पासपोर्ट प्राप्त करना इतना आसान और तेज़ हो गया है कि हम अक्सर इसके बारे में सोचते भी नहीं। कोई भी व्यक्ति पासपोर्ट बनवा सकता है और विदेश यात्रा कर सकता है। लेकिन पहले ऐसा नहीं था — पहले पासपोर्ट मिलना कोई सामान्य बात नहीं थी। वह अधिकार (Right) नहीं, बल्कि विशेषाधिकार (Privilege) था — एक सम्मान, जो केवल कुछ लोगों को प्राप्त होता था।
इतिहास
भारत की 1947 में आज़ादी के बाद पूरे दो दशकों तक पासपोर्ट केवल चुने हुए लोगों, प्रभावशाली वर्गों, अभिजात्य वर्ग, या उन लोगों को ही दिया जाता था जिन्हें सरकार यह समझती थी कि वे देश का सम्मानपूर्वक प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। आम जनता के लिए विदेश यात्रा और पासपोर्ट प्राप्त करना लगभग असंभव था।
1967 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के एक ऐतिहासिक निर्णय ने इस पूरी व्यवस्था को बदल दिया। उस फैसले ने पासपोर्ट को सरकार की मर्ज़ी पर मिलने वाला “अनुग्रह” नहीं, बल्कि संवैधानिक अधिकार के रूप में परिभाषित कर दिया।
1947 से 1967 तक भारत सरकार के पास यह पूरा अधिकार था कि कौन व्यक्ति देश से बाहर जा सकता है और कौन नहीं।
पासपोर्ट देने की प्रक्रिया अस्पष्ट और पूरी तरह व्यक्तिनिष्ठ (subjective) थी। केवल वही लोग पासपोर्ट पा सकते थे जिन्हें “सम्माननीय” और देश की प्रतिष्ठा बनाए रखने में सक्षम माना जाता था।
गरिमा का प्रतीक
स्वतंत्र भारत के आरंभिक वर्षों में भारतीय पासपोर्ट मात्र एक यात्रा दस्तावेज़ नहीं था, बल्कि राष्ट्रीय गरिमा (National Dignity) का प्रतीक माना जाता था। पासपोर्ट जारी करना मानो किसी व्यक्ति को राष्ट्र की प्रतिष्ठा सौंपने जैसा था। इसलिए इसे आम व्यक्ति के बजाय केवल चुनिंदा वर्ग के लिए सुरक्षित रखा गया था।
टर्निंग प्वाइंट : सतवंत सिंह सावनी बनाम डी. रामरतनम (1967)
पासपोर्ट जारी करने की यह व्यवस्था सतवंत सिंह सावनी बनाम डी. रामरतनम, सहायक पासपोर्ट अधिकारी मामले के बाद बदल गई। सतवंत सिंह सावनी एक संपन्न व्यापारी थे, जिन्होंने पासपोर्ट के लिए आवेदन किया, लेकिन सरकार ने बिना कोई कारण बताए उनका आवेदन अस्वीकार कर दिया।
सावनी ने इस निर्णय को अदालत में चुनौती दी और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। लंबी बहस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 3:2 के बहुमत से सावनी के पक्ष में निर्णय दिया। न्यायालय ने कहा कि विदेश यात्रा करने और पासपोर्ट रखने का अधिकार,
संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत “व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty)” का हिस्सा है।
इस ऐतिहासिक फैसले ने भारतीय पासपोर्ट प्रणाली की दिशा ही बदल दी। जो पासपोर्ट कभी सरकार की मर्जी पर मिलता था, अब वह हर नागरिक का अधिकार बन गया। भारत के नागरिकों के लिए दुनिया के द्वार खुल गए।
विरोध का स्वर
हालाँकि, निर्णय में दो न्यायाधीशों ने विरोधाभासी राय (Dissenting Opinion) दी। एक न्यायाधीश ने अपनी कड़ी टिप्पणी में कहा कि पासपोर्ट को रेलवे टिकट की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। उन्होंने चेताया कि जहाँ अमेरिका जैसे देशों में यात्रा आम बात है, वहीं भारत में अंतरराष्ट्रीय यात्रा अब भी एक विलासिता (Luxury) है, अधिकार नहीं।
उन्होंने यह भी कहा कि राज्य (Government) को यह अधिकार होना चाहिए कि वह यह तय करे कि कौन व्यक्ति विदेश जा सकता है और कौन नहीं, ताकि “अवांछनीय प्रतिनिधि” (Undesirable Emissaries) विदेश न जाएँ।
फैसले का प्रभाव
1967 के इस सुप्रीम कोर्ट के निर्णय ने भारत में आवागमन की स्वतंत्रता (Freedom of Movement), सरकारी पारदर्शिता (Transparency), और व्यक्तिगत अधिकारों (Individual Rights) पर भविष्य की बहसों की नींव रख दी।
आज भारतीय पासपोर्ट हर नागरिक का अधिकार है — कोई विशेषाधिकार नहीं, कोई उपकार नहीं, बल्कि लोकतंत्र की उस स्वतंत्रता का प्रतीक है जो यह कहती है कि हर भारतीय को दुनिया देखने का हक है।
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