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Black Truth Of Kashmir: 13 जुलाई याद है... तो 18 जुलाई के दंगे क्यों गायब हैं इतिहास से? जम्मू-कश्मीर का वो काला सच जिसे जान कर दंग रह जाएंगे आप!
Black Truth Of Kashmir: शहीद दिवस जिसे 13 जुलाई को मनाया जाता है लेकिन इसके पीछे का नैरेटिव और वो काला सच है जो हमेशा से दुनिया से छुपाया गया है, वो आज हम आपको इस लेख में विस्तार से बताने जा रहे हैं।
Black Truth Of Kashmir
Black Truth Of Kashmir: भारत का जम्मू कश्मीर राज्य हमेशा से चर्चा का विषय बना रहता है फिर चाहें मुद्दा राजनीतिक हो या धार्मिक, कट्टरवाद हो या फिर खूबसूरती से भरी वादियों का, लेकिन यहाँ का हर पहलू हमेशा से संवेदनशील रहा है। यहाँ का इतिहास जितना सुनहरा और समृद्ध है उतना ही मुश्किल उसको समझना भी है क्योंकि सही इतिहास को समझने के लिए आपको इस राज्य के ऊपर गढ़े गए नैरेटिव के परे देखना होगा और ऐसी ही एक घटना है इस राज्य में बनाए जाने वाला शहीद दिवस जिसे 13 जुलाई को मनाया जाता है लेकिन इसके पीछे का नैरेटिव और वो काला सच है जो हमेशा से दुनिया से छुपाया गया है, वो आज हम आपको इस लेख में विस्तार से बताने जा रहे हैं।
13 जुलाई 1931: क्या हुआ था उस दिन?
13 जुलाई 1931 को श्रीनगर सेंट्रल जेल के बाहर एक प्रदर्शन हुआ था जिसका नेतृत्व अब्दुल कदीर द्वारा किया जा रहा था जिसने ये मांग किया, क्योंकि कश्मीर एक मुस्लिम बहुल इलाका है इसीलिए यहाँ पर मुस्लिम शासन होना चाहिए। इसी घटना के कारण अब्दुल कदीर पर राजद्रोह का आरोप लगा और उन्हें जेल में डाल दिया गया।
उसकी गिरफ़्तारी की खबर आग की तरह घाटी में फैल गई और देखते ही देखते श्रीनगर जेल के बाहर प्रदर्शन होने लगा। प्रदर्शन के दौरान डोगरा राजा हरि सिंह की सेना ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चला दी, जिसमें 22 मुस्लिम प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई। इस घटना को कश्मीरी मुस्लिम समुदाय 'शहीद दिवस' के रूप में मनाता आया है और इस पर जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा सालों तक राजकीय अवकाश घोषित किया जाता रहा।
18 जुलाई 1931 का वो सच जो हमेशा छुपाया गया...
लेकिन इस पूरी घटना का एक पहलू ऐसा भी है जिसे हमेशा से दबाया गया। 13 जुलाई की घटना के पांच दिन बाद, 18 जुलाई 1931 को कश्मीर घाटी में बड़े पैमाने पर दंगे हुए, जिनमें विशेष रूप से कश्मीरी हिंदू, विशेषकर ब्राह्मणों को निशाना बनाया गया। कई मंदिर तोड़े गए, बच्चों को नदी में फेंक दिया गया और पंडित समुदाय के खिलाफ संगठित हिंसा की गई। इस घटना की चर्चा बहुत कम होती है। 13 जुलाई की घटना को ‘शहीद दिवस’ का दर्जा दिया गया, लेकिन 18 जुलाई को हुए दंगों को इतिहास से लगभग मिटा दिया गया। आखिर...... यह दोहरा मापदंड क्यों?
नरेटिव बिल्डिंग और उस पर राजनीति
कश्मीर का इतिहास किसी भी राजनीतिक दल या विचारधारा से परे जाकर समझना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश, दशकों से यहां एक खास नरेटिव बिल्ड करने की कोशिश की जाती रही है – जिसमें हमेशा यह दिखाने का प्रयास किया गया कि कश्मीरी मुसलमानों ने डोगरा शासकों से स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी थी।
पर जब इस लड़ाई की बुनियाद एक खास धर्म के शासक के खिलाफ दूसरे धर्म के आधार पर बनी हो, तो सवाल उठते हैं। शायद ये आंदोलन ‘राजा हरि सिंह’ के खिलाफ नहीं बल्कि ‘हिंदू राजा’ के खिलाफ था। और यदि यह आंदोलन डोगरा शासन के खिलाफ था, तो कश्मीरी पंडितों को निशाना क्यों बनाया गया?
'370' हटने के बाद की तस्वीर
साल 2019 में अनुच्छेद 370 हटने के बाद जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक स्थिति में बड़ा बदलाव आया। राज्य का विशेष दर्जा समाप्त हुआ, उसे केंद्रशासित प्रदेश बनाया गया और अलगाववादी राजनीति को कमजोर करने की कोशिश की गई। इसी क्रम में, 13 जुलाई को मिलने वाली राजकीय छुट्टी को भी रद्द कर दिया गया। यह निर्णय उन लोगों को सबसे ज्यादा खटका जो 13 जुलाई को 'शहीद दिवस' के रूप में मनाते रहे हैं। उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे नेता इसे एक बड़ा मुद्दा बनाना चाहते हैं, ताकि अपने राजनीतिक एजेंडे को फिर से हवा दी जा सके।
नजरबंदी का दावा और नरेटिव का खेल
हाल ही में उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती जैसे नेताओं ने दावा किया कि उन्हें 13 जुलाई 2025 को नजरबंद कर दिया गया, ताकि वे 'शहीदों' की कब्र पर श्रद्धांजलि न दे सकें। उन्होंने इसको लोकतंत्र पर हमला बताया और सरकार पर तानाशाही का आरोप लगाया। लेकिन प्रशासन का कहना था कि किसी को औपचारिक रूप से नजरबंद नहीं किया गया। सुरक्षा व्यवस्था को देखते हुए कुछ प्रतिबंध जरूर लगाए गए थे, जिससे कानून-व्यवस्था बनी रहे। यहाँ सवाल ये उठता है कि क्या वाकई यह एक श्रद्धांजलि थी या फिर एक राजनीतिक नरेटिव को दोबारा जीवित करने की कोशिश?
मीडिया और विपक्ष का पक्षपात
इस मुद्दे पर विपक्षी दलों, जैसे ममता बनर्जी और कांग्रेस के कुछ नेताओं ने भी बयानबाजी की। ममता बनर्जी ने प्रशासन के व्यवहार को 'शर्मनाक' बताया। लेकिन विडंबना यह रही कि किसी ने भी 18 जुलाई 1931 को हुए दंगों की बात नहीं की। न तो किसी ने कश्मीरी पंडितों की पीड़ा का जिक्र किया और न ही उनके खिलाफ हुई हिंसा पर कोई सवाल उठाया।
क्या यह selective outrage नहीं है?
कश्मीरी पंडितों की पीड़ा: अब तक अनसुनी
1990 के दशक में कश्मीर घाटी से लाखों कश्मीरी हिंदुओं को भगाया गया, उनका नरसंहार हुआ, महिलाओं के साथ अत्याचार हुआ, मंदिरों को तोड़ा गया – लेकिन किसी भी राष्ट्रीय दल ने उस घटना को कभी 'शहीद दिवस' के रूप में नहीं मनाया, न ही उसे पाठ्यक्रम में उचित स्थान दिया गया। यह भारत के धर्मनिरपेक्ष तानेबाने पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह है।
एकतरफा इतिहास से बाहर निकलें
किसी का भी उद्देश्य किसी धर्म, जाति या समुदाय के खिलाफ बोलना नहीं होना चाहिए, बल्कि एक संतुलित और सत्य इतिहास की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करना होना चाहिए। यदि 13 जुलाई को ‘शहीद दिवस’ मनाया जाए, तो 18 जुलाई की घटना को भी उतनी ही गंभीरता से स्वीकार करना होगा।
कश्मीर के बहुलता वाले समाज में न्याय और सच्चाई तभी संभव है जब सभी पक्षों की आवाज सुनी जाए। नेताओं की राजनीतिक नाटकीयता और नरेटिव बिल्डिंग की रणनीति को समझना जरूरी है। कश्मीर का भविष्य शांति, विकास और पारदर्शी संवाद में है, न कि अतीत की राजनीतिक राख में चिंगारी ढूंढ़ने में।
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