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Bharat Ka Itihas: जानिए जावा और सुमात्रा में भारतीय संस्कृति का स्वर्णिम अध्याय
Java Aur Sumatra Ka Itihas: जावा और सुमात्रा(Java & Sumatra) में भारतीय संस्कृति का प्रभाव केवल इतिहास का विषय नहीं, बल्कि एक जीवंत और प्रेरणादायक उदाहरण है।
History Of Java and Sumatra: भारतीय संस्कृति(Indian Culture) की सबसे बड़ी विशेषता उसकी विविधता में एकता, सहिष्णुता और समावेशिता रही है। यह एक ऐसी संस्कृति रही है जो न केवल स्वयं में परिपूर्ण रही, बल्कि समय-समय पर दूसरों को भी अपनाकर समृद्ध होती रही। इसकी सीमाएँ केवल भारतीय उपमहाद्वीप तक ही सीमित नहीं रहीं, बल्कि इसने समुद्र पार जाकर अन्य भूभागों पर भी गहरी छाप छोड़ी। दक्षिण-पूर्व एशिया के जावा और सुमात्रा जैसे द्वीप इसका जीवंत प्रमाण हैं, जहाँ भारतीय धार्मिक परंपराओं, भाषाओं, कलाओं और स्थापत्य ने न केवल प्रवेश किया, बल्कि वहाँ की मूल संस्कृति के साथ गहराई से एकाकार हो गया। यह सांस्कृतिक विस्तार शक्ति के बल पर नहीं, बल्कि ज्ञान, प्रेम और दर्शन के माध्यम से हुआ – और यही इसे विशिष्ट बनाता है।
यह लेख भारतीय संस्कृति के उस विलक्षण प्रभाव की विवेचना करता है जो उसने जावा और सुमात्रा जैसे दूरस्थ द्वीपों पर डाला।
भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच प्राचीन संबंध
भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच समुद्री व्यापार का इतिहास हज़ारों वर्षों पुराना है। सिंधु घाटी सभ्यता (लगभग 2600–1900 ई.पू.) के समय से ही भारतीय व्यापारी समुद्री मार्गों का सक्रिय उपयोग कर रहे थे, जिसका प्रमाण मोहनजोदड़ो और लोथल जैसे प्राचीन बंदरगाहों के अवशेष देते हैं। भारतीय व्यापारी मुख्य रूप से वस्त्र, मसाले, कीमती पत्थर, हाथी दांत आदि का व्यापार करते थे, जबकि इसके बदले सोना, चांदी और अन्य मूल्यवान वस्तुएं प्राप्त करते थे। केवल व्यापार तक ही सीमित नहीं रहकर, इस संपर्क के माध्यम से भारतीय संस्कृति, धर्म विशेषकर हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म और भाषा जैसे संस्कृत और पालि का भी दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में व्यापक प्रसार हुआ। जावा और सुमात्रा जैसे द्वीप व्यापारिक केंद्र के रूप में उभरे, जहाँ श्रीविजय और माजापहित जैसे शक्तिशाली साम्राज्यों ने भारतीय संस्कृति और धार्मिक तत्वों को अपनाकर एक समृद्ध और समावेशी सामाजिक व्यवस्था विकसित की। इन साम्राज्यों के मंदिरों, स्थापत्य कला और शिलालेखों में आज भी भारतीय प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, जो इस सांस्कृतिक आदान-प्रदान की गहराई और व्यापकता को दर्शाता है।
भारतीय धर्मों का प्रसार
हिंदू धर्म का प्रभाव - जावा और सुमात्रा में भारतीय धार्मिक प्रभाव प्रारंभिक काल से देखने को मिलता है, जहाँ हिंदू धर्म की पैठ भी रही। विशेष रूप से जावा के मातरम (या मेडांग) साम्राज्य में हिंदू धर्म का गहरा प्रभाव था, जहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय और पुरोहितों की सामाजिक और धार्मिक भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी। जावा में स्थित प्रंबानन मंदिर इस प्रभाव का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। यह मंदिर शिव, विष्णु और ब्रह्मा को समर्पित है और इसकी वास्तुकला भारतीय शैली की प्रतिबिंबित करती है, जो भारतीय स्थापत्य कला की श्रेष्ठता को दर्शाती है। हालांकि सुमात्रा के श्रीविजय साम्राज्य का मुख्य धर्म बौद्ध था, फिर भी हिंदू धर्म का वहाँ भी प्रभाव विद्यमान था, जिससे इस क्षेत्र की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता की झलक मिलती है।
बौद्ध धर्म का विस्तार - श्रीविजय साम्राज्य का मुख्य धर्म बौद्ध धर्म था, और यह दक्षिण-पूर्व एशिया में बौद्ध धर्म का एक प्रमुख केंद्र बनकर उभरा। इसकी राजधानी पालमबांग, जो सुमात्रा द्वीप पर स्थित है, बौद्ध शिक्षा और अध्ययन का महत्वपूर्ण केन्द्र था। चीनी बौद्ध भिक्षु ई-त्सिंग ने भी श्रीविजय में कई वर्षों तक अध्ययन और तपस्या की, जो इस साम्राज्य की बौद्धिक और धार्मिक महत्ता को दर्शाता है। जावा में स्थित बोरोबुदुर मंदिर, जो दुनिया के सबसे बड़े और विशिष्ट बौद्ध स्मारकों में से एक है, भारतीय बौद्ध स्थापत्य परंपरा की शैली पर आधारित है और श्रीविजय साम्राज्य के बौद्ध प्रभाव का जीवंत प्रमाण है। यह मंदिर न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि उस काल की कला, संस्कृति और धार्मिक समृद्धि का भी प्रतीक है।
भारतीय संस्कृति, संस्कृत और पालि का दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रसार
भारतीय संस्कृति के प्रसार के साथ ही संस्कृत और पालि भाषाएँ भी दक्षिण-पूर्व एशिया के द्वीपों (जैसे इंडोनेशिया, कंबोडिया, थाईलैंड आदि) में पहुँचीं। वहाँ के कई प्राचीन राजकीय शिलालेख, ताम्रपत्र, और धार्मिक ग्रंथ संस्कृत और पालि में लिखे गए हैं। इन भाषाओं का प्रयोग विशेष रूप से शासकों के नाम, प्रशासनिक कार्यों, और धार्मिक अनुष्ठानों में होता था।
दक्षिण-पूर्व एशिया के कई शासकों ने संस्कृत मूल के नाम अपनाए, जैसे जयवर्मन (कंबोडिया के शासक), इंद्रवर्मन, और अन्य। इन नामों में 'वर्मन', 'देव', 'इंद्र', 'नाग' आदि संस्कृत शब्दों का प्रयोग मिलता है। इससे स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति और भाषा का वहाँ के शासकों और समाज पर गहरा प्रभाव था।
इंडोनेशियाई, मलय, थाई, खमेर, और जावानीज़ जैसी स्थानीय भाषाओं ने भी संस्कृत से अनेक शब्द ग्रहण किए हैं। आज भी इंडोनेशियाई भाषा में कई शब्द संस्कृत मूल के मिलते हैं, जैसे:
राजा (राजा)
गुरु (शिक्षक)
देव (ईश्वर)
सहस्र (हज़ार) - सहस्र’ से व्युत्पन्न इंडोनेशियाई शब्द ‘seribu’ (हज़ार) जैसे शब्द स्थानीय भाषाओं का अभिन्न हिस्सा बन गए हैं परंतु 'सहस्र' शब्द धार्मिक और औपचारिक संदर्भों में मिलता है।
इस प्रकार, भारतीय संस्कृति और भाषाओं का दक्षिण-पूर्व एशिया की सभ्यता, शासकों, और भाषाओं पर गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ा है।
राजनीतिक और प्रशासनिक संरचना में भारतीयता
दक्षिण-पूर्व एशिया की राजनीतिक संरचना पर भारतीय राजतंत्र का गहरा प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, विशेषकर जावा, सुमात्रा और आसपास के क्षेत्रों में। इन क्षेत्रों के शासकों ने भारतीय क्षत्रिय परंपरा, राज्याभिषेक की विधि, तथा प्रशासनिक व्यवस्थाओं को अपनाया। शासकों के नामों और उपाधियों में भारतीय परंपरा की झलक मिलती है जैसे "राजा", "महाराज", और "वर्मन" जैसी उपाधियाँ अत्यंत प्रचलित थीं। यद्यपि मनुस्मृति और धर्मशास्त्रों का पूर्ण अनुपालन स्पष्ट नहीं है, फिर भी 'धर्म' और 'धर्मराज्य' की अवधारणा वहाँ की राजव्यवस्था में विद्यमान थी। अनेक शिलालेखों और दस्तावेजों में धार्मिक और नैतिक शासन सिद्धांतों का उल्लेख मिलता है, जिससे पता चलता है कि शासन में धर्म को केंद्रीय भूमिका दी जाती थी। दरबारों में ब्राह्मणों, पुरोहितों और विद्वानों को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था और वे धार्मिक अनुष्ठानों, राज्याभिषेक, और नीति-निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। शासक स्वयं को 'धर्म के रक्षक' और 'ईश्वर का प्रतिनिधि' मानते थे, जो भारतीय 'धर्मराज्य' की अवधारणा का स्पष्ट प्रभाव दर्शाता है।
भारतीय स्थापत्य और मूर्तिकला
भारतीय स्थापत्य कला का प्रभाव दक्षिण-पूर्व एशिया, विशेषतः जावा और सुमात्रा में अत्यंत गहराई से देखा जा सकता है। वहाँ निर्मित प्रमुख मंदिरों की वास्तुकला, मूर्तिकला और सजावटी शैली भारतीय स्थापत्य परंपराओं से प्रेरित रही है। इंडोनेशिया के जावा द्वीप पर स्थित बोरोबुदुर मंदिर, जो एक विशाल बौद्ध स्तूप है, भारतीय गुप्तकालीन बौद्ध स्थापत्य शैली का अद्भुत उदाहरण है। वहीं प्रंबानन मंदिर समूह, जो शिव, विष्णु और ब्रह्मा को समर्पित है, हिंदू धर्म और भारतीय मंदिर वास्तुशिल्प का जीवंत प्रतीक है। इन मंदिरों की दीवारों और शिल्पों में रामायण और महाभारत के प्रसंग उकेरे गए हैं, जो इस बात का प्रमाण हैं कि भारतीय धर्मग्रंथ और कथाएँ वहाँ के सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी थीं। इस स्थापत्य प्रभाव ने न केवल धार्मिक जीवन को समृद्ध किया, बल्कि कला और साहित्य की दिशा में भी दीर्घकालीन प्रभाव डाला।
रामायण और महाभारत का सांस्कृतिक प्रभाव
भारतीय महाकाव्य रामायण और महाभारत का प्रभाव जावा और सुमात्रा जैसे दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्रों, विशेषकर इंडोनेशिया, में गहराई से देखा जा सकता है। इन महाकाव्यों की कहानियाँ वहाँ की कला, साहित्य और लोक परंपराओं में रच-बस गई हैं। इंडोनेशिया की प्रसिद्ध पारंपरिक छायाचित्र नाट्यकला वायांग कुलित में रामायण और महाभारत की कथाओं को छायाओं और संवादों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। यह नाट्यकला आज भी वहां के सांस्कृतिक उत्सवों और धार्मिक आयोजनों का अहम हिस्सा है। ‘राम’, ‘हनुमान’, ‘सीता’, और ‘रावण’ जैसे पात्र इंडोनेशियाई लोककथाओं में विशेष श्रद्धा और आदर के साथ स्थान पाते हैं। इतना ही नहीं, इंडोनेशिया की राष्ट्रीय एयरलाइंस का नाम गरुड़ इंडोनेशिया है, जो भगवान विष्णु के वाहन गरुड़ से प्रेरित है - यह दर्शाता है कि भारतीय पौराणिक पात्र और प्रतीक आज भी इंडोनेशिया की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान में जीवित हैं।
इंडोनेशिया में जीवित हिंदू परंपराएँ
हालाँकि इंडोनेशिय(Indonesia) आज एक मुस्लिम बहुल देश है, फिर भी बाली द्वीप पर हिंदू धर्म की परंपराएँ आज भी पूरी गरिमा और श्रद्धा के साथ जीवित हैं। बाली की अधिकांश जनसंख्या हिंदू है, और वहाँ की धार्मिक तथा सांस्कृतिक जीवनशैली में भारतीय मूल की परंपराओं की स्पष्ट झलक मिलती है। यद्यपि दीपावली, नवरात्रि और गणेश चतुर्थी जैसे त्योहार कुछ हद तक मनाए जाते हैं, बाली के प्रमुख पर्व भारत से थोड़े भिन्न हैं। गलुंगन, कुनिन्गन, और न्येपी जैसे विशेष पर्व वहाँ की स्थानीय परंपराओं के अनुसार अत्यंत धूमधाम से मनाए जाते हैं। न्येपी पर्व, जिसे 'मौन दिवस' कहा जाता है, बाली का नववर्ष होता है। इस दिन लोग मौन व्रत रखते हैं, ध्यान करते हैं, घरों में रहते हैं और सभी बाहरी गतिविधियों से विरत रहते हैं। यह परंपरा भारतीय योग, साधना और ध्यान संस्कृति की स्पष्ट छाया प्रतीत होती है। बाली, इस प्रकार, न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि भारतीय संस्कृति की एक जीवंत प्रतिछाया भी है।
शैक्षणिक और दार्शनिक प्रभाव
7वीं से 13वीं शताब्दी तक फैले श्रीविजय साम्राज्य के दौरान सुमात्रा एक समृद्ध बौद्ध शैक्षणिक केंद्र के रूप में उभरा। पालमबांग स्थित यह साम्राज्य बौद्ध दर्शन, संस्कृत भाषा, और तांत्रिक बौद्ध परंपराओं के अध्ययन का प्रमुख स्थल था। यद्यपि इसे कभी-कभी नालंदा और तक्षशिला जैसे भारतीय विश्वविद्यालयों के समकक्ष बताया जाता है, यह तुलना अतिशयोक्तिपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि श्रीविजय में शिक्षा मुख्यतः मठों और बौद्ध ग्रंथों तक सीमित थी। यहाँ विशेष रूप से ध्यान (विपश्यना), योग, और धम्म से संबंधित शिक्षाओं पर बल दिया जाता था। चीनी बौद्ध भिक्षु ई-त्सिंग (I Ching) ने श्रीविजय में छह वर्षों तक अध्ययन किया और इसे बौद्ध शिक्षा का महान केंद्र बताया। उन्होंने यहाँ संस्कृत सीखी और भारत जाने से पहले श्रीविजय को एक प्रकार के तैयारी केंद्र के रूप में प्रयोग किया। यद्यपि अद्वैत वेदांत जैसे हिंदू दर्शनों का प्रभाव सीमित था, फिर भी हिंदू-बौद्ध सहअस्तित्व की झलक इस क्षेत्र की सांस्कृतिक विविधता को दर्शाती है।
आधुनिक काल में भारतीय प्रभाव
भले ही इंडोनेशिया आज एक मुस्लिम बहुल राष्ट्र हो, लेकिन वहाँ भारतीय संस्कृति की गहरी छाप आज भी स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। धार्मिक, स्थापत्य, भाषा, और कलाओं में भारत का प्रभाव बाली से लेकर जकार्ता तक व्याप्त है। बाली द्वीप, जहाँ अधिकांश आबादी हिंदू है, आज भी भारतीय परंपराओं, पूजा-पद्धतियों और सामाजिक रीति-रिवाजों को पूरी श्रद्धा से निभाता है। जकार्ता के हृदयस्थल पर स्थित अर्जुन-विजय रथ (Arjuna Wijaya Statue), जिसमें अर्जुन और कृष्ण का महाभारतीय दृश्य उकेरा गया है, इस सांस्कृतिक सम्मान का प्रतीक है। इंडोनेशिया की मुद्रा और डाक टिकटों पर भी समय-समय पर गणेश, गरुड़ जैसे भारतीय प्रतीकों की छवियाँ अंकित की जाती रही हैं। आधुनिक काल में भारत और इंडोनेशिया के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान निरंतर जारी है जहाँ भारतीय योग, संगीत, नृत्य और बॉलीवुड फिल्में इंडोनेशियाई समाज में लोकप्रियता की ऊँचाइयों पर हैं। यह सब इस बात का प्रमाण है कि भारतीय संस्कृति इंडोनेशिया की आत्मा में गहराई से रची-बसी है।
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