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Language in India: जोड़ती भाषाएँ, तोड़ती भाषाएँ!
Language in India: भारत में भाषा अभी तक सभी को जोड़ने का काम करती आई है लेकिन अब ये लोगों को तोड़ने का काम भी कर रही है। आइये जानते हैं कैसे।
Language Dividing People in India (Photo - Social Media)
Language in India: इंसान पर पहचान का संकट अनादि काल से है, हर जगह है और इन्हीं ढेरों संकटों की वजह से अनवरत झगड़े चले आ रहे हैं, जो सुलझने का नाम ही नहीं लेते। शायद ही कोई संकट हो जो खत्म हो गया हो, बस किसी मर्ज की भांति दब जाता है और गाहे बगाहे उभर भी आता है।
हमारे साथ खासकर धर्म, जाति और भाषा के बड़े संकट चिपके हुए हैं। इन दिनों काफी लोगों का अपनी क्षेत्रीय भाषा पर कुछ ज्यादा ही प्यार उमड़ता दिखाई दे रहा है और इसी प्यार के चलते नफरत भी उमड़ उमड़ कर बाहर आ रही है। कहीं मराठी न बोल पाने पर लोग थपड़ियाये जाते देखे जा रहे हैं तो कहीं कन्नड़ न बोलने पर गालियों से पूजा जा रहा है तो कहीं बांग्ला न समझने पर इज्जत उतार दी जा रही है। सुना था कि भाषा जोड़ती है लेकिन यहाँ तो तोड़ने पर ज्यादा जोर नजर आता है।
सबकी डिमांड है कि दूसरे भी उन्हीं की भाषा बोलें, उसी सुर में बोलें। यूँ तो दिल से हम सभी चाहते यही हैं,अपने घर, दफ्तर, यार दोस्तों में यही उम्मीद रखते हैं और उम्मीद पूरी न होने पर वजूद का संकट खड़ा हो जाता है। सब चाहते हैं कि दूसरे उनकी भाषा न सिर्फ बोलें बल्कि सौ फीसदी समझें भी। हां, डांट फटकार, गालीगलौज, हुक्म आदेश के वक्त कोई नहीं चाहता कि उन्हें उन्हीं की भाषा में जवाब दिया जाए। तब मामला बदल जाता है, तब उम्मीद सिंगल ट्रैक की हो जाती है। समस्या ये भी है कि कोई किसी की भाषा समझने को तैयार नहीं।
अब देखिए, बीवियां चाहती हैं कि पति उन्हीं की भाषा बोलें, पति चाहते हैं कि बीवी उन्हीं के सुर में बोले। सास को बहू से यही चाहत और बहू की भी यही कामना। बात सिर्फ बोलने की नहीं, समझने की भी है। बॉस की ख्वाहिश कि मातहत उसकी ही भाषा समझें, अपना दिमाग न लगाएं। मातहतों की उम्मीद कि बॉस उनकी भाषा बोलें। नेता को उम्मीद कि जनता सिर्फ उन्हीं की भाषा समझे, अपना दिमाग न लगाए। सब जगह यही चलता आया है।
संकट दरअसल, समझने या न समझने का नहीं है, न ही भाषा को पोसने, बचाने संरक्षित करने का है। मामला अपने अस्तित्व का है, अतिक्रमण का है, अधिकार और दबदबे का है। ऐसा नहीं तो क्या अगर कोई पिज़ा डिलीवरी करने वाला लड़का अगर पुणे में मराठी न बोले या न समझे, अगर मुम्बई के बैंक में कोई ग्राहक हिंदी में बोलने लगे तो क्या मराठी भाषा और मराठी संस्कृति संकट में आ जायेगी? अगर कर्नाटक में बाहर वाले कामकाजी लोग कन्नड़ न बोलें तो कौन सा कहर बरप जायेगा? क्या कन्नड़ उन्हीं बाहर वालों के दम पर चल रही है? क्या बांग्ला भाषी इन्सान कभी बाहर नहीं जाता? क्या उसकी पूरी पढ़ाई लिखाई सिर्फ और सिर्फ बांग्ला में हुई है? लाखों करोड़ों लोग जो भाषा अपने घर में बोलते हैं वो आज तक खत्म हुईं क्या? खत्म तो दूर, क्या उनमें कोई कमी भी आई? हाँ. भाषाएँ खत्म हुईं हैं लेकिन दूसरी भाषाओँ की वजह से नहीं बल्कि उन भाषाओँ को बोलने वालों की संख्या घटते घटते खत्म हो जाने की वजह से। मिस्र के पिरामिडों में पत्थरों में लिखी बहुत से लिपियाँ आज तक पढ़ी न जा सकीं हैं। वे भाषाएँ बाहर वालों की वजह से खत्म नहीं हुईं बल्कि खुद उन लोगों के खत्म हो जाने की वजह से विलुप्त हुईं हैं।
ऐसे खांचों में सीमित रहे तो वाकई भाषा पर संकट आना तय है। भाषा पर किसी का एकाधिकार भी नहीं और किसी पर थोपने का भी अधिकार नहीं। सासें जब बहू पर अपनी भाषा थोपती हैं तो क्या होता हैं ये सब जानते हैं। बीवियां जब पतियों की भाषा को ख़ारिज करती हैं तब उसका नतीजा भी हम जानते हैं। जो नेता जनता की भाषा नहीं समझते उनका भी हश्र सबने देखा है।
भाषा तो डबल ट्रैक की चीज है, दोनों ट्रैक पर भाषाएँ ली जातीं हैं, दी जाती हैं। भारत की बहुत बड़ी मजबूती यही रही है कि अंगरेजी बोलने-समझने वाले लोग सबसे ज्यादा यहीं पर हैं और इस मामले में हमने चीन को पीछे छोड़ रखा है और यही वजह है इसी भाषाई मजबूती की वजह से आज दुनिया में टॉप प्रोफेशनल्स में भारतीय ही टॉप पर हैं। उस लेवल पर जा कर न कन्नड़ मायने रखती है न मराठी और न बांग्ला और सबसे बड़ी बात ये है कि हम सब उसी लेवल को छूना चाहते हैं लेकिन क्या करें, डिलीवरीबॉय से मराठी पर लड़ने की मानसिकता आगे बढ़ने नहीं देती।
देश और समाज के रूप में हमारा दुर्भाग्य है कि एक कॉमन भाषा आजतक बना न पाए, न घर में, न देश में और परिणाम सबके सामने है। सवाल ये भी है कि अचानक से भाषा और तमाम अन्य दबे पड़े संकट क्रोनिक बीमारियों की तरह अचानक उभर क्यों आते हैं? कोई न कोई वजह तो जरूर होती है। कोई न कोई ऐसी अदृश्य डिश जरूर परोसी जाती है जिसे ग्रहण करते ही संकट ऊपर आ कर तैरने लगता है। ये संकट भी स्थाई नहीं होता, कुछ दिनों तक वायरल रहेगा फिर स्वतः ही बुझ जाएगा। लेकिन बार बार आयेगा जरूर क्योंकि इलाज स्थाई तो दूर, इलाज है ही नहीं। इन संकटों में उलझाये रखना किन्हीं की रणनीति है तो नासमझी हम सबकी मज़बूरी।
खैर, इन संकट में शायद आप भी उलझे होंगे लेकिन सवाल जरूर मन में उठना चाहिए कि आखिर समाधान क्या है? जब हम सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय और वसुधैव कुटुम्बम की बात करते हैं तो आगे बढ़ कर सभी भाषाओँ का सम्मान ही नहीं करना चाहिए बल्कि उन्हें सीखने और आगे बढ़ाने की भी कोशिश करनी चाहिए। ये जड़ता से आगे बढ़ने की बात है। ये भी जान लीजिये कि ये एक वैज्ञानिक तथ्य है कि कोई भी नई भाषा सीखने से हमारे मस्तिष्क में ढेरों सकारात्मक बदलाव होते हैं।
बहरहाल, धर्म, जाति, अमीर-गरीब जैसे तमाम खांचों में हम पहले से टुकड़ों टुकड़ों में बंटे हुए हैं। बंटने – बांटने को अनगिनत कारण पैदा किये भी जा सकते हैं लेकिन अंत में सब हम पर ही आ कर टिकता है कि हम बंटने को कितना तैयार हैं? हम थोपने की बजाये, संरक्षित करने को कितना तैयार हैं। ये बड़े सवाल है जिनके जवाब कोई और आ कर नहीं बताने वाला, जवाब हमें खुद ही तलाशने होंगे और खुद ही उन पर काम करना होगा। क्या आप तोड़ने की बजाये जोड़ने को तैयार हैं? जरा इस पर अपने बारे में भी सोचियेगा।
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