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Indian Postal Department: क्योंकि लिंक फेल हो गई ........
Indian Postal Department History: भारतीय डाक विभाग के एक केंद्र पर अपना नंबर आते ही लिंक फेल हो गई और पूरे 1 घंटे 10 मिनट के खड़े -खड़े इंतजार के बाद भी रिकवर नहीं हुई। उस बीच में यह यादों का लैटर बाक्स खुल पड़ा
Indian Postal Department (Image Credit-Social Media)
Indian Postal Department: आज जब बहुत दिनों बाद या यूं कहें कि एक साल बाद कुछ चिठ्ठियां लिखने बैठी क्योंकि राखियां भेजनी है तो यह एक अजूबा सा काम लग रहा था। लेखनी थी पर लिखावट नहीं थी, भाव थे पर आवश्यक शब्द कहीं गुम होते लग रहे थे। सोच में थी कि क्या पूछना है कि बताओ कैसे हो सब लोग या क्या बताऊं कि कैसे हैं हम लोग सब।।।। क्या फोन, सोशल मीडिया और व्हाट्सएप समूह इस संवाद के शब्दों को लील चुकें हैं। पैन से लिखने की आदत अब लगभग अपने अंतिम दौर में है, वह अलग बात है कि कल सुबह ही किसी बूढ़ी माता के द्वारा, यह पता होने पर भी कि यह महंगा दे रही है, आग्रह करने पर 10 पैन का सैट खरीद लिया।
मुझे याद है कि आज से 35 से 15 साल पहले तक भी चिठ्ठियां लिखना एक अलग ही आनंद हुआ करता था। हर आती चिट्ठी कोई नया शब्द अभिवादन का, कुशल क्षेम पूछने का, अपनी और परिजनों की कुशल-मंगल बताने का, कितनी सुन्दर किसी की लिखावट है, लिखाई है यह देखने का, उससे संबंधित हिन्दी या संस्कृत के नए शब्द जानने का, और फिर बाद में सीखा अंग्रेजी में एक बढ़िया letter लिखना। सबके पते मुंह-जबानी याद हुआ करते थे, तो कभी पिनकोड उसका आवश्यक अंग न होकर, कुछ सुंदर से दिखते अंक हुआ करते थे, जो कि चिट्ठी भेजने और पाने वाले के पढ़े-लिखे होने की निशानी हुआ करते थे। भेजी गई आखिरी चिट्ठी से लेकर इस बार भेजी जा रही चिट्ठी के बीच के समय में क्या -क्या हुआ, ये चिट्ठियां उसका दस्तावेज हुआ करती थीं।
बेटियों द्वारा ससुराल से मायके को लिखी चिट्ठी में वे अपने मन की पूरी बात उड़ेल दिया करती थीं , बहुत कुछ छिपा भी लिया करती थी़ कि वे जानती थीं कि शब्दों में लिखी उनकी तकलीफ उनके माता-पिता को और दुखी कर देंगी। मां हमेशा कुछ न कुछ ससुराल के प्रति अच्छी सीख वाली चिट्ठियां बेटियों को लिखा करतीं थीं। मांओं को दूसरे शहरों में नौकरी -कारोबार करते बेटे की दो आंक वाली चिट्ठी आने का इंतजार रहता था।
चिट्ठियां सिर्फ संवाद का माध्यम ही नहीं हुआ करतीं थीं, वे उन शब्दों की संवाहक हुआ करतीं थीं जो भावनाओं को पढ़ सकने योग्य बनाते थे। पहुंचाते थे एक मां की आशा, आर्शीवाद को, एक पिता के विश्वास को, एक अदद नौकरी के फॉर्म को, पति-पत्नी के मन की हर
उस प्रीत की रीत की भावना को , जो वे परिवार और समाज के सामने न कह सकते थे। नीले रंग का वो तीन पन्ने वाला अंतर्देशीय पत्र एक अंतहीन यात्रा वाली किताब बन जाता था, जिसे जितना भी खोलकर पढ़ लो, मन नहीं भरता। चिट्ठी की सुंगध में अपने आत्मीय की गंध घुली-मिली लगती थी। राखी भेजने के लिए साथ लिखी जाने वाली चिट्ठी भाई-बहन को एक-दूसरे को बचपन के साथ बिताए समय के साथ जोड़ने के सेतु का काम करती थी। राखी मिलने के बाद आता मनीआर्डर पैसे से अधिक उस पर लिखे शब्दों का उपहार हुआ करता था। राखी की कीमत नहीं देखी जाती थी, उसके साथ आई चिट्ठी में कितना आर्शीवाद और शुभकामनाओं का संदेश आया है, वह महत्वपूर्ण हुआ करता था। हर रिश्ते की सेतू बंध ये चिट्ठियां चाहे पोस्टकार्ड पर लिखीं गई हों या अंतर्देशीय पत्र या लिफाफे के कागज पर, मान-मनौव्वल करतीं हों या प्रेम, केयर दिखाती हों, थीं तो करिश्मा हीं। ये मात्र चिट्ठियां नहीं थीं, ये थीं वो खिड़कियां, जिनसे गुजरे समय को झांका जाता था, जिनसे देती थीं भूली-बिसरी यादें दस्तक.....
अब रिश्तों में न तो पहले जैसी संवेदना रहीं, न भाव, न
मर्यादा और न ही पहले जैसी सामाजिक दृष्टि तो लुप्त होती चिट्ठी कला का अकेले क्या दोष? किसकी संवाहक बने वों? बाजारवादी व्यवस्था में गुम होते संबंधों में अब चिट्ठियों की जगह कहां? आज भी अपने पास रखीं पुरानी चिट्ठियां बदमाशियों की, सीख की, आर्शीवाद की, ध्यान की, नए-नए शब्दों की, परवाह की और भेजे गए प्यार की एक ऐतिहासिक धरोहर हैं। अब..... All set में ही सारे शब्द खत्म हो जाते हैं।
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