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International Widows Day 2025: कब से यह शुरू हुआ और कैसे मनाया जाए, क्या है पूरी कहानी आइए जानते हैं
International Widows Day 2025 : अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस 23 जून को मनाया जाता है आइये जानते हैं क्या है इसका इतिहास, महत्त्व और कैसे हुई इसकी शुरुआत आइये विस्तार से समझते हैं।
International Widows Day 2025 (Image Credit-Social Media)
International Widow Day 2025: कभी सोचा है कि एक दिन ऐसा हो सकता है जो सिर्फ उन औरतों के लिए हो जिन्होंने अपने जीवनसाथी को खो दिया? जिनके सपने, हँसी और घर की रौनक एक पल में छिन गई? 23 जून को पूरी दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस मनाया जाता है। ये दिन सिर्फ एक तारीख नहीं है बल्कि उन लाखों औरतों की आवाज़ है जो अपने पति के जाने के बाद समाज की उपेक्षा, गरीबी और भेदभाव का सामना करती हैं। ये कहानी है उनके संघर्ष की, उनकी हिम्मत की और उस बदलाव की जो इस दिन के जरिए लाने की कोशिश की जा रही है। चलिए इस दिन के इतिहास, इसके मकसद और इसके पीछे की कहानी को करीब से जानते हैं।
क्यों पड़ा ये दिन?
हर साल 23 जून को अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस मनाया जाता है। इसका मकसद है दुनिया भर की विधवाओं की मुश्किलों को सामने लाना और उनके लिए बेहतर जिंदगी की राह बनाना। दुनिया में करीब 25-30 करोड़ विधवाएँ हैं और इनमें से लाखों गरीबी, सामाजिक बहिष्कार और हिंसा का शिकार हैं। ये औरतें अपने पति के जाने के बाद न सिर्फ भावनात्मक दुख झेलती हैं बल्कि आर्थिक और सामाजिक तौर पर भी हाशिए पर धकेल दी जाती हैं।
ये दिन उन औरतों को सम्मान देने का मौका है जो हर दिन अपनी जिंदगी को नए सिरे से संवारने की कोशिश करती हैं। ये दिन हमें याद दिलाता है कि समाज का एक बड़ा हिस्सा ऐसी औरतों से बना है जिन्हें अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। ये सिर्फ उनके दुख की बात नहीं करता बल्कि उनकी ताकत, हिम्मत और हक की बात करता है।
इसकी शुरुआत कैसे हुई?
अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस की कहानी शुरू होती है यूनाइटेड किंगडम से। लॉर्ड राजिंदर पॉल लूंबा, जो हाउस ऑफ लॉर्ड्स के सदस्य थे, ने अपनी माँ श्रीमती पुष्पा वती लूंबा की याद में इस दिन की नींव रखी। 23 जून 1954 को उनकी माँ विधवा हुई थीं। लॉर्ड लूंबा ने देखा कि उनकी माँ को विधवा होने के बाद कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। समाज का रवैया, आर्थिक तंगी और इमोशनल तनाव ने उनकी जिंदगी को और मुश्किल बना दिया था।
लॉर्ड लूंबा ने 2005 में लूंबा फाउंडेशन बनाया, जिसका मकसद था विधवाओं के हक के लिए आवाज़ उठाना। उन्होंने देखा कि न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया के कई हिस्सों में विधवाओं को भेदभाव, हिंसा और गरीबी का सामना करना पड़ता है। उनकी कोशिश थी कि इस अनदेखी तबके की बात दुनिया तक पहुँचे। 23 जून को इसलिए चुना गया क्योंकि यही वो तारीख थी जब उनकी माँ विधवा हुई थीं।
लूंबा फाउंडेशन ने 2005 में पहला अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस मनाया। इसकी शुरुआत लॉर्ड लूंबा और फाउंडेशन की तत्कालीन अध्यक्ष चेरी ब्लेयर ने की। धीरे-धीरे ये मुहिम दुनिया भर में फैल गई। रवांडा, श्रीलंका, नेपाल, भारत, बांग्लादेश, केन्या, सीरिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में इस दिन को मनाने के लिए प्रोग्राम हुए।
2010 तक लूंबा फाउंडेशन की मेहनत रंग लाई। 21 दिसंबर 2010 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 23 जून को अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस के रूप में मान्यता दी। गैबॉन के राष्ट्रपति अली बोंगो ओन्डिम्बा ने इस प्रस्ताव को पेश किया और इसे सर्वसम्मति से पास किया गया। 2011 से ये दिन संयुक्त राष्ट्र के तहत हर साल मनाया जाता है। इस दिन को दुनिया भर में विधवाओं के हक के लिए जागरूकता फैलाने का मौका माना जाता है।
क्या हैं विधवाओं की मुश्किलें?
दुनिया भर में विधवाएँ कई तरह की चुनौतियों का सामना करती हैं। उनके पति के जाने के बाद उनकी जिंदगी सिर्फ इमोशनल दुख तक सीमित नहीं रहती। समाज का रवैया, आर्थिक तंगी और कानूनी पेंच उनके लिए रास्ता और मुश्किल कर देते हैं।
सबसे बड़ी समस्या है सामाजिक बहिष्कार। कई देशों में, खासकर दक्षिण एशिया और अफ्रीका में, विधवाओं को अशुभ माना जाता है। भारत में पहले वृंदावन जैसे शहरों में विधवाएँ अपनी जिंदगी के आखिरी दिन बिना किसी सपोर्ट के बिताती थीं। उन्हें परिवार और समाज से अलग कर दिया जाता था। कुछ जगहों पर आज भी विधवाओं को सफेद कपड़े पहनने, शादी-ब्याह जैसे मौकों से दूर रहने और सामाजिक रीति-रिवाजों से कटने के लिए मजबूर किया जाता है।
आर्थिक तंगी दूसरी बड़ी चुनौती है। लूंबा फाउंडेशन की एक किताब इनविजिबल, फॉरगॉटन सफरर्स: द प्लाइट ऑफ विडोज अराउंड द वर्ल्ड के मुताबिक, दुनिया में करीब 25 करोड़ विधवाएँ हैं और इनमें से 11.5 करोड़ गरीबी में जी रही हैं। कई विधवाओं को अपने पति की प्रॉपर्टी या पेंशन तक नहीं मिलती। भारत जैसे देशों में अगर पति की मौत बिना वसीयत के होती है तो प्रॉपर्टी का बँटवारा औरतों के लिए मुश्किल हो जाता है। कई बार परिवार वाले ही उनकी जमीन या पैसे हड़प लेते हैं।
`हिंसा और शोषण भी एक बड़ा मसला है। कई देशों में विधवाओं को शारीरिक और मानसिक हिंसा का सामना करना पड़ता है। कुछ जगहों पर उन्हें जबरदस्ती शादी करने या घर छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता है। बच्चों वाली विधवाओं की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। उन्हें अपने बच्चों को पालने के लिए अकेले जूझना पड़ता है, बिना किसी सपोर्ट के।
स्वास्थ्य भी एक बड़ी चिंता है। दुख और तनाव की वजह से विधवाओं को मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ होने का खतरा ज्यादा होता है। लेकिन कई बार उनके पास इलाज के लिए पैसे या सुविधाएँ नहीं होतीं। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने 2019 में अपने संदेश में कहा था कि विधवाओं की आर्थिक और भावनात्मक मुश्किलों को समझना और उनका हल निकालना जरूरी है।
क्यों जरूरी है ये दिन?
अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस सिर्फ एक औपचारिक दिन नहीं है। ये एक मौका है समाज को जगाने का, सरकारों को उनकी जिम्मेदारी याद दिलाने का और दुनिया को ये बताने का कि विधवाएँ अदृश्य नहीं हैं। ये दिन हमें याद दिलाता है कि हर औरत, चाहे उसकी उम्र, देश या संस्कृति कुछ हो, सम्मान और बराबरी की हकदार है।
इस दिन का मकसद है विधवाओं को उनके हक दिलाना। इसमें प्रॉपर्टी का अधिकार, पेंशन, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा जैसी चीजें शामिल हैं। ये दिन समाज में फैले उन कलंक को तोड़ने की बात करता है जो विधवाओं को अशुभ या बोझ मानते हैं। ये औरतों को सशक्त बनाने की बात करता है ताकि वो अपने और अपने बच्चों के लिए बेहतर जिंदगी बना सकें।
इस दिन सरकारों, NGOs और समाज से अपील की जाती है कि वो विधवाओं के लिए नीतियाँ बनाएँ। मिसाल के तौर पर, भारत में विधवा पेंशन स्कीम्स हैं, लेकिन कई औरतों को इसके बारे में पता ही नहीं होता। इस दिन जागरूकता कैंप, सेमिनार और प्रोग्राम्स के जरिए ऐसी स्कीम्स की जानकारी दी जाती है।
क्या होता है इस दिन?
23 जून को दुनिया भर में कई तरह के प्रोग्राम्स होते हैं। NGOs और चैरिटी ऑर्गनाइजेशन्स विधवाओं के लिए वर्कशॉप्स, ट्रेनिंग प्रोग्राम्स और जागरूकता कैंप लगाते हैं। इनमें औरतों को स्किल डेवलपमेंट, फाइनेंशियल लिटरेसी और उनके कानूनी हक की जानकारी दी जाती है। कुछ जगहों पर विधवाओं को मुफ्त हेल्थ चेकअप और काउंसलिंग दी जाती है।
भारत में कई संगठन इस दिन विधवाओं के लिए खास इवेंट्स करते हैं। वृंदावन जैसे शहरों में, जहाँ पहले विधवाएँ अकेलेपन में जिंदगी बिताती थीं, अब NGOs उनके लिए स्कूल्स, ट्रेनिंग सेंटर्स और कम्युनिटी प्रोग्राम्स चला रहे हैं। लूंबा फाउंडेशन जैसे संगठन स्कॉलरशिप्स और माइक्रोफाइनेंस लोन्स के जरिए विधवाओं को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश करते हैं।
दक्षिण अफ्रीका, रवांडा और श्रीलंका जैसे देशों में इस दिन बड़े स्तर पर रैलियाँ और सेमिनार्स होते हैं। इनमें विधवाओं की कहानियाँ शेयर की जाती हैं ताकि लोग उनकी हिम्मत और जिंदगी के बारे में जान सकें। संयुक्त राष्ट्र भी इस दिन अपने मेंबर देशों से अपील करता है कि वो विधवाओं के लिए पॉलिसीज़ बनाएँ और उनके हक की रक्षा करें।
भारत में विधवाओं की स्थिति
भारत में विधवाओं की हालत पहले से कुछ बेहतर हुई है लेकिन अभी लंबा रास्ता बाकी है। पहले विधवाओं को समाज से अलग कर दिया जाता था। उन्हें रंग-बिरंगे कपड़े पहनने की मनाही थी और कई बार उन्हें परिवार से बाहर निकाल दिया जाता था। वृंदावन और मथुरा जैसे शहरों में आज भी हजारों विधवाएँ रहती हैं जो अपने परिवारों से दूर हैं। लेकिन अब NGOs और सरकार की कोशिशों से हालात बदल रहे हैं।
भारत सरकार ने विधवा पेंशन स्कीम्स शुरू की हैं। कई राज्यों में 18 से 60 साल की विधवाओं को हर महीने 300 से 2000 रुपये तक की पेंशन मिलती है। लेकिन कई बार ये पैसे समय पर नहीं पहुँचते या फिर औरतों को इसके लिए जागरूक ही नहीं किया जाता। इसके अलावा, प्रॉपर्टी राइट्स को लेकर भी कई विधवाएँ जूझती हैं। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के तहत विधवाओं को अपने पति की प्रॉपर्टी में हक मिलता है लेकिन कई बार परिवार वाले इसका विरोध करते हैं।
NGOs जैसे सुलभ इंटरनेशनल और गिल्ड ऑफ सर्विस भारत में विधवाओं के लिए काम कर रहे हैं। ये संगठन उन्हें ट्रेनिंग, रोजगार और काउंसलिंग देते हैं। वृंदावन में सुलभ इंटरनेशनल ने विधवाओं के लिए स्कूल और हेल्थ सेंटर्स बनाए हैं। इन कोशिशों से कई औरतों को नई जिंदगी मिली है।
क्या है थीम और इसका असर?
हर साल अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस की एक थीम होती है जो विधवाओं की किसी खास समस्या पर फोकस करती है। मिसाल के तौर पर, 2021 की थीम थी इनविजिबल वीमेन, इनविजिबल प्रॉब्लम्स। इस थीम ने इस बात पर जोर दिया कि विधवाएँ समाज में अक्सर अनदेखी रहती हैं और उनकी समस्याएँ भी। 2023 में थीम थी इनोवेशन फॉर विडोज एम्पावरमेंट, जिसमें टेक्नोलॉजी और नए तरीकों से विधवाओं को सशक्त बनाने की बात की गई।
इन थीम्स का मकसद है कि हर साल एक नया नजरिया लाया जाए। ये थीम्स सरकारों और संगठनों को प्रेरित करती हैं कि वो नई पॉलिसीज़ बनाएँ। मिसाल के तौर पर, कुछ देशों में माइक्रोफाइनेंस स्कीम्स शुरू हुईं, जिनसे विधवाएँ छोटे बिजनेस शुरू कर पा रही हैं।
क्या हो सकता है समाधान?
विधवाओं की समस्याओं का हल सिर्फ जागरूकता से नहीं आएगा। इसके लिए ठोस कदम उठाने होंगे। सबसे पहले, कानूनी हक की जागरूकता जरूरी है। कई विधवाएँ अपने प्रॉपर्टी और पेंशन के हक से अनजान रहती हैं। सरकार और NGOs को मिलकर कैंप लगाने चाहिए ताकि औरतों को उनके अधिकारों की जानकारी मिले।
दूसरा, स्किल डेवलपमेंट और रोजगार के मौके बढ़ाने चाहिए। कई विधवाएँ पढ़ी-लिखी नहीं होतीं, लेकिन अगर उन्हें सिलाई, बुनाई, हस्तशिल्प या डिजिटल स्किल्स की ट्रेनिंग दी जाए तो वो आत्मनिर्भर बन सकती हैं। माइक्रोफाइनेंस लोन्स और ग्रुप बिजनेस मॉडल्स जैसे सहेली समूह भारत में पहले से काम कर रहे हैं।
तीसरा, सामाजिक बदलाव जरूरी है। समाज को ये समझना होगा कि विधवाएँ बोझ नहीं हैं। उन्हें बराबरी का हक मिलना चाहिए। स्कूलों और कॉलेजों में बच्चों को ये सिखाया जाना चाहिए कि हर इंसान, चाहे उसकी वैवाहिक स्थिति कुछ हो, सम्मान का हकदार है।
क्या बदल रहा है?
पिछले कुछ सालों में हालात सुधरे हैं। भारत में सुप्रीम कोर्ट ने कई बार विधवाओं के हक की बात की है। 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने वृंदावन की विधवाओं की हालत पर चिंता जताई और सरकार को उनकी बेहतरी के लिए कदम उठाने को कहा। इसके बाद कई स्कीम्स शुरू हुईं।
दुनिया भर में भी बदलाव दिख रहा है। रवांडा जैसे देशों में विधवाओं को प्रॉपर्टी राइट्स देने के लिए नए कानून बने हैं। नेपाल और बांग्लादेश में NGOs ने विधवाओं के लिए कोऑपरेटिव्स शुरू किए हैं, जहाँ वो हस्तशिल्प बनाकर बेचती हैं। इन कोशिशों से उनकी जिंदगी में थोड़ा सुकून आया है।
क्यों खास है ये दिन?
अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस सिर्फ एक तारीख नहीं है। ये एक उम्मीद है, एक वादा है कि दुनिया की हर विधवा को वो सम्मान, सुरक्षा और मौके मिलेंगे जो वो डिजर्व करती हैं। ये दिन हमें याद दिलाता है कि हर औरत की अपनी कहानी है, अपनी हिम्मत है और उसे अनदेखा नहीं करना चाहिए।
अगर आप इस दिन को सेलिब्रेट करना चाहते हैं तो अपने आसपास की विधवाओं की मदद करें। उनकी कहानी सुनें, उनके लिए कोई छोटा सा काम करें या किसी NGO को सपोर्ट करें। ये छोटे-छोटे कदम मिलकर एक बड़ा बदलाव ला सकते हैं।
तो अगली बार जब 23 जून आए तो इस दिन को सिर्फ एक और तारीख न समझें। ये वो दिन है जब हम उन औरतों को सलाम करते हैं जो हर दिन जिंदगी से जंग लड़ रही हैं। ये दिन हमें सिखाता है कि इंसानियत और बराबरी से बड़ा कुछ नहीं। इस दिन को मनाएँ, इसकी बात फैलाएँ और दुनिया को बताएँ कि विधवाएँ अदृश्य नहीं हैं, उनकी आवाज़ सुनी जानी चाहिए।
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