Kaka Hathrasi: हास्य था जिनका हथियार और व्यंग्य था तीखा वार- हंसी को औषधि मानते थे काका हाथरसी

Kaka Hathrasi, the legendary Hindi satirist and humorist, believed laughter to be the best medicine. On his 120th birth anniversary, explore his life journey, literary works, and enduring legacy.

Jyotsna Singh
Published on: 18 Sept 2025 4:12 PM IST
Kaka Hathrasi Biography
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Kaka Hathrasi Biography (Image Credit-Social Media)

Kaka Hathrasi Biography: चिकित्सा विज्ञान में भी यह बात स्वीकारी गई है कि आपकी एक मुस्कराहट आपकी अनगिनत बीमारियों से कवच बनकर रक्षा करती है। यही वजह है कि आपके स्वस्थ शरीर के लिए हंसी सबसे सस्ती और सबसे असरदार दवा है। चिकित्सा ही नहीं साहित्य में भी इस बात को स्वीकार्यता मिली है। जिसे जीकर और लिखकर दिखाने व सत्य साबित करने वाले शख़्स का नाम है काका हाथरसी। चाहे मंच हो या रेडियो, उनकी उपस्थिति ही माहौल को खिलखिला देती थी। मुश्किल हालात हों या गहरी पीड़ा, काका ने हमेशा उनमें से हास्य खोजकर लोगों के चेहरे पर मुस्कान बिखेरी। वे मानते थे कि व्यंग्य केवल हंसी-मजाक नहीं, बल्कि समाज को आईना दिखाने का सबसे असरदार तरीका है। आइए काका हाथरसी- की 120वीं जन्मजयंती के अवसर पर जानते हैं इनके व्यक्तिगत और साहित्यिक जीवन से जुड़ी यात्रा के बारे में -

बचपन की त्रासदी बनी रचनात्मकता की जननी



18 सितम्बर 1906 को हाथरस ज़िले में प्रभुलाल गर्ग का जन्म हुआ, जिन्हें बाद में दुनिया ने काका हाथरसी के नाम से जाना। लेकिन किस्मत का एक क्रूर खेल हुआ जब जन्म के महज़ पंद्रह दिन बाद ही पिता का निधन प्लेग जैसी उस समय की लाइलाज बीमारी के चलते हो गया। प्लेग की मार से काका हाथरसी का परिवार ऐसा टूटा कि घर का चूल्हा चौका करने वाली मां बरफी देवी के कंधों पर जैसे पहाड़ टूट पड़ा। दो वक्त की रोटी जुटाना भी जिनके लिए नामुमकिन था। गोद में छोटा बच्चा यानी हाथरसी और बगल में दो साल का बेटा ऐसे कठिन दिनों में वे अपने मायके इगलास चली गईं। यही ननिहाल प्रभुलाल का पालन पोषण हुआ और यही उनका पहला घर संसार बना। लेकिन उनके नाना- नानी के घर की भी माली हालत बहुत अच्छी नहीं थी। गरीबी का आलम ऐसा था कि सरकारी पेंशन भी पूरी तरह नहीं मिलती थी। कभी पोस्टमैन पैसे काट लेता, कभी रिश्वत मांग लेता। प्रभुलाल यानी काका हाथरसी के बालमन पर जैसे इन तजुर्बों का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ता जा रहा था और अपने इन अनुभवों को साझा करने के लिए उन्होंने कलम को अपना सहारा बनाया साथ ही समाज में फैली अव्यवस्थाओं ने प्रभुलाल के भीतर व्यंग्य की आग जगाई। यही दर्द और संघर्ष बाद में उनकी रचनात्मकता की ठोस ज़मीन बना।

जीवन संघर्ष से हास्य का कवि बनने की राह

दस साल की उम्र में मामा के पास पढ़ाई के लिए इगलास भेजे गए काका ने वहीं जीवन की असलियत देखी। पढ़ाई पूरी करते ही शुरुआती नौकरी में उन्हें सिर्फ छह रुपये महीना मिलते थे। लेकिन इन संघर्षों से कसी हुई परिस्थितियों ने उनकी रचनात्मक सोच को गढ़ा। 1946 में उनकी पहली किताब 'कचहरी' प्रकाशित हुई और साहित्यिक हलकों में हलचल मच गई। कवि सम्मेलनों में उनकी पहचान बनने लगी और उनकी दाढ़ी भी चर्चा का हिस्सा बन गई।

काका हाथरसी का मंचों पर छा जाने वाला बेहद अनोखा था अंदाज़

काका की पहचान सिर्फ उनके हर मुद्दे पर सटीक वार करते शब्दों से है नहीं, बल्कि उनकी अद्भुत शैली के कारण भी बेहद लोकप्रिय थी। उनकी खिलखिलाती मुस्कान और अनोखी दाढ़ी जब मंच पर दिखाई देती, तो पूरा माहौल बदल जाता। उन्होंने दाढ़ी पर ही कविता लिख डाली और उसमें इसे मुनि वशिष्ठ की गरिमा और संत विनोबा की प्रगति से जोड़ दिया। यह उनकी खासियत थी कि हर साधारण चीज़ को हास्य का रंग दे देना। ये कविता - 'काका दाढ़ी राखिए, बिन दाढ़ी मुख सून,

ज्यों मसूरी के बिना, व्यर्थ देहरादून।

मुनि वशिष्ठ यदि दाढ़ी, मुंह पर नहीं रखाते,

तो क्या भगवान राम के गुरु बन जाते?'

व्यंग्य जो हास्य के साथ समाज को दिखाते थे आईना

काका का व्यंग्य केवल हंसी तक सीमित नहीं था। वे समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनुशासनहीनता और कुरीतियों पर ऐसे वार करते कि लोग ठहाके लगाते-लगाते सोचने पर मजबूर हो जाते। उनकी इस विषय पर लिखी हुईं व्यंग्यात्मक पंक्तियां- 'बिना टिकट के ट्रेन में चले पुत्र बलवीर,

जहाँ ‘मूड’ आया वहीं, खींच लई जंजीर।

खींच लई जंजीर, बने गुंडों के नक्कू,

पकड़ें टीटी, गार्ड, उन्हें दिखलाते चक्कू।

केवल मज़ाक नहीं थीं, बल्कि लोकतंत्र की खामियों पर गहरी चोट थीं।

काका हाथरसी अक्सर नेताओं की वादाख़िलाफ़ी और भाषणबाज़ी पर चोट करते थे।

उदाहरण के तौर पर वे कहते थे- 'नेता जी भाषण में कहें, गरीबी हराएंगे,

वोट मिले तो पांच बरस तक जनता को ही सताएंगे।'

. अफ़सरशाही पर कटाक्ष

करते हुए वे सरकारी अफ़सरों की ढीली कार्यप्रणाली पर लिखते थे कि,

'फाइलें चलती दफ्तरों में, जैसे कछुआ दौड़,

पांच बजे सब भागते, काम न पूरा छोड़।'

यही वजह थी कि उनका व्यंग्य मनोरंजन से कहीं आगे समाज को जागरूक करने का काम करता था।

श्रोताओं का दिल जीतने वाले काका हाथरसी की रेडियो से लेकर अंतरराष्ट्रीय पहचान

काका की लोकप्रियता सिर्फ कवि सम्मेलनों तक सीमित नहीं रही। रेडियो पर उनका अंदाज़ लोगों का दिल जीत लेता। राजेंद्र नांचल द्वारा तैयार किया गया कार्यक्रम 'मीठी-मीठी हंसाइयां' 42 एपिसोड तक चला और अपने दौर का सबसे लंबा हास्य-व्यंग्य आधारित रेडियो शो बना। उनकी हंसी की गूंज भारत की सीमाओं को लांघ गई और विदेशों में भी उनका सम्मान हुआ।

हास्य व्यंग्य के धनी इस रचनाकार का संगीत और कला से भी रहा जुड़ाव

काका हाथरसी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे न केवल कवि थे, बल्कि संगीत और चित्रकला से भी गहरा लगाव रखते थे। 1932 में उन्होंने अपने मित्र के साथ हाथरस में एक संगीत कार्यालय खोला, जिसे आज तक उनका बेटे लक्ष्मी नारायण गर्ग संभाल रहे हैं। यहीं से 'संगीत' नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ, जो आज तक जारी है। संगीत जगत में उनका यह योगदान हमेशा याद किया जाएगा।

फिल्मी दुनिया से भी रहा गहरा नाता

काका हाथरसी का रचनात्मकता का प्रभाव ऐसा था कि जिसकी लोकप्रियता दूर-दूर तक फैल चुकी थी। यहां तक कि उसका असर फिल्मी दुनिया तक भी पहुंचा। 1984 में ब्रजभाषा में बनी फिल्म 'जमुना किनारे' में उन्होंने अभिनय किया। यह फिल्म उनके बेटे लक्ष्मी नारायण गर्ग के निर्देशन में बनी थी और इसका मकसद शास्त्रीय संगीत को आम जनता तक पहुंचाना था।

काका हाथरसी का साहित्य


काका की पहली कविता 'घुटा करती हैं मेरी हसरतें दिन-रात सीने में' इलाहाबाद की पत्रिका गुलदस्ता में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद तो मंचों से बुलावे की झड़ी लग गई। उन्होंने जीवनभर हास्य और व्यंग्य की 42 किताबें लिखीं। 1993 में उनकी आत्मकथा 'मेरा जीवनके आई, जिसमें संघर्ष, गरीबी और कवि बनने की यात्रा दर्ज थी।

मिले अनगिनत सम्मान और पुरस्कार

काका हाथरसी को देश-विदेश में भरपूर सराहना मिली। 1966 में उन्हें कला रत्न सम्मान मिला। 1985 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से नवाज़ा। 1989 में अमेरिका के बाल्टीमोर शहर ने उन्हें ऑनरेरी सिटीजन घोषित किया। उनके नाम पर आज भी 'काका हाथरसी सम्मान' और 'काका हाथरसी संगीत सम्मान दिए जाने की परंपरा कायम है। ये ये सम्मान सिर्फ हिंदी साहित्य के प्रति दिए गए इनके अमूल्य योगदान की ही याद नहीं दिलाते बल्कि नई पीढ़ी के रचनाकारों को प्रेरणा भी देते हैं।

जीवन को खूबसूरती से जीने की कला है हंसी

काका हाथरसी का मानना था कि इंसान के जीवन में हंसी सबसे बड़ी औषधि है। वे अक्सर कहा करते थे कि 'जितना आदमी हंसता है, उतना उसका खून बढ़ता है।' उनके अनुसार, जिनके जीवन में हास्य नहीं, उनके चेहरे पर मनहूसी का अंधेरा छा जाता है। उनके लिए हंसी ठहाका भर नहीं थी, बल्कि जीवन जीने का सबसे खूबसूरत तरीका था।

रोकर नहीं बल्कि अंतिम इच्छा मुस्कराहट के साथ विदाई

काका की सबसे अनोखी पहचान उनकी अंतिम इच्छा से भी स्पष्ट रूप से सामने आती है। उन्होंने अपनी अंतिम विदाई के लिए भी लिख छोड़ा था कि उनके निधन पर कोई आंसू न बहाए, बल्कि ठहाकों के बीच उन्हें विदा किया जाए। नियति देखिए कि 18 सितम्बर 1906 को जन्मे काका ने 18 सितम्बर 1995 को ही दुनिया को अलविदा कहा। मानो उन्होंने जन्म और मृत्यु की तारीख को एक ही धागे से बांधकर हंसी का उत्सव बना दिया हो।

काका हाथरसी सिर्फ कवि नहीं थे, बल्कि हंसी और व्यंग्य के जरिए समाज की विसंगतियों को उजागर करने वाले युगपुरुष थे। उन्होंने दिखाया कि हंसी केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि इंसान के व्यक्तित्व में बदलाव और आत्मबल का शस्त्र भी है। उनकी कविताएं, उनका अंदाज़ और उनका जीवन आज भी उतना ही प्रेरक है जितना उनके समय में था। काका हाथरसी की साहित्यिक विरासत यही संदेश देती है कि चाहे हालात कितने भी कठिन हों, जीवन की हर परिस्थितियों में मुस्कराहट का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। काका हाथरसी की खासियत ही यही थी कि वे हंसी-मज़ाक में गंभीर सच्चाई कह देते थे। उनकी पंक्तियां पढ़कर पहले मुस्कान आती है, फिर सोचने पर मजबूर कर देती हैं।

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