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Premanand Ji Maharaj Satsang: आत्मसंयम से ही संभव है आत्मबल की प्राप्ति - प्रेमानंद महाराज के प्रवचन में जीवन को दिशा देने वाली गूढ़ सीख
Premanand Ji Maharaj Satsang: प्रेमानंद महाराज ने कहा कि आज की भागदौड़ भरी दुनिया में अगर कोई शांत, सुखी और संतुलित जीवन की कामना करता है, तो वह है आत्म-संयम, नियमित साधना और नामजप की सरल, सहज लेकिन शक्तिशाली विधि।
Premanand Ji Maharaj (Image Credit-Social Media)
Premanand Ji Mahara: प्रेमानंद महाराज जी ने अपने नियमित प्रवचन की इस कड़ी में वर्तमान समय में लोगों में बढ़ रही मानसिक अस्थिरता, भय की भावना के साथ अनियमित जीवनशैली और आध्यात्मिक शून्यता जैसी स्थिति को लेकर प्रेरक विचार साझा किए। उनका यह संदेश न केवल साधकों के लिए, बल्कि सामान्य जीवन जीने वाले हर व्यक्ति के लिए प्रभावी साबित होता है। उन्होंने बताया कि आज की भागदौड़ भरी दुनिया में अगर कोई शांत, सुखी और संतुलित जीवन की कामना करता है, तो वह है आत्म-संयम, नियमित साधना और नामजप की सरल, सहज लेकिन शक्तिशाली विधि। प्रवचन में उन्होंने नींद, भोजन और वाणी पर नियंत्रण से लेकर मृत्यु के भय से मुक्ति और कर्म-भाग्य के संतुलन तक जीवन के कई पहलुओं को बड़े सहज लेकिन प्रभावशाली ढंग से उजागर किया। उनके दिए गए संदेश में आध्यात्मिकता के साथ ही व्यवहारिक जीवन को सरल बनाने के लिए भी उपाय शामिल थे।
कम नींद, कम बोलना और कम भोजन साधना की आधारभूमि
प्रेमानंद महाराज जी ने इस प्रवचन की शुरुआत में ही कहा कि साधना का मार्ग कठिन नहीं है, बस अनुशासन मांगता है। उन्होंने जीवन को शुद्ध और साधक अनुकूल बनाने के लिए तीन मुख्य सूत्र बताए। वो हैं - कम नींद, कम बोलना और कम भोजन। उनके अनुसार, कम नींद का अर्थ यह नहीं कि शरीर को थकाया जाए, बल्कि यह कि रात को जल्दी सोकर सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठने की आदत डाली जाए, जिससे मन शांत और ध्यान योग्य बनता है। कम बोलने से वाणी में ऊर्जा संचित होती है और फिजूल की चर्चाओं से दूर रहकर साधक भीतर की यात्रा की ओर बढ़ता है। वहीं, कम भोजन शरीर को हल्का बनाए रखता है, जिससे ध्यान, जप और योग में स्थिरता आती है।
शुद्ध आचरण से ही ईश्वर की साधना में जुड़ाव संभव
महाराज जी ने इस बात पर विशेष बल दिया कि अगर ईश्वर की साधना करनी है, तो आचरण को शुद्ध करना अनिवार्य है। नामजप और ध्यान तब तक प्रभावी नहीं हो सकते जब तक कि हमारा दैनिक व्यवहार ईमानदार, संयमित और सेवा भाव से प्रेरित न हो। उन्होंने उदाहरण देकर समझाया कि जो व्यक्ति बाहर से तो भक्त है लेकिन भीतर से छल, द्वेष, और कटुता से भरा है, उसकी साधना सतही रह जाती है। उन्होंने कहा कि साधना का वास्तविक प्रभाव तब दिखता है जब व्यक्ति का आचरण विनम्र, क्षमाशील और अहिंसक हो।
नामजप से आती है मानसिक स्थिरता और आंतरिक शक्ति
प्रवचन के दौरान प्रेमानंद महाराज जी ने ‘नामजप’ को साधना की सबसे सुगम और प्रभावशाली विधि बताया। उनके अनुसार, नामजप न केवल मन को एकाग्र करता है, बल्कि मन की व्यग्रता, चिंता, भय और अवसाद से भी राहत दिलाता है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि नामजप कोई कर्मकांड नहीं, बल्कि एक आंतरिक प्रयोग है। जिसे निरंतर अभ्यास से शक्ति मिलती है। उन्होंने कहा कि जब मन संसार की गति से थक जाता है, तब नाम ही वह शरण है जहां उसे शांति मिलती है।
मृत्यु का भय केवल अज्ञानता का परिणाम है
महाराज जी ने अपने प्रवचन में मृत्यु से जुड़े प्रश्नों पर भी बड़ी सरलता से प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि मृत्यु केवल शरीर की समाप्ति है, आत्मा तो शाश्वत है। उन्होंने समझाया कि मृत्यु से डरना वैसा ही है जैसे नींद से डरना। उन्होंने यह भी कहा कि जब साधक को यह ज्ञान हो जाता है कि वह आत्मा है, न कि शरीर, तब वह मृत्यु को भी सहज भाव से स्वीकार करता है। उन्होंने यह सलाह दी कि साधना का लक्ष्य केवल मोक्ष नहीं, बल्कि मृत्यु से पहले भी भयमुक्त जीवन जीना है।
लगाव ही दुःख का मूल कारण है, मोह का नाश आवश्यक है
महाराज जी ने इस प्रवचन में इस गूढ़ सत्य पर भी चर्चा की कि संसार में दुःख का मूल कारण ‘मोह’ है। यह मोह चाहे किसी व्यक्ति से हो, वस्तु से हो या विचार से। उन्होंने बताया कि जब हम किसी चीज को अपनी समझ बैठते हैं, तब उसका छिनना हमें आंतरिक स्तर पर तोड़ देता है। लेकिन जो साधक यह समझ लेता है कि संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है, उसके भीतर सहज ही वैराग्य उत्पन्न होता है, जिससे दुःख की संभावना क्षीण हो जाती है।
कर्म और भाग्य दोनों की भूमिका को समझने की जरूरत
प्रेमानंद महाराज जी ने कर्म और भाग्य की बहस को भी संतुलित दृष्टिकोण से देखा। उन्होंने कहा कि भाग्य जरूरी है, लेकिन उससे भी अधिक जरूरी है, 'कर्म'। भाग्य पूर्व जन्मों के कर्मों का फल है, लेकिन वर्तमान कर्म ही आगे का भाग्य बनाते हैं। उन्होंने उदाहरण दिया कि अगर कोई बीज न बोए और सिर्फ भगवान से फल मांगे, तो वह प्रकृति का अपमान करता है। इसलिए साधना के साथ जीवन में मेहनत, ईमानदारी और उद्देश्यपरक कर्म होना भी जरूरी है।
अपमान, विरोध या बुराई का उत्तर ‘ध्यान’ है, प्रतिक्रिया नहीं
प्रवचन में महाराज जी ने कहा कि जब कोई व्यक्ति आपको अपमानित करे, नीचा दिखाए या बुराई करे, तब उसकी प्रतिक्रिया में उलझने की बजाय एक बात याद रखनी चाहिए कि, वह आपके कर्मों का खाता बराबर कर रहा है। उन्होंने स्पष्ट किया कि जीवन में जो भी दुःख या कटु अनुभव आते हैं, वे केवल हमारे भीतर के अव्यवस्थित कर्मों का परिणाम हैं। ऐसे में शांत रहना, ध्यान करना और कृतज्ञता रखना ही आध्यात्मिक दृष्टिकोण है।
नियमित दिनचर्या से जीवन में आता है अनुशासन और सौम्यता
महाराज जी ने जीवन में नियमित दिनचर्या यानी ‘रूटीन’ की भूमिका पर भी बल दिया। उन्होंने बताया कि ब्रह्ममुहूर्त में उठना, सूर्योदय से पूर्व साधना, नियत समय पर भोजन और विश्राम ये सभी बातें साधना को ही नहीं, सामान्य जीवन को भी व्यवस्थित करती हैं। उन्होंने कहा कि शरीर, मन और ऊर्जा को एक संतुलित फ्रेम में लाने के लिए दिनचर्या का पालन आवश्यक है। एक नियमित और अनुशासित जीवन ही हमें उन ऊंचाइयों तक ले जा सकता है जहां आत्मिक उन्नति संभव होती है। प्रेमानंद महाराज जी का यह प्रवचन केवल एक धार्मिक संवाद नहीं बल्कि आज के मनुष्य के मानसिक, सामाजिक और आत्मिक संकटों का समाधान प्रस्तुत करने वाला, एक व्यावहारिक मार्गदर्शन करता है। इस प्रवचन में उन्होंने न तो केवल ईश्वर भक्ति की बात की, न ही केवल मोक्ष की बल्कि जीवन को जीने के सरल, अनुशासित और संयमित रास्ते को बताया, जो हर आयु वर्ग और हर परिस्थिति के व्यक्ति के लिए उपयोगी है।
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