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Tariffs Kya Hai: दुनिया की अर्थव्यवस्था को हिला देने वाला शब्द - टैरिफ! जानिए कैसे यह तय करता है देशों की आर्थिक दिशा
Tariffs Kya Hai: यह लेख विस्तार से बताएगा कि टैरिफ क्या होता है, इसके प्रकार, देशों द्वारा इसे क्यों लगाया जाता है, और यह विकसित एवं विकासशील वैश्विक अर्थव्यवस्था पर कैसे असर डालता है ।
What Is Tariff
What Is Tariff: जब भी दो देशों के बीच व्यापार होता है, तो केवल वस्तुओं और सेवाओं का ही आदान-प्रदान नहीं होता बल्कि एक रणनीतिक खेल भी खेला जाता है, जिसमें 'टैरिफ' यानी 'शुल्क' एक बेहद अहम हथियार बनकर उभरता है। टैरिफ उस कर को कहते हैं जो किसी देश की सरकार द्वारा आयातित वस्तुओं या सेवाओं पर लगाया जाता है। इसका उद्देश्य केवल राजस्व जुटाना नहीं बल्कि घरेलू उद्योगों को विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाना, व्यापार असंतुलन को संतुलित करना और रणनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति करना भी होता है।
लेकिन टैरिफ का प्रभाव केवल सीमित अर्थव्यवस्था तक नहीं सिमटा रहता । यह वैश्विक स्तर पर व्यापार प्रवाह, आपूर्ति श्रृंखला, कीमतों और यहां तक कि देशों के बीच रिश्तों को भी प्रभावित करता है। विशेष रूप से विकसित और विकासशील देशों के बीच टैरिफ नीति अक्सर विवाद, संरक्षणवाद और व्यापार युद्ध का कारण बनती है।
टैरिफ क्या है?
टैरिफ (Tariff) एक प्रकार का सीमा शुल्क होता है, जिसे किसी देश की सरकार द्वारा अंतरराष्ट्रीय व्यापार के तहत आयात (Import) या निर्यात (Export) की जाने वाली वस्तुओं पर लगाया जाता है। यह कर दो प्रमुख रूपों में होता है - इंपोर्ट टैरिफ और एक्सपोर्ट टैरिफ। इंपोर्ट टैरिफ तब लगाया जाता है जब कोई देश विदेशी वस्तुओं को अपने बाजार में प्रवेश की अनुमति देता है। लेकिन उन पर कर लगाकर घरेलू उद्योगों को सस्ती विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाने की कोशिश करता है। इससे स्थानीय उत्पादकों को बढ़ावा मिलता है और उपभोक्ताओं को घरेलू विकल्प अपनाने की प्रेरणा मिलती है। वहीं, एक्सपोर्ट टैरिफ तब लागू होता है जब कोई देश अपने उत्पादों के निर्यात पर कर लगाता है। जिससे वह अपने कच्चे संसाधनों की रक्षा कर सकता है या घरेलू बाजार में उनकी उपलब्धता बनाए रख सकता है। कुछ मामलों में, यह नीति राजस्व बढ़ाने या रणनीतिक उद्देश्यों को साधने के लिए भी अपनाई जाती है।
टैरिफ के प्रमुख प्रकार
एड वेलोरम टैरिफ (Ad Valorem Tariff) - एड वेलोरम टैरिफ वह शुल्क होता है जो किसी वस्तु की कुल कीमत के एक निश्चित प्रतिशत के रूप में लगाया जाता है। उदाहरण के लिए यदि किसी उत्पाद पर 10% का टैरिफ लागू है और उस उत्पाद की कीमत ₹1,000 है, तो ₹100 की दर से टैरिफ वसूला जाएगा। इस प्रकार का टैरिफ मूल्य-आधारित होता है और आमतौर पर कस्टम ड्यूटी या अन्य व्यापारिक करों में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। यह प्रणाली लचीली होती है क्योंकि जैसे-जैसे वस्तु की कीमत बढ़ती है, वैसे-वैसे टैरिफ की राशि भी स्वतः बढ़ जाती है।
स्पेसिफिक टैरिफ (Specific Tariff) - स्पेसिफिक टैरिफ एक निश्चित राशि पर आधारित होता है। जो किसी उत्पाद की मात्रा, वजन या यूनिट पर लगाई जाती है। उदाहरणस्वरूप यदि सरकार ₹100 प्रति किलो आयातित चावल पर शुल्क लगाती है, तो यह टैरिफ वस्तु के मूल्य की बजाय उसकी मात्रात्मक विशेषताओं पर निर्भर करेगा। इस प्रकार का टैरिफ कीमतों में उतार-चढ़ाव से प्रभावित नहीं होता, जिससे इसका प्रशासनिक प्रबंधन आसान होता है।
संयुक्त टैरिफ (Compound Tariff) - संयुक्त टैरिफ जिसे मिश्रित टैरिफ भी कहा जाता है, में एड वेलोरम और स्पेसिफिक दोनों प्रकार के शुल्क सम्मिलित होते हैं। इसमें किसी वस्तु पर एक निश्चित राशि के साथ-साथ मूल्य के आधार पर एक प्रतिशत शुल्क भी लगाया जाता है। यह टैरिफ प्रणाली अधिक जटिल परिस्थितियों में लागू की जाती है। जैसे उच्च मूल्य वाले उत्पादों या विशिष्ट बाजार स्थितियों में, जहां केवल एक प्रकार का शुल्क पर्याप्त नहीं होता।
टैरिफ लगाने के उद्देश्य
घरेलू उद्योगों की रक्षा - सस्ते विदेशी उत्पादों के कारण स्थानीय उद्योगों को नुकसान हो सकता है क्योंकि वे मूल्य प्रतिस्पर्धा में कमजोर पड़ सकते हैं। इसलिए टैरिफ लगाकर विदेशी उत्पादों की कीमत बढ़ा दी जाती है। जिससे घरेलू उद्योगों को प्रतिस्पर्धा करने का अवसर और सुरक्षा मिलती है। यह 'सुरक्षा कवच' का काम करता है।
राजस्व संग्रह - विकासशील देशों के लिए टैरिफ सरकार का एक महत्वपूर्ण राजस्व स्रोत होता है। इससे सरकार अपने विभिन्न कार्यक्रमों के लिए फंड जुटा पाती है।
राजनीतिक/राजनयिक उद्देश्य - टैरिफ का इस्तेमाल कभी-कभी देशों के बीच राजनीतिक या आर्थिक दबाव बनाने, दंड स्वरूप बिल लगाने या संबंध बिगाड़ने के लिए किया जाता है। यह ट्रेड वॉर या राजनयिक उपायों का हिस्सा हो सकता है।
स्वदेशी उत्पादन को प्रोत्साहन - जब विदेशी वस्तुएं टैरिफ के कारण महंगी हो जाती हैं, तो उपभोक्ता घरेलू उत्पादों को अधिक प्राथमिकता देते हैं। इससे देश के अपने उद्योगों को बढ़ावा मिलता है। जैसे कि ‘मेक इन इंडिया’ जैसे अभियान।
टैरिफ का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
वैश्विक व्यापार में गिरावट - जब विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं एक-दूसरे पर भारी टैरिफ लगाती हैं, तो उसका सीधा असर अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर पड़ता है। जैसे 2018 - 19 में अमेरिका और चीन के बीच हुआ टैरिफ युद्ध। जिसने न सिर्फ दोनों देशों के बीच व्यापार घटाया, बल्कि उनकी आपूर्ति श्रृंखला से जुड़े देशों भारत, वियतनाम, ऑस्ट्रेलिया आदि पर भी नकारात्मक प्रभाव डाला। ऐसे टैरिफ युद्ध वैश्विक व्यापार में अनिश्चितता पैदा करते हैं जिससे निवेश, उत्पादन और उपभोग में गिरावट आती है और आर्थिक मंदी की आशंका गहराने लगती है।
उपभोक्ताओं पर बोझ - टैरिफ लागू होने से आयातित वस्तुएं महंगी हो जाती हैं और इसका सीधा असर आम उपभोक्ताओं की जेब पर पड़ता है। महंगे उत्पादों के कारण उनकी क्रयशक्ति घटती है और विकल्प भी सीमित हो जाते हैं। उदाहरण के तौर पर, जब अमेरिका ने भारत पर 25% टैरिफ लगाया, तो भारतीय वस्त्र और आभूषण महंगे हो गए। जिससे वे अमेरिकी बाजार में प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाए। इससे वहां के उपभोक्ताओं को महंगे विकल्पों को अपनाना पड़ा।
उद्योगों पर प्रभाव - ऐसे उद्योग जो आयातित कच्चे माल पर निर्भर करते हैं, उनके लिए टैरिफ अतिरिक्त लागत का कारण बनता है। इससे उत्पादन महंगा हो जाता है और उनकी वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता कमजोर पड़ जाती है। नतीजतन, न केवल उनका निर्यात प्रभावित होता है बल्कि घरेलू बाजार में भी लागत बढ़ने से मांग में गिरावट आ सकती है। जिससे आर्थिक गतिशीलता को नुकसान होता है।
निवेश में अस्थिरता - टैरिफ नीतियों में बार-बार बदलाव या अत्यधिक शुल्क लागू करना निवेशकों में असमंजस की स्थिति पैदा करता है। जब सरकार की व्यापार नीति स्थिर नहीं होती, तो विदेशी निवेशक अनिच्छुक हो जाते हैं। जिससे नई पूंजी का प्रवाह रुक जाता है और दीर्घकालिक विकास बाधित होता है।
वैश्विक आर्थिक मंदी का खतरा - यदि विभिन्न देश संरक्षणवादी रवैया अपनाकर टैरिफ पर आधारित नीतियां लागू करने लगते हैं, तो इसका व्यापक असर वैश्विक मांग पर पड़ता है। उत्पादन में गिरावट, नौकरी में कटौती और व्यापार में ठहराव जैसी स्थितियां सामने आती हैं, जो अंततः पूरी दुनिया को आर्थिक मंदी की ओर धकेल सकती हैं। यह स्थिति वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिरता के लिए अत्यंत चिंताजनक होती है।
विकसित बनाम विकासशील देशों पर प्रभाव
विकसित देशों पर प्रभाव - विकसित देश टैरिफ का उपयोग केवल आर्थिक सुरक्षा के लिए ही नहीं, बल्कि इसे एक रणनीतिक हथियार के रूप में भी करते हैं। वे अक्सर टैरिफ के माध्यम से अपने घरेलू उद्योगों को विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाते हैं और साथ ही अन्य देशों पर राजनीतिक या कूटनीतिक दबाव बनाने की कोशिश करते हैं। कई बार ये देश टैरिफ नीतियों को इस प्रकार लागू करते हैं कि सामने वाला देश उनकी शर्तों को मानने के लिए मजबूर हो जाए। इसके अलावा, विकसित राष्ट्र WTO (विश्व व्यापार संगठन) जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों की नीतियों और नियमों को प्रभावित करने की भी कोशिश करते हैं, ताकि वे अपने आर्थिक हितों को प्राथमिकता दे सकें। इस तरह टैरिफ उनके लिए वैश्विक व्यापार और राजनीति दोनों में प्रभावशाली भूमिका निभाने का एक माध्यम बन जाता है।
विकासशील देशों पर प्रभाव - विकासशील देशों के लिए टैरिफ न केवल व्यापारिक साधन होते हैं, बल्कि राजस्व जुटाने का एक अहम जरिया भी होते हैं। सीमित कर व्यवस्था और आंतरिक संसाधनों की कमी के कारण ये देश आयात पर टैरिफ लगाकर अपने बजट के लिए जरूरी वित्तीय संसाधन जुटाते हैं। हालांकि, जब विकसित देश उनके निर्यातित उत्पादों पर उच्च टैरिफ लगाते हैं, तो इससे उनके उत्पादों की अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा कम हो जाती है। इसका सीधा असर निर्यात पर पड़ता है। जिससे रोजगार के अवसर घटते हैं, विदेशी मुद्रा की आमद में कमी आती है और आर्थिक विकास की गति धीमी हो जाती है। इस प्रकार, वैश्विक टैरिफ नीतियों का असंतुलन विकासशील देशों के लिए गंभीर आर्थिक चुनौतियाँ उत्पन्न करता है।
WTO और टैरिफ नियंत्रण
विश्व व्यापार संगठन (WTO) का मुख्य उद्देश्य वैश्विक व्यापार को सुचारू, निष्पक्ष और पारदर्शी बनाना है ताकि सभी सदस्य देशों के बीच समान नियमों के तहत व्यापार हो सके और आर्थिक विकास को गति मिल सके। WTO विशेष रूप से टैरिफ से जुड़ी बाधाओं को कम करने की दिशा में काम करता है। यह सदस्य देशों को अत्यधिक आयात शुल्क लगाने से रोकता है और उन्हें टैरिफ व गैर-टैरिफ अवरोधों को घटाने के लिए प्रोत्साहित करता है, ताकि मुक्त व्यापार को बढ़ावा मिले। इसके तहत GATT जैसे समझौतों के जरिए टैरिफ की अधिकतम सीमा तय की जाती है, जिसे 'बाउंड टैरिफ' कहा जाता है । यानी कोई देश तय सीमा से अधिक शुल्क नहीं लगा सकता। साथ ही WTO की 'नॉन-डिस्क्रिमिनेशन' नीति, विशेष रूप से 'मोस्ट फेवर्ड नेशन' (MFN) नियम यह सुनिश्चित करता है कि कोई देश किसी एक को विशेष लाभ न देकर सभी सदस्य देशों को समान अवसर प्रदान करे। यदि दो देशों के बीच व्यापारिक विवाद उत्पन्न होता है, तो WTO की प्रभावी 'विवाद समाधान प्रणाली' (Dispute Settlement Mechanism) उनके बीच कानूनी और शांतिपूर्ण समाधान का मार्ग प्रशस्त करती है। इस तरह WTO वैश्विक व्यापार में स्थिरता और निष्पक्षता बनाए रखने में अहम भूमिका निभाता है।
भारत की टैरिफ नीति
भारत में 1991 के आर्थिक उदारीकरण के बाद टैरिफ नीतियों में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिला है। उस दौर के बाद भारत ने वैश्विक व्यापार के प्रति अपने दरवाज़े खोले और औसत टैरिफ दरों में क्रमिक गिरावट की। वर्ष 2023 में गैर-कृषि वस्तुओं पर औसत टैरिफ 13.5% और कृषि उत्पादों पर 39% रहा, जबकि औसत लागू टैरिफ अब भी लगभग 17% है जो अमेरिका और यूरोप जैसे विकसित देशों से अधिक है। भारत ने कृषि क्षेत्र में उच्च टैरिफ बनाए रखे हैं ताकि किसानों और खाद्य सुरक्षा की रक्षा की जा सके। अनाज, चावल, चीनी और दलहन जैसे उत्पाद अब भी ऊंचे शुल्क के दायरे में हैं, जिससे विदेशी सस्ती वस्तुएं भारतीय बाजार में प्रवेश न कर सकें। इसी तरह 'मेक इन इंडिया' पहल के तहत इलेक्ट्रॉनिक्स और ऑटोमोबाइल सेक्टरों में आयात शुल्क को बनाए रखा गया है या चरणबद्ध तरीके से घटाया जा रहा है। ताकि घरेलू उत्पादन, निवेश और वैल्यू एडिशन को प्रोत्साहन मिल सके। साथ ही भारत ने यूके, जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देशों के साथ कई फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स (FTA) किए हैं । जिनके अंतर्गत सैकड़ों उत्पादों पर टैरिफ में या तो पूरी छूट दी गई है या उसे धीरे-धीरे समाप्त किया जा रहा है। हालांकि, इन समझौतों में भारत ने अपने संवेदनशील क्षेत्रों जैसे कृषि, डेयरी और कुछ मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को विशेष संरक्षण देने का विकल्प अपनाया है। ताकि घरेलू उद्योगों को प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार होने का पर्याप्त समय मिल सके।
टैरिफ के नुकसान
टैरिफ के कारण उपभोक्ताओं को महंगे उत्पाद खरीदने पड़ते हैं, जिससे उनका आर्थिक बोझ बढ़ता है और विकल्प सीमित हो जाते हैं। विदेशी प्रतिस्पर्धा घटने से घरेलू उद्योगों में नवाचार की रफ्तार धीमी हो जाती है। साथ ही, जब बड़ी अर्थव्यवस्थाएं टैरिफ बढ़ाती हैं तो वैश्विक व्यापार और आपूर्ति श्रृंखला प्रभावित होती है। इससे निवेशकों में अस्थिरता का डर बढ़ता है और विदेशी निवेश घटने से आर्थिक विकास पर नकारात्मक असर पड़ता है।
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