“प्रेम, संभावना और बोध, योगेश मिश्र की कविताएँ”

Yogesh Mishra Poems: यह कविता प्रकृति, शब्द और जीवन के शाश्वत सत्य को उद्घाटित करती है, जहाँ शब्द ब्रह्म की तरह चिरंतन और जीवंत रहते हैं।

Yogesh Mishra
Published on: 13 Sept 2025 7:04 PM IST
Yogesh Mishra Poem
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 Yogesh Mishra Poem (Image Credit-Social Media)

बूढ़ा नहीं होता प्रेम

प्रेम क्यों नहीं होता बूढ़ा,

क्यों नहीं पड़ता पुराना

क्यों नहीं खोता अर्थ

होता नहीं व्यर्थ ।

क्योंकि स्पंदित होते जीवन में

वह भर देता है अर्थ,

बदल देता है रिश्तों की जमीन।

इसमें होती है

अनुगूंज की अनुभूति,

इसमें बसते हैं अति प्रश्नों के दोहराते आख्यान

रचती-बसती हैं

सम्मोहक, यथार्थ व सार्थक छवियां।

सीमित उपस्थिति पाती विस्तार

व्यथा पूरित, निरी हर्षित अनुभूति।

इसमें होती हैं परिदृश्य की तरह

उभरती-मिटती अनुभूतियां।

अनवरत और अथक चलती यात्रा

ठंडी हवा के झोंकों की तरह

सरोबार करती खामोशी में सुलगती यादों

की मानिन्द हमेशा प्रदीप्त-उदीप्त

रहती आशाएं।

इसमें सुने जा सकते हैं

सात समन्दर पार से आते शब्द

इसमें महसूस की जा सकती है

बरसों पुरानी यादों की बुनावट।

इसमें समाई होती हैं खूबियां-खामियां

जो बुनियादी जरूरतें होती हैं।

इसमें होती है महुए की मादकता

चांद की सुन्दरता

चकोर की चाहत

सुरखाब का पर

खजूर की मिठास

सूरज की तपिस

और चैत की सरसराती पुरवा बयार।

इसमें हमेशा रहता है बसन्त

फिर भी होती है घनीभूत पीड़ा

प्रेम की कविता में होती है कथा

प्रेम की कथा में गुंथ जाती है कविता।

शब्द खो जाते हैं, अर्थ मौन हो जाते हैं

जब-जब यादों में प्रेम होता है

आस-पास उसके होने से

भर जाता है धरती-आकाश ।

क्योंकि प्रेम शब्द नहीं, अर्थ नहीं,

देह नहीं, काया नहीं,

माया नहीं, आत्मा नहीं,

अंतरात्मा-परमात्मा नहीं,

इन सबसे ऊपर और इतर कुछ और है।

जिसमें रचा बसा होता है

जीवन के क्षीण होते जा रहे

विकल्पों का जीवंत दस्तावेज ।

इसलिए प्रेम बूढ़ा नहीं होता

पर प्रेम मरता जरूर है।

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सम्भावना या अंत


मई की लम्बी बारिशें

तीतरपंखी बादलों

सहित नहाये वृक्ष,

छतें, घास-पात सुरमयी आंखों में

स्वप्निल मुस्कान,

शान्त हवा

छत पर शोर करती

दूधिया चांदनी,

पलाश की ठिठक

फिर तुम्हारे आगमन

की सम्भावना

या चले जाने का अंत।

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बोध

उन्हें चांद की नहीं है तमन्ना

वे इस धरती से खुश हैं

जिस पर खड़े हैं पहाड़

बह रही हैं नदियां

उगे हैं पेड़, झाड़-झंखाड़ ।

जिसके गर्भ में है

अपार भंडार

क्योंकि इनसे होती है

जीवन के रागात्मक यथार्थ की

सफल अभिव्यक्ति ।

क्योंकि ये सुनाती हैं अपने दिए-जिए

कि दुखभरी आपबीती

ये हमारे सुख में, हमारे साथ

नाचती हैं, मंगल गाती हैं।

ये हमारे दुःख में भी

दुःख के साथ खड़ी होती हैं

इनमें नहीं होती है दो-टूक अभिव्यक्ति ।

यह एक कविता होती है

एक उपन्यास बुनती है

शब्द होते हैं शाश्वत ।

शब्द ब्रह्म होते हैं

इसीलिए शब्द की तरह

इनका भी होना चाहिए बोध

ये मरते नहीं, चिरन्तन चलते रहते हैं

अंतरात्मा की तरह।

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