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Opinion: आकाश में तैरती स्त्रियां
Women Relationships: धैर्य उस बांध के समान होता है जो शिलाखंड की भांति कभी टूटने का नाम नहीं लेता।
Aakash Mein Tairti Striyan (Image Credit-Social Media)
Women Relationships: हम सब ने 'क्योंकि सास भी कहीं कभी बहू थी' का यह टाइटल सॉन्ग सुना होगा,--- 'रिश्तो के भी रूप बदलते हैं, नए-नए सांचे में ढलते हैं, एक पीढ़ी आती है, एक पीढ़ी जाती है, बन के कहानी नई, क्योंकि सास भी कभी बहू थी' और हम उसमें बहुत सारे बदलाव कर सकते हैं, अपने किसी भी रिश्ते को उसके साथ जोड़कर। पहले जहां रिश्तों में प्यार और सम्मान सबसे ज्यादा महत्व रखता था, अब उसके साथ-साथ ईमानदारी और पारदर्शिता भी रिश्तों में उतना ही अहम रोल निभाते हैं। पहले एक दूसरे के प्रति प्यार और अपने से बड़ों के प्रति सम्मान की भावना किसी भी परिवार को, किसी भी रिश्ते को जोड़कर रखने के लिए आवश्यक अंग हुआ करते थे, क्योंकि अगर दो संबंधों के बीच में आपस में कोई सम्मान की भावना नहीं है, कोई प्यार की भावना नहीं है तो वह रिश्ता बहुत अधिक दिनों तक नहीं टिक पाता था। हालांकि उस समय की महिलाओं में पता नहीं कौन सी सहनशक्ति हुआ करती थी कि सम्मान ना मिलने पर भी वे अपने घर से ही प्यार कर लेती थी और उसी घर में जिसमें उसे सम्मान नहीं मिलता था या प्यार नहीं मिलता था उसे ही अंतिम समय तक अपना मन से सजाती- सवांरती रहती थीं। वे लगभग एकतरफा रिश्ता होने के बावजूद भी लंबे समय तक निभ जाता था क्योंकि महिलाओं को अपने अंदर की ऊर्जा, अपने अंदर की शक्ति, अपने अस्तित्व का कोई एहसास नहीं था और अगर एहसास था भी तो भी वह उसे अपने से बाहर नहीं निकाल पातीं थीं। पर आज जब जेन-जी शादी-विवाह की या किसी भी रिश्ते को जोड़ने की बात करती है तो वे अपने जीवनसाथी या अपने संबंध में सामने वाले से भी यह उम्मीद करती हैं कि वह उसको पूरा सम्मान दे, उसके साथ में प्यार की भावना रखे और साथ ही दोनों के रिश्तों में ईमानदारी और पारदर्शिता तो बहुत अधिक आवश्यक है।
आजकल एक बात बहुत ज्यादा सुनने में आती है कि आजकल की लड़कियां ऐसी हो गई हैं, आजकल की लड़कियां वैसी हो गई हैं, आजकल की लड़कियों के साथ तो संबंध बनाकर रखना भी बहुत मुश्किल है। कारण कि पहले जबकि शिक्षा नहीं थी, वे अपने अधिकार नहीं जानती थी, वे अपने कर्तव्यों को घोट कर पीकर आती थी क्योंकि एक मां अपने बेटी को बचपन से ही सीख देने लग जाती थी कि तुम्हें तो पराए घर जाना है और तुम्हें वहां पर अपना मुंह बंद रखना है। शिक्षा बढ़ती गई तब महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति जागरूक तो होने लगीं थीं पर फिर भी आवाज नहीं उठाती थीं। वह सोचती थीं कि क्या मिलेगा उन्हें प्रतिकार करके, इस तरह से वे अपने संबंधों में और बिगाड़ कर लेंगी। वे सब कुछ समझने तो लगीं थीं पर उनका विद्रोहीपन कुछ-कुछ पितृसत्ता की नींव को चुनौती देने लगा था। पढ़ी-लिखी होने के बावजूद भी उन्होंने घर-परिवार के साथ इस तरह का सामंजस्य बिठाया कि अपने परिवार को कुशलतापूर्वक निभा लिया। और न केवल निभाया बल्कि अपने विद्रोही तेवरों को भी अगली पीढ़ी को संस्कारों के रूप में दिया। पर उनके सामंजस्य को कितने लोग समझ पाए, कितने लोगों ने उसे सम्मान दिया और कितने लोगों ने उसे सहयोग दिया।
पर आज की लड़कियों को पुरानी पीढ़ी कुछ अधिक एडवांस मानती है क्योंकि आजकल की लड़कियां स्वयं ही अपने लिए प्रश्न कर लेती हैं। वे सीधे-सीधे अपने संबंधों में पैसों और परिवार को लेकर ईमानदार और पारदर्शिता की उम्मीद रखतीं हैं। वे दोनों ही हर निर्णय में अपनी समान भागीदारी चाहते हैं। बहुत लंबे समय तक के धैर्य के बाद इसने अपने लिए कुछ हासिल किया है, जिसको हो सकता है वह अभी संभालना नहीं जान रही हो पर समय के साथ वह सीख जाएगी। इसलिए बजाए इस बहस के कि महिलाओं के कारण आज समाज या परिवार की यह स्थिति हो गई है, हमें स्वयं के गिरेबान में भी झांक कर देखना होगा। रिश्ते आज भी वहीं हैं, और उस तरह के हो सकते हैं बस निभाने के तौर-तरीकों के साथ-साथ उसके परिवर्तित स्वरूप को समझने की आवश्यकता है। आखिर कर्तव्यों के निर्वहन में अधिकार का यह प्रश्न अब तक अनुत्तरित ही रहा है। अंत में भगवती प्रसाद वाजपेयी के उपन्यास 'अधिकार का प्रश्न' से यह अंश धैर्य को अधिक बेहतरीन तरीके से प्रस्तुत करता है -"धैर्य उस बांध के समान होता है जो शिलाखंड की भांति कभी टूटने का नाम नहीं लेता। किंतु प्रकृति की लीला ही कुछ ऐसी है कि पहाड़ों के, पत्थरों के टुकड़े आपस में टकराते-गिरते पड़ते, पर्वत श्रेणियां उतरते ,आगे बढ़ते हुए गंगा की धारा में आकर रेणु के कण बन जाते हैं। बड़े से बड़े वृक्षों के निकट जब किसी सरिता का तोड़ आ जाता है तब वही वृक्ष कगार टूटने के साथ-साथ प्रवाह में समा जाते हैं। धारा के वेग में पड़कर उनकी संगति भी तिनकों की जाति से जा मिलती है।"
( लेखिका प्रख्यात स्तंभकार हैं।)
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