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Ganga and Indian Politics: गंगा और भारतीय राजनीति: श्रद्धा से सत्ता तक का सफर
Ganga and Indian Politics: जानिए क्या है गंगा और राजनीति का सच और श्रद्धा से सत्ता तक का उसका सफर।
Ganga and Indian Politics (Image Credit-Social Media)
Ganga and Indian Politics:
“जो राजनीति गंगा की गोद में जन्म ले,
वह पवित्रता और सत्ता दोनों की दावेदार बन जाती है।
पर जब गंगा को राजनीति की सीढ़ी बना दिया जाए,
तो आस्था बह जाती है — और बचता है सिर्फ वादा।”
प्रस्तावना: गंगा, जहाँ राजनीति स्नान करती है
भारत में गंगा केवल नदी नहीं, सत्ता के लिए एक प्रतीक है।
काशी, प्रयाग, हरिद्वार, पटना — ये केवल शहर नहीं, चुनावी विमर्श के केंद्र हैं।
गंगा का ज़िक्र जब भी चुनावी मंचों से होता है, उसमें भक्ति और रणनीति, दोनों शामिल होती हैं।
गंगा किनारे आस्था बसती है — और राजनीति ने इस आस्था को बार-बार ‘वोट-बैंक’ में बदला है।
कभी राम की पैड़ी पर, कभी नमामि गंगे के मंच से, कभी माँ गंगा को ‘क्लीन इंडिया मिशन’ की आइकॉन बनाकर,
हर सत्ता ने गंगा को अपनी राजनीति में शामिल किया है — पर गंगा की पीड़ा को कभी एजेंडा नहीं बनाया।
गंगा: जहां जनसभाएं धारा के साथ बहती हैं
2014 के चुनावों में नरेंद्र मोदी जब वाराणसी से उम्मीदवार बने, तो उन्होंने कहा:
“मैं यहाँ आया नहीं हूँ, मुझे माँ गंगा ने बुलाया है।”
इस एक वाक्य ने गंगा को चुनावी प्रतीक बना दिया।
गंगा अब मंच हो गई — हर आरती, हर घाट, हर कुंभ मंच से घोषणाओं का स्थल बन गया।
2019 में भी नमामि गंगे मिशन को ‘विकास और स्वच्छता’ का चेहरा बनाया गया।
2024 में राम मंदिर के साथ फिर गंगा का महात्म्य उभारा गया —
लेकिन क्या इन चुनावी घोषणाओं से गंगा निर्मल हो गई?
गंगा एक्शन प्लान: वोट की नदी, वोट का बजट
1986 में राजीव गांधी सरकार ने गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत की।
घोषणाएं हुईं, बजट आया — और वही ढर्रा:
• नीति बनी, पर निगरानी नहीं
• बजट आया, पर नदी गंदी रही
• घोटाले हुए, पर गंगा साफ नहीं हुई
2014 के बाद ‘नमामि गंगे मिशन’ ने ₹20,000 करोड़ से अधिक बजट स्वीकृत किया।
2023 तक कुल 406 परियोजनाएं शुरू की गईं — लेकिन उनमें से केवल 48% ही पूरी हुईं।
राज्यों के बीच समन्वय की कमी, नौकरशाही की सुस्ती, और तकनीकी नाकामी — सबने मिलकर गंगा को योजनाओं की कब्रगाह बना दिया।
गंगा के नाम पर घोषणाएं, योजनाएं, लेकिन परिणाम?
• 2015 में हरिद्वार-इलाहाबाद के बीच क्रूज़ चलाने की योजना बनी
• 2016 में जलमार्ग विकास के नाम पर सैकड़ों करोड़ स्वीकृत हुए
• हर कुंभ के दौरान घाटों के सौंदर्यीकरण पर हजारों करोड़ खर्च हुए
लेकिन गंगा का जल स्नान योग्य नहीं हो पाया।
राजनेता आते हैं, आरती करते हैं, वादे करते हैं, फिर लौट जाते हैं —
गंगा वहीं रह जाती है,
अपने आँचल में बजबजाता मल, अपशिष्ट और टूटे हुए वादों की गंध समेटे।
विपक्ष और गंगा: आरोप, पर समाधान नहीं
गंगा पर सत्ता पक्ष पर हमला करना विपक्ष का प्रिय विषय है।
कांग्रेस, सपा, बसपा, तृणमूल — सभी ने सत्ता में रहते हुए गंगा के नाम पर योजनाएं चलाईं,
लेकिन कोई स्थायी नीति या राष्ट्रीय सहमति नहीं बना सके।
गंगा को ‘राष्ट्रीय नदी’ तो घोषित किया गया,
पर क्या गंगा को ‘राष्ट्रीय प्राथमिकता’ का दर्जा कभी मिला?
नहीं।
विपक्षी दलों ने गंगा पर असफलता को भुनाया,
लेकिन सत्ता में रहकर कोई वैकल्पिक मॉडल नहीं पेश किया।
गंगा और हिंदुत्व की राजनीति
गंगा, गीता और गाय — ये त्रयी हिंदुत्व की राजनीति में प्रतीक बन चुकी है।
विशेषकर उत्तर भारत में चुनावों से पहले गंगा तट की यात्राएं,
अखाड़ों का समर्थन, संतों के संवाद,
और गंगा के नाम पर धर्म–राजनीति का गठबंधन प्रकट हो जाता है।
गंगा को धर्म का पुल बनाकर
राजनीति ने वोट की नाव को पार लगाने की कोशिश की है।
यह एक तरफ सांस्कृतिक पुनरुत्थान है,
पर दूसरी ओर — गंगा को श्रद्धा से सत्ता तक की सीढ़ी बना देना
उसकी आत्मा को विस्थापित करने जैसा है।
कुंभ और राजनीति: आस्था का चुनावी उपयोग
कुंभ मेला गंगा की गोद में आस्था का सबसे बड़ा उत्सव है।
लेकिन अब वह उत्सव भी राजनीतिक इवेंट में बदल गया है।
• टेंडर, प्रचार, हेलीकॉप्टर शोवर, भगवा और घोषणाएं
• राजनेताओं की ‘धार्मिक यत्राएं’ और प्रेस कॉन्फ्रेंस
• काशी विश्वनाथ कॉरिडोर और घाट पुनर्विकास योजनाएं
गंगा अब धर्म की प्रतीक नहीं,
बल्कि ब्रांडिंग की संपत्ति बन चुकी है।
क्या कभी गंगा चुनावी मुद्दा बन पाई?
हर चुनाव में घोषणाएं होती हैं:
• “गंगा को साफ करेंगे”
• “नदी जोड़ो योजना लाएंगे”
• “नमामि गंगे को तेज करेंगे”
पर क्या कभी यह पूछा गया:
• “गंगा अब तक साफ क्यों नहीं हुई?”
• “प्लांट क्यों नहीं चल रहे?”
• “गंगा किनारे के शहरों की सीवरेज योजना क्यों अधूरी है?”
जनता भी भावनात्मक हो जाती है —
गंगा की पीड़ा पर आँसू नहीं बहते,
उसके घाटों पर फोटो खिंचवाकर वोट दिया जाता है।
गंगा को राजनीति से मुक्ति चाहिए या नेतृत्व से जवाबदेही?
गंगा अब एक प्रश्न बन चुकी है —
केवल धार्मिक नहीं, राजनीतिक भी।
लेकिन हमें यह निर्णय लेना होगा कि:
• क्या हम उसे केवल एक वोट हथियाने वाला प्रतीक मानते हैं?
• या फिर उसे संविधान के मौलिक कर्तव्य के तहत संरक्षित धरोहर बनाकर देखना चाहते हैं?
उपसंहार: सत्ता की सीढ़ी नहीं, सभ्यता की धारा है गंगा
गंगा का अपमान तब होता है जब वह केवल आरती और स्लोगन तक सीमित हो जाती है।
नेता बदलते हैं, पार्टियाँ बदलती हैं —
पर गंगा वहीं बहती है —
सत्ताओं को धोती,
वादों की मैल उठाती,
और पीढ़ियों से हमारी सभ्यता को सींचती।
अब समय आ गया है कि गंगा को
सिर्फ राजनीति का विषय नहीं,
राष्ट्र-नीति का केंद्रबिंदु बनाया जाए।
(यह अध्याय “गंगा संवाद” पुस्तक का चौथा अध्याय है। अगले अध्याय में: गंगा से जुड़े आंदोलन और संन्यास: जब सन्नाटा चीखता है)
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