हसरत मोहानी: एक शायर, सिपाही और सियासतदां

हसरत मोहानी की शख़्सियत कई पहलुओं से रौशन थी - वो एक आला दर्जे के शायर थे।

Shyamali Tripathi
Published on: 28 Aug 2025 12:14 PM IST
Hasrat Mohani
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Hasrat Mohani (Image Credit-Social Media)

हसरत मोहानी (1875-1951), जिनका असली नाम सैय्यद फ़ज़ल-उल-हसन था, भारतीय उपमहाद्वीप की उन महान शख्सियतों में से एक हैं, जिन्होंने शायरी, सियासत और पत्रकारिता के मैदान में अपनी अमिट छाप छोड़ी। उनका जीवन एक ऐसे संघर्ष की दास्तान है, जो ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ न सिर्फ़ क्रांतिकारी विचारों को हवा देता है, बल्कि उर्दू शायरी को एक नया आयाम भी प्रदान करता है। हसरत मोहानी की शख़्सियत कई पहलुओं से रौशन थी - वो एक आला दर्जे के शायर थे, एक निडर पत्रकार थे, एक सच्चे राष्ट्रवादी थे और एक ऐसे नेता थे जिन्होंने कभी भी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया।

इंक़लाब की आग और शायरी का चिराग़

हसरत मोहानी का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के मोहान कस्बे में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मोहान में ही हुई, जिसके बाद उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से फ़ारसी और अंग्रेज़ी की पढ़ाई की। यहीं से उनके अंदर इंक़लाबी जज़्बा पैदा हुआ। वो ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ़ खुलकर लिखते थे। इसी दौरान, उन्होंने 'उर्दू-ए-मुअल्ला' नामक एक पत्रिका निकाली, जिसमें उनके लेख और कविताएं ब्रिटिश सरकार की नीतियों की आलोचना करती थीं। यह पत्रिका जल्द ही इंक़लाबी विचारों का एक मज़बूत मंच बन गई।


हसरत मोहानी की शायरी में इश्क़ और इंक़लाब का अनोखा संगम देखने को मिलता है। वो अपनी ग़ज़लों में जहाँ एक तरफ़ दर्द-ए-इश्क़ और जुदाई का ज़िक्र करते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ वतन से मोहब्बत और आज़ादी के लिए बेताबी भी साफ़ झलकती है। उनकी प्रसिद्ध ग़ज़ल "चुपके-चुपके रात-दिन आँसू बहाना याद है" को आज भी ग़म-ए-इश्क़ की बेहतरीन मिसाल माना जाता है।

इस ग़ज़ल के कुछ शेर इस तरह हैं:

"चुपके-चुपके रात-दिन आँसू बहाना याद है,

हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है।"

"बा-हज़ार-आँसू, जो निकले चश्म-ए-गिर्या-बार से,

याद है मुझ को अभी, तेरी नज़र-ए-ख़ुश्क-ए-तर।"

यह ग़ज़ल बताती है कि हसरत मोहानी इश्क़ की बारीक से बारीक अहसासों को भी बखूबी समझते थे।

पत्रकारिता और सियासत: एक बेबाक आवाज़

हसरत मोहानी ने अपनी पत्रिका 'उर्दू-ए-मुअल्ला' के ज़रिए ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की। उन्होंने 'तिलक-स्वराज फ़ंड' और 'स्वदेशी आंदोलन' का पुरज़ोर समर्थन किया। उनके लेख इतने धारदार होते थे कि उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। जेल की सख़्तियां भी उनके हौसलों को तोड़ नहीं पाईं। उनका मानना था कि आज़ादी सिर्फ़ राजनीतिक नहीं, बल्कि आर्थिक आज़ादी भी होनी चाहिए।

1921 में अहमदाबाद में हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने 'पूर्ण स्वराज' का प्रस्ताव पेश किया था। यह प्रस्ताव महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से अलग था। गांधी जी ने इसका विरोध किया और कहा कि अभी भारत पूर्ण स्वराज के लिए तैयार नहीं है, जबकि हसरत मोहानी का मानना था कि आज़ादी किसी भी हालत में मिलनी चाहिए, भले ही इसके लिए कैसा भी संघर्ष करना पड़े। यह एक ऐतिहासिक क्षण था, जिसने आज़ादी की लड़ाई में एक नए अध्याय को जन्म दिया।

हसरत मोहानी एक ऐसे राजनेता थे जो सादगी को पसंद करते थे। वो हमेशा खादी के कपड़े पहनते थे। आज़ादी के बाद वो संविधान सभा के सदस्य बने, लेकिन उन्होंने संविधान पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया क्योंकि वो भारत के विभाजन से ख़ुश नहीं थे और एक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी राष्ट्र चाहते थे। उनका मानना था कि आज़ादी तो मिली, लेकिन वो आज़ादी नहीं मिली जिसके लिए उन्होंने अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया था।

साहित्य और धर्म का सम्मान


हसरत मोहानी ने अपनी रचनाओं में फ़ारसी, अरबी और हिंदी के शब्दों का खूबसूरती से इस्तेमाल किया। उनकी शायरी में क्लासिकल अंदाज़ के साथ-साथ एक नई सोच भी झलकती है। उन्होंने कृष्ण भक्ति पर भी कई बेहतरीन शेर और नज़्में लिखी हैं। कृष्ण से उनकी मोहब्बत सिर्फ़ एक शायर की तरह नहीं थी, बल्कि वो उन्हें एक सच्चा आशिक़ और भक्त मानते थे।

उनकी एक ग़ज़ल का शेर देखिए:

"दिल की तसकीन के लिए, ख़त-ए-इश्क़ की ज़रूरत है,

या खुदा, अब मुझे वो दर्द-ए-दिल-ए-मुस्तक़ील दे।"

यह शेर उनकी धार्मिक सहिष्णुता और मोहब्बत की गहराई को दर्शाता है।

हसरत मोहानी ने शायरी में 'तक़ी' (छद्म नाम) का भी इस्तेमाल किया, जिसे उन्होंने अपनी शायरी के ख़ास अंदाज़ को पेश करने के लिए चुना। उनकी रचनाओं में, खासकर ग़ज़लों में, दर्द, जुदाई, उम्मीद और मोहब्बत के रंग अलग-अलग तरीक़ों से उभरकर आते हैं।

हसरत मोहानी की विरासत

हसरत मोहानी का निधन 1951 में हुआ। वो अपने पीछे सिर्फ़ एक शायर, एक लेखक और एक राजनेता की विरासत नहीं छोड़ गए, बल्कि एक ऐसे इंसान की विरासत छोड़ गए, जिसने अपने आदर्शों और उसूलों के साथ कभी समझौता नहीं किया। वो एक ऐसे सिपाही थे, जिन्होंने अपनी कलम और अपनी ज़ुबान से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ जंग लड़ी।

उनकी शायरी आज भी लाखों दिलों में बसती है और उनके इंक़लाबी ख़यालात नौजवानों को आज भी प्रेरणा देते हैं। हसरत मोहानी एक ऐसा नाम हैं, जो हिंदुस्तान की आज़ादी की तारीख़ में हमेशा चमकता रहेगा। वो सच में एक 'शायर-ए-इंक़लाब' और 'अमीर-ए-करवाँ' थे, जिन्होंने आज़ादी की राह पर अकेले ही चलने का हौसला दिखाया। उनका जीवन और उनकी रचनाएं हमें यह सिखाती हैं कि सच्ची आज़ादी सिर्फ़ हुकूमत की नहीं, बल्कि अपने ख़यालात और अपनी रूह की आज़ादी होती है।

"हसरत मोहानी, वो जो कभी झुका नहीं,

इश्क़-ए-इंक़लाब में, वो कभी रुका नहीं।"

यह शेर उनकी पूरी ज़िंदगी का सार पेश करता है। हसरत मोहानी ने अपनी पूरी ज़िंदगी एक आदर्शवादी के रूप में बिताई। आज के दौर में, जब सियासी फायदे और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं हावी हैं, हसरत मोहानी का जीवन हमें एक सच्ची राह दिखाता है। वो एक महान शायर थे, एक सच्चे देशभक्त थे और एक ऐसे इंक़लाबी थे, जिनकी आवाज़ आज भी गूंजती है।

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