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Lokmanya Bal Gangadhar Tilak: लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, स्वराज्य के अग्रदूत जिन्होंने भारत की आत्मा को जगाया
Lokmanya Bal Gangadhar Tilak Life Story: लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को जन-जन तक पहुँचाया, बल्कि राष्ट्रवाद की एक नई, अग्निमय परिभाषा गढ़ी।
Lokmanya Bal Gangadhar Tilak Life Story
"स्वराज्य हा माझा जन्मसिद्ध हक्क आहे आणि तो मी मिळवणारच!"
(स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा!)
यह अमर घोषणा थी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की, जिनका जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि में एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके जन्मदिन के अवसर पर यह लेख उस अदम्य योद्धा को श्रद्धांजलि है, जिन्होंने न सिर्फ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को जन-जन तक पहुँचाया, बल्कि राष्ट्रवाद की एक नई, अग्निमय परिभाषा गढ़ी। तिलक सिर्फ नेता नहीं, एक विद्वान, समाज सुधारक, शिक्षाविद् और भारतीय संस्कृति के अथक पुरोधा थे।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा: विद्रोही बुद्धि का निर्माण (1856-1880)
तिलक का जन्म गंगाधर रामचंद्र तिलक के घर हुआ। बचपन से ही प्रतिभाशाली और स्वतंत्र विचारों वाले तिलक ने पुणे के डेक्कन कॉलेज से गणित में स्नातक किया और फिर एलएलबी की डिग्री प्राप्त की। उनकी शिक्षा ने उनमें तर्कशीलता और राष्ट्रीय चेतना का बीज बोया। विशेषकर संस्कृत और प्राचीन भारतीय ग्रंथों के प्रति उनका गहरा लगाव उनकी भावी राष्ट्रवादी विचारधारा की आधारशिला बना।
शिक्षा और पत्रकारिता: जनजागरण के हथियार (1880-1897)
तिलक मानते थे कि शिक्षा और जानकारी ही क्रांति की पहली सीढ़ी है। इसी विश्वास के साथ उन्होंने 1880 में विष्णुशास्त्री चिपलूनकर और गोपाल गणेश आगरकर के साथ मिलकर पुणे में न्यू इंग्लिश स्कूल की स्थापना की। यह संस्था जल्द ही शिक्षा का प्रमुख केंद्र बनी और 1884 में इसके विस्तार के रूप में डेक्कन एजुकेशन सोसाइटी का गठन हुआ। उद्देश्य था - भारतीयों द्वारा संचालित, भारतीय मूल्यों पर आधारित गुणवत्तापूर्ण शिक्षा।
लेकिन तिलक का असली प्रहार आया उनके मुखपत्रों के माध्यम से:
केसरी (मराठी): 1881 में शुरू हुआ यह अखबार जल्द ही जनता की आवाज बन गया। इसकी तीखी भाषा और ब्रिटिश नीतियों की बेबाक आलोचना ने इसे अत्यंत लोकप्रिय बनाया। ‘केसरी’ का अर्थ है सिंह - और तिलक ने सचमुच इस पत्र के माध्यम से शेर की तरह गर्जना की।
मराठा (अंग्रेजी): इसी वर्ष शुरू हुआ यह अंग्रेजी पत्र भारतीय मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय पटल पर रखने और अंग्रेजी पढ़े वर्ग तक पहुँचने का माध्यम बना।
इन पत्रों ने भारतीयों में स्वाभिमान, राजनीतिक चेतना और ब्रिटिश शोषण के विरुद्ध आक्रोश जगाया। 1893-97 के भीषण अकाल के दौरान सरकार की निष्क्रियता और कर वसूली की निर्ममता पर तिलक के तीखे लेखों ने जनता को सरकार के विरुद्ध खड़ा कर दिया।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सूत्रपात: गणपति और शिवाजी (1893-1905)
तिलक समझते थे कि राजनीतिक आंदोलन को जनाधार तभी मिलेगा जब वह लोगों की सांस्कृतिक और धार्मिक भावनाओं से जुड़े। उन्होंने दो प्रभावशाली पहलें शुरू कीं:
1. गणपति उत्सव (1893): सार्वजनिक गणेशोत्सव की शुरुआत कर तिलक ने एक धार्मिक त्योहार को जन-जागरण का मंच बना दिया। यह उत्सव हिंदुओं को एकजुट करने, राष्ट्रीय भावना का प्रसार करने और सार्वजनिक स्थानों पर सांस्कृतिक व राजनीतिक चर्चा का अवसर प्रदान करने का साधन बना। आज भी महाराष्ट्र में यह उत्सव विशाल जनसैलाब को आकर्षित करता है।
2. शिवाजी उत्सव (1896): छत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती मनाने की परंपरा शुरू कर तिलक ने एक वीर मराठा शासक को राष्ट्रीय नायक के रूप में स्थापित किया। शिवाजी का संघर्ष, स्वराज्य की स्थापना और प्रजा हितैषी शासन भारतीयों के लिए प्रेरणा बना। इसने हिंदू-मुस्लिम एकता (शिवाजी के मावला सैनिक) और स्वदेशी शासन के आदर्श को रेखांकित किया।
ये पहलें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की नींव रखने वाली थीं और इन्होंने आम जनता को स्वतंत्रता संग्राम से सीधे जोड़ा।
राजनीतिक संघर्ष, कारावास और स्वराज का बिगुल (1897-1914)
तिलक का जीवन कठिन संघर्षों और कारावास से भरा रहा:
1897 में पहली गिरफ्तारी और मांडले जेल (1897-1898): प्लेग की भीषण महामारी के दौरान पुणे के कमिश्नर रैंड और लेफ्टिनेंट एयर्स्ट की हत्या कर दी गई (जिसमें तिलक का कोई सीधा हाथ नहीं था)। लेकिन उनके कथित ‘उकसावे’ के लिए उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाकर 18 महीने की कठोर कैद की सजा सुनाई गई और उन्हें मांडले (बर्मा) जेल भेज दिया गया। इसी कारावास के दौरान उन्होंने अपने महान दार्शनिक ग्रंथ 'श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य' (जिसे 'गीता रहस्य' भी कहा जाता है) की रचना की। यह ग्रंथ कर्मयोग पर आधारित है, जहाँ तिलक ने गीता की व्याख्या करते हुए कर्म को ही सर्वोच्च धर्म बताया और निष्क्रियता का खंडन किया - यह स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक दार्शनिक आधार प्रदान करता था। "निष्काम कर्म ही सच्ची भक्ति है" - यह उनका मूल मंत्र था।
स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन (1905-1908): लॉर्ड कर्जन के बंगाल विभाजन (1905) के विरोध में तिलक ने लाल-बाल-पाल (लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल) की तिकड़ी के रूप में उग्र राष्ट्रवादी धड़े का नेतृत्व किया। उन्होंने स्वदेशी (विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग) और बहिष्कार (सरकारी शिक्षण संस्थानों, नौकरियों और अदालतों का बहिष्कार) को जन आंदोलन का मुख्य हथियार बनाया। उनका नारा था - "स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है!" यह आंदोजन पूरे देश में आग की तरह फैला।
मुंबई कांग्रेस अधिवेशन (1907) और गरम दल का उदय: सूरत अधिवेशन में कांग्रेस के नरम दल (गोपाल कृष्ण गोखले) और गरम दल (तिलक, लाजपत राय, पाल) के बीच मतभेद सार्वजनिक हुए। तिलक ने नरम दल की याचिका और प्रार्थना की नीति का विरोध किया और सीधे कार्रवाई, जन आंदोलन और पूर्ण स्वराज की माँग पर जोर दिया।
दूसरी गिरफ्तारी और मांडले जेल (1908-1914): 1908 में मुजफ्फरपुर में किंग्जफोर्ड नामक न्यायाधीश की हत्या के प्रयास के बाद (जिसमें खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी शामिल थे) तिलक पर फिर से राजद्रोह का आरोप लगाया गया। उनके द्वारा ‘केसरी’ में छपे लेखों को आधार बनाकर उन्हें छह वर्ष की कठोर कारावास की सजा सुनाई गई और फिर मांडले जेल भेज दिया गया। यह सजा राष्ट्रव्यापी विरोध का कारण बनी। भारत में ही नहीं, विदेशों में भी उनकी रिहाई की माँग उठी। जेल में भी उन्होंने लिखना जारी रखा।
समाज सुधार और विचारधारा: एक जटिल विरासत
तिलक का सामाजिक दृष्टिकोण कभी-कभी विवादास्पद रहा:
विरोधाभास: वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्षधर थे लेकिन सामाजिक परिवर्तन के मामले में रूढ़िवादी थे। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह और बाल विवाह विरोधी कानूनों का विरोध किया, इसे हिंदू धर्म और परंपरा के हस्तक्षेप के रूप में देखा। उनका मानना था कि सामाजिक सुधार राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद आएंगे। हालाँकि, वे जाति व्यवस्था के कठोर रूपों के विरोधी थे और स्त्री शिक्षा के समर्थक थे।
हिंदू राष्ट्रवाद: उनके सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने हिंदू प्रतीकों और इतिहास को केंद्र में रखा। यद्यपि उनका उद्देश्य हिंदुओं को संगठित करना था और वे सभी भारतीयों की एकता में विश्वास करते थे, पर इस दृष्टिकोण ने कभी-कभी सांप्रदायिक तनाव को हवा दी। फिर भी, उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयास किए और अखिल भारतीय कांग्रेस को एक मंच माना।
आत्मनिर्भरता और स्वदेशी: आर्थिक शोषण के खिलाफ उनका स्वदेशी आंदोलन आज के 'आत्मनिर्भर भारत' का पूर्ववर्ती था।
प्रथम विश्वयुद्ध और होमरूल लीग (1914-1920)
जेल से रिहा होने के बाद तिलक ने राजनीति में फिर सक्रिय भूमिका निभाई। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने अंग्रेजों को समर्थन देने की नीति अपनाई, यह आशा करते हुए कि इसके बदले में भारत को स्वशासन का अधिकार मिलेगा। जब यह आशा पूरी नहीं हुई, तो उन्होंने 1916 में एनी बेसेंट के साथ मिलकर होमरूल लीग की स्थापना की। इसका उद्देश्य संवैधानिक तरीकों से भारत के लिए स्वशासन (होम रूल) की माँग करना और जनता को इसके लिए संगठित करना था। यह आंदोलन बहुत लोकप्रिय हुआ और स्वराज की माँग को व्यापक बनाया।
विरासत और प्रासंगिकता: क्यों आज भी महत्वपूर्ण हैं लोकमान्य तिलक?
1. स्वराज के प्रणेता: "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है" का नारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सबसे प्रेरक घोषणा बना। यह भारतीयों में आत्मविश्वास और संघर्ष की भावना भर गया।
2. जन-नेतृत्व के जनक: तिलक ने स्वतंत्रता संग्राम को अभिजात्य वर्ग के चर्चा क्लब से निकालकर गाँव-गाँव, शहर-शहर तक पहुँचाया। उन्होंने जनता को सीधे जोड़ने का मार्ग दिखाया।
3. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के सूत्रधार: गणपति उत्सव और शिवाजी जयंती जैसे उपकरणों के माध्यम से उन्होंने राष्ट्रवाद को भारतीय संस्कृति और इतिहास की जड़ों से जोड़ा। यह रणनीति आज भी प्रेरणादायक है।
4. निर्भीक पत्रकारिता के प्रतीक: ‘केसरी’ और ‘मराठा’ के माध्यम से उन्होंने सत्ता की कठोर आलोचना करने वाली निर्भीक पत्रकारिता की मिसाल कायम की। यह प्रेस की स्वतंत्रता के लिए एक मानक है।
5. कर्मयोगी: उनका 'गीता रहस्य' और कर्म पर जोर - निष्काम कर्म और देशसेवा को परम धर्म मानना - आज भी युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनका जीवन स्वयं कर्मयोग का उदाहरण था।
6. शिक्षा के प्रणेता: स्वदेशी शिक्षण संस्थानों की स्थापना ने भारतीयों में आत्मविश्वास और राष्ट्रवादी शिक्षा का बीज बोया।
अगर तिलक आज होते...
लोकमान्य तिलक यदि आज जीवित होते, तो निस्संदेह:
* भ्रष्टाचार, अत्याचार और सामाजिक अन्याय के खिलाफ सबसे मुखर आवाज होते।
* शिक्षा प्रणाली में भारतीय मूल्यों और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के समन्वय पर जोर देते।
* आर्थिक स्वावलंबन और 'आत्मनिर्भर भारत' के सबसे बड़े पैरोकार होते।
* युवाओं को राष्ट्र निर्माण के लिए प्रेरित करने में अग्रणी होते, ‘कर्म ही पूजा है’का उद्घोष करते।
* सांस्कृतिक गौरव को बढ़ावा देने के साथ-साथ सभी वर्गों और समुदायों के बीच एकता और समरसता स्थापित करने पर बल देते।
* मजबूत, स्वावलंबी और नैतिक आधार वाले राष्ट्र के निर्माण के लिए प्रयासरत होते - जहाँ प्रत्येक नागरिक स्वतंत्र, शिक्षित और गौरवान्वित हो।
तिलक पर प्रमाणिक स्रोतों पर आधारित महत्वपूर्ण पुस्तकें:
1. ‘लोकमान्य तिलक’ (डी.वी. तहमाणकर): तिलक पर लिखी गई सर्वाधिक प्रामाणिक और व्यापक जीवनी मानी जाती है।
2. ‘बाल गंगाधर तिलक: ए बायोग्राफी’ ( ए.के. प्रियोलकर): तिलक के जीवन और कार्यों का विस्तृत विवरण।
3. ‘द ओरिजिन्स ऑफ़ होमरूल इन इंडिया’( रिचर्ड कैशमैन): होमरूल आंदोलन पर गहरा अध्ययन।
4. ‘तिलक एंड गोखले: रेवोल्यूशन एंड रिफॉर्म इन द मेकिंग ऑफ़ मॉडर्न इंडिया’ (स्टेनली वोल्पर्ट): तिलक और गोखले के मतभेदों और योगदानों का तुलनात्मक अध्ययन।
5. ‘श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य’( बाल गंगाधर तिलक): तिलक द्वारा लिखित मूल ग्रंथ (मराठी/हिंदी/अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध)।
6. ‘केसरी’ और ‘मराठा’ के संपादकीयों का संग्रह: तिलक के विचारों को सीधे समझने का सर्वोत्तम स्रोत।
7. ‘लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक: समग्र दृष्टिकोण’ (विष्णु भास्कर वर्तक): तिलक के बहुआयामी व्यक्तित्व पर केंद्रित।
8. ‘वीर सावरकर: द ट्रू स्टोरी ऑफ़ फादर ऑफ हिंदुत्व’ (विक्रम संपत): सावरकर पर केंद्रित, पर तिलक के प्रभाव का उल्लेख (सावरकर तिलक के प्रशंसक और होमरूल लीग के सदस्य थे)।
अमर अग्निपुरुष
लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वह अग्निपुरुष थे, जिन्होंने आजादी की लौ को जन-जन के हृदय तक पहुँचाया। वे केवल राजनेता नहीं, एक समग्र क्रांतिकारी थे - जिन्होंने शिक्षा, पत्रकारिता, सांस्कृतिक पुनर्जागरण और सीधे राजनीतिक संघर्ष सभी मोर्चों पर युद्ध लड़ा। उनका नारा, उनका साहस, उनका विद्वत्तापूर्ण लेखन और जनता के प्रति अगाध प्रेम उन्हें ‘लोकमान्य’ (लोगों द्वारा मान्य) बना गया। उनकी विरासत सिर्फ इतिहास की धरोहर नहीं, बल्कि आज के भारत के लिए एक मार्गदर्शक प्रकाश है। जब भी स्वाभिमान, स्वतंत्रता और स्वावलंबन की बात होगी, तिलक का नाम सदैव सर्वोपरि रहेगा। उनका जन्मदिन न सिर्फ उन्हें याद करने, बल्कि उनके आदर्शों को आत्मसात करने और उस स्वराज्य के निर्माण के प्रयास को पुनर्जीवित करने का दिन है, जिसके लिए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।
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