Opinion: काबिलियत ही देखो बाबू की

हमारा दुर्भाग्य है कि अंग्रेजों की बनाई प्रशासनिक व्यवस्था की मशीन चलाने वाले कारीगरों को चुनने का तरीका आज तक सिर्फ एक एग्जाम पास करने का है।

Yogesh Mishra
Published on: 27 Aug 2025 2:23 PM IST
Government Servants and Their Duties
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Government Servants and Their Duties (Image Credit-Social Media)

एक मुहावरा है, जाति न पूछो साधू की। क्योंकि साधू का भला जातपात से क्या मतलब, उसे तो ईश्वर में लीन रहना है।

इस मुहावरे का इस्तेमाल अगर सरकारी बाबुओं पर करें तो क्या लिखना चाहिए? होना यही चाहिए कि "काबिलियत ही देखो बाबू की।" वजह यह कि इस 145 करोड़ की आबादी वाले देश की मशीनरी चलाने वाले कारीगरों में अगर कोई एक क्वालिटी होनी चाहिए तो वो होनी चाहिए काबिलियत की, योग्यता की, काम को अंजाम देने की। योग्यता भी रट्टा मार के सरकारी सेवा परीक्षा पास करने की नहीं बल्कि असल काम की योग्यता, विशेषज्ञता और मेरिट वाली। तभी हम कह सकेंगे कि बाबू वही जो काम कर दिखाए।

लेकिन दुर्भाग्य हमारा कि अंग्रेजों की बनाई प्रशासनिक व्यवस्था की मशीन चलाने वाले कारीगरों को चुनने का तरीका आज तक सिर्फ एक एग्जाम पास करने का है। एग्जाम भी ऐसा जिसको पास करने के लिए ग्रेजुएट होना ही काफी है।

नतीजा सामने है। जहां सेवा नदारद और मेवा ही मेवा हो, उस सरकारी तंत्र में शामिल लोगों के अलावा बाकी जनता में से कौन कितना इस तंत्र से संतुष्ट और गदगद है ये भी सब जानते हैं।

इसलिए हमारे देश की बाबूगीरी व्यवस्था में कुछ जान फूंकने के लिए एक व्यवस्था लाई गई कि कुछ तो प्रोफेशनल और योग्य लोग सीधे भर्ती किये जायें। लेकिन बदलाव के लिए बनाई गई ये लेटरल एंट्री योजना अब खुद ही पस्त हो चुकी है, या वोट की राजनीति मजबूरीवश कर दी गई है। इसमें दोबारा कब जान फूंकी जाएगी, कोई नहीं जानता।

भले ही खुल कर न कहें लेकिन ऊपर से विरोध करने वाले कई नेता अंदरखाने यह जरूर मानते होंगे कि देश की प्रशासनिक मशीनरी में आमूलचूल सुधार, बदलाव की सख्त और तात्कालिक जरूरत है और लेटरल एंट्री योजना उनमें से एक तरीका है। जरूरी ये भी है कि सार्थक होने के लिए इस योजना को कोटा के बन्धनों से मुक्त होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से हमारी राजनीतिक पार्टियों की चुनाव जीतने वाली रणनीतियां ‘सामाजिक न्याय’ के खेल से इतनी प्रभावित हैं कि मोदी सरकार द्वारा शुरू की गई लेटरल एंट्री योजना का बचाव करने वाली कोई प्रमुख आवाज सामने नहीं आई।

और तो और, इस योजना का सबसे मुखर विरोध कांग्रेस का रहा है जबकि लेटरल एंट्री की नींव उसी ने डाली थी। पार्टी ने लेटरल एंट्री को ‘आईएएस का निजीकरण’ कहकर इसकी आलोचना की। लेकिन वो भूल गई कि पहले की कांग्रेसी सरकारों ने ही बाहरी गैर-आईएएस, गैर-कोटा प्रतिभाओं को आमंत्रित किया था।

दिलचस्प बात यह है कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 1972 में मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में एक लेटरल एंट्री ली थी। फिर वे 1976 में वित्त मंत्रालय में सचिव के पद पर चले गए और 14 साल बाद शीर्ष पर थे। यूपीए सरकार के दौरान एक प्रमुख व्यक्ति मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने 1988 में प्रधानमंत्री के विशेष सचिव के रूप में शुरुआत की, 1990 में वाणिज्य सचिव के पद पर चले गए। अन्य नामों में विजय एल केलकर शामिल हैं, जो 1994 में पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय में सचिव के रूप में शामिल हुए, बिमल जालान जो 1981 में मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में शामिल हुए, प्रकाश टंडन, जो राज्य व्यापार निगम के प्रमुख थे, केपीपी नांबियार, इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग में सचिव, सुमन दुबे, सूचना और प्रसारण मंत्रालय में प्रेस सलाहकार। 1993 में नियुक्त मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ शंकर आचार्य भी एक लेटरल एंट्री वाले थे। अर्थशास्त्री कौशिक बसु यूपीए युग के दौरान एक और लेटरल एंट्री वाले थे। रघुराम राजन, भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बनने से पहले, मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में वित्त मंत्रालय में शामिल हुए थे।

2009 में कांग्रेस शासन में यूआईडीएआई का जन्म हुआ, जिसने आधार कार्ड कार्यक्रम शुरू किया। इसके प्रमुख नंदन नीलेकणी 2009 में इस प्रणाली में लेटरल एंट्री से आये थे। सैम पित्रोदा 1989 में दूरसंचार आयोग के अध्यक्ष थे और 2009 में फिर से प्रधानमंत्री के सलाहकार के रूप में नियुक्त किए गए। भारत में संचार क्रांति के वे ही जनक हैं।

खैर, अभी चाहे जो राजनीति चल रही हो, सच्चाई ये है कि भारत को प्रशासन के लिए एक्सपर्ट्स और प्रोफेशनल्स की बेहद जरूरत है। और ऐसा क्यों है, ये वे सब लोग जानते हैं जिनका पाला केंद्र, राज्य सरकारों और नगर निगमों में चल रहे सिस्टम से पड़ता है। अभी तो पूरा सिस्टम आईएएस के भरोसे चल रहा है और आईएएस कितने एक्सपर्ट होते हैं ये भी सब जानते हैं। एक आईएएस अफसर डीएम बनने से लेकर कृषि, रक्षा, सूचना, योजना, रेल, पानी, आईटी वगैरह किसी भी डिपार्टमेंट में फिट हो जाता है। इसमें विशेषज्ञता की बात कौन ही करे।

जबकि वास्तविकता ये है कि जिस तरह आज की दुनिया में डेवलपमेंट और शासन में चुनौतियाँ बेहद जटिल होती जा रही हैं उसमें, हाई लेवल पर ऐसे प्रोफेशनल्स की जरूरत है जिन्हें डोमेन का गहन ज्ञान और विशेषज्ञता हो। ऐसे लोग क्या ही कर पाएंगे जो हर जगह फिट हो कर फाइलें ही बढ़ाते रहने वाले अफसर हों।

दिक्कत ये है कि हम आज़ादी के बाद से अब तक एक एक्सपर्ट बेस्ड प्रशासनिक प्रणाली बना नहीं पाए हैं। हमारी घिसीपिटी पारंपरिक सार्वजनिक सेवा प्रणाली ऐसे विशेषज्ञों को तैयार ही नहीं करती है। बल्कि तैयार करती है ऐसे ब्यूरोक्रेट जो सिर्फ ब्यूरोक्रेट ही होते हैं।

जबकि इसके विपरीत, निजी क्षेत्र की कंपनियों, टॉप विश्वविद्यालयों, शोध प्रयोगशालाओं, थिंक टैंक, उद्योगों, मीडिया और अन्य संस्थानों में ऐसे कई पेशेवर हैं, जो राष्ट्र-निर्माण के लिए अपनी सेवाएँ देने के लिए सक्षम और उत्सुक हैं। लेकिन हमारा सिस्टम ऐसे संसाधन को अपने में शामिल करने की बजाए आईएएस या आईएफएस जैसे "एलीट वर्ग" के एकाधिकार में बना हुआ है जो बाहरी प्रतिभाओं के प्रवेश का जमकर विरोध करते हैं।

सवाल एक और भी है कि क्या भारत को अंतरराष्ट्रीय अनुभव के प्रति जान कर अनजान बने रहना चाहिए? सभी अमीर देश और कई विकासशील देश सक्षम और इच्छुक पेशेवरों को सार्वजनिक सेवा के मौके देते हैं। अमेरिका और चीन में तो विश्वविद्यालयों और निजी क्षेत्र की कंपनियों के विशेषज्ञों को विदेश सेवा सहित सरकारी विभागों में काम करने के लिए बुलाया जाना आम बात है।

नेता लोग हर चीज में कोटे की बात करते हैं लेकिन कभी वंचित समाज के लोगों में योग्यता और विशेषज्ञता डेवलप करने की बात नहीं करते। क्यों हम एससी, एसटी, ओबीसी और अन्य सभी समुदायों के गरीबों को योग्य और एक्सपर्ट नहीं बना देते? इससे न सिर्फ सरकार को बल्कि निजी क्षेत्र तथा पूरे समाज को फायदा ही होगा।

लोक सेवक किस जाति या धर्म से संबंधित हैं, इससे ज्यादा मायने ये बात रखती है वे सक्षम, जन-हितैषी, जवाबदेह और प्रोडक्टिव हों और पूरे देश तथा खास तौर पर आम नागरिकों को लाभान्वित करते हों।

सबसे बड़ी बात ये है कि सरकारी सेवा में आने वालों को अपनी जाति और धार्मिक पहचान के ऊपर सिर्फ एक धर्म या कर्तव्य को अपनाना चाहिए : बिना किसी भेदभाव के भारत और सभी भारतीयों की सेवा करना। सिर्फ जाति या धर्म से भला होने वाला होता तो हो चुका होता। अब तो हमें मेरिट और योग्यता की वकत मान लेनी चाहिए। नहीं तो यूं ही बीच में लटके पड़े रहेंगे। अब तो जपना शुरू करिये - मेरिट ही जाति, योग्यता ही धरम, बाकी सब है भरम ही भरम।

( दिनांक 26.8.2024 को मूलरूप से प्रकाशित ।)

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