TRENDING TAGS :
Aligarh News: मृत्यु भोज परंपरा—सामाजिक एकता से आज के आर्थिक बोझ तक बदलती तस्वीर
Aligarh News: मृत्यु भोज कभी सहानुभूति का प्रतीक था, अब गरीब परिवारों के लिए बना भारी आर्थिक बोझ।
मृत्यु भोज परंपरा (photo: social media )
Aligarh News: मृत्यु भोज भारतीय समाज में प्राचीन काल से चली आ रही एक परंपरा है। इसका उद्देश्य मूल रूप से सामाजिक और मनोवैज्ञानिक था। पुराने समय में जब चिकित्सा सुविधाएँ सीमित थीं, मृत्यु के बाद घर को शुद्ध करने, परिवार को सामाजिक सहारा देने और रिश्तेदारों की मदद से एकता व सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए मृत्यु भोज का आयोजन किया जाता था। रिश्तेदार आकर अनाज, सब्जी, अन्य सामग्री लाते थे, ताकि परिवार के दुख में साथ खड़ा रहा जा सके।
यह व्यवस्था उस समय शुद्धि, सहारा और सामाजिक मिलन का प्रतीक थी। धार्मिक ग्रंथों में इसकी स्पष्ट व्यवस्था नहीं है। महाभारत में साफ़ लिखा है कि मृत्युभोज का विधान शास्त्रसम्मत नहीं है, उल्टा इसे ऊर्जा की हानि बताया गया है। श्रीकृष्ण काल में भी इसका विरोध हुआ। मूल परंपरा में केवल घरवाले और नजदीकी रिश्तेदार सादा भोजन करते थे और शोक समाप्त करने के लिए सामूहिक भोज नहीं होता था। ब्राह्मणों व परिजनों के लिए ही सीमित भोज रखे जाने का प्रावधान था।
आज की स्थिति में, मृत्यु भोज का स्वरूप काफ़ी बदल गया है। अब यह दिखावे और सामाजिक प्रतिष्ठा का मुद्दा बन गया है। कई लोग बड़ी संख्या में मेहमानों को बुलाकर भारी खर्च करते हैं। समाज का दबाव रहता है कि दावत शानदार होनी चाहिए। दावत न करने पर परिवार अपमानित या उपेक्षित अनुभव करता है।
गरीब परिवारों के लिए गहन मानसिक और आर्थिक तनाव
मृत्यु भोज गरीब परिवारों के लिए गहन मानसिक और आर्थिक तनाव की वजह बन गया है। अपनों को खोने का दुख और ऊपर से तेरहवीं में भोजन कराने का सामाजिक दबाव बनता है, जिसके लिए अक्सर कर्ज लेना पड़ता है, जिससे परिवार वर्षों तक आर्थिक संकट झेलता है। यदि परिवार इस कुरीति का विरोध करता है, तो उन्हें सामाजिक तिरस्कार और उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। गरीब परिवारों पर भारी खर्च की वजह से कर्ज का बोझ और भावनात्मक असहजता का मानसिक वातावरण बना रहता है।
एक ओर शोक, दूसरी ओर समारोह का सामाजिक दबाव, बच्चों की पढ़ाई, स्वास्थ्य आदि पर प्रभाव तथा विरोध करने पर सामाजिक प्रतिष्ठा एवं अपमानित होने की चिंता बनी रहती है। समाज में देखने को आता है कि यदि कोई व्यक्ति ससमय मृत्यु भोज नहीं कर पाता है, तो उसे सामाजिक तानों का सामना झेलना पड़ता है। वह व्यक्ति अपमानित होता रहता है। जब उसके पास कहीं से धन की व्यवस्था हो जाती है, तब वह वर्षों पश्चात भी इस मृत्यु भोज के कलंक से मुक्त होना चाहता है। समाज में यह भी देखने में आता है कि बड़े-बड़े नेता, समाजसेवी भी मंच पर मृत्यु भोज का विरोध करते हैं, लेकिन जब उनकी ही मृत्यु होती है, तो उनकी संतान मृत्यु भोज का आयोजन करती है। अर्थात, अपने माता-पिता के कहे वचनों का भी पालन नहीं करते हैं। यह कैसी विडंबना है कि अपने माता-पिता के आदर्श-मूल्यों का ही तिरस्कार करके मृत्यु भोज को बढ़ावा देकर अपने आप को महान बनाना चाहते हैं।
सामाजिक कुरीति और अंधविश्वास का रूप ले चुका
मृत्यु भोज आज सामाजिक कुरीति और अंधविश्वास का रूप ले चुका है। इसके निदान हेतु गांव-शहरों में सामाजिक जागरूकता अभियान चलाकर लोगों को वास्तविक उद्देश्य समझाना चाहिए। मृत्यु भोज को सादे पारिवारिक भोजन तक सीमित किया जाए। बाहरी लोगों की भीड़ और दिखावे से बचा जाए। सामाजिक संगठन, पंचायत प्रस्ताव द्वारा अथवा सरकारी नियम से मृत्यु भोज पर नियंत्रण परम आवश्यक है। धार्मिक नेतृत्व, पंडित, धर्मगुरु शास्त्रों का सही स्वरूप बताएं और समाज को कुरीति से मुक्त कराने का प्रयास करें। शोक में डूबे परिवार को बिना भोज की बाध्यता के सहायता पहुंचाने की संस्कृति को व्यवहारिक रूप देने का समन्वित प्रयास करें।
राजस्थान देश का एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां मृत्युभोज नियंत्रण हेतु कानून बनाया गया है। यहां मृत्युभोज निवारण अधिनियम, 1960 लागू है। इस कानून की धारा-3 के अनुसार कोई भी व्यक्ति मृत्युभोज का आयोजन नहीं करेगा और इसमें भाग नहीं लेगा। इस अधिनियम के उल्लंघन पर दोषी को एक साल तक की जेल और एक हजार रुपये तक का जुर्माना हो सकता है। इसके अलावा, भोज में शामिल व्यक्तियों की संख्या एक सौ तक सीमित रखी गई है और सरपंच, पटवारी इत्यादि को इसकी सूचना देना आवश्यक है।
राजस्थान में यह कानून सामाजिक और आर्थिक दबाव कम करने, जातिगत और सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के उद्देश्य से बनाया गया था। हाल ही में कोरोना काल में इस कानून को और भी सख्ती से लागू किया गया। इसके अलावा उत्तर प्रदेश के झांसी जिले के कुछ गांवों में भी पंचायत स्तर पर मृत्युभोज पर रोक जैसी पहल हुई है, लेकिन विधिक तौर पर राज्य स्तर पर कानून राजस्थान में ही है।
कानून बनाने की आवश्यकता
अन्य राज्यों में इस कुप्रथा के खिलाफ सामाजिक प्रयास सुधार हेतु कानून बनाने की आवश्यकता है। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भी समय-समय पर इस अधिनियम और उससे जुड़े मामलों पर विचार हुआ है, जिसमें मृत्यु भोज के सामाजिक कुरीति होने और आर्थिक बोझ बढ़ाने वाले पक्ष पर चर्चा हुई है। कोर्ट ने आमतौर पर सामाजिक बुराइयों को रोकने के लिए कानून बनाने के अधिकार को स्वीकार किया है, लेकिन धार्मिक स्वतंत्रता के पहलुओं को भी ध्यान में रखा गया है। कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी जताया है कि अगर मृत्यु भोज के नाम पर दबाव, खर्च या सामाजिक बहिष्कार जैसे ज़बरदस्ती हो, तो ऐसी प्रथाएं रोकना ज़रूरी है। मगर कोर्ट ने यह भी माना है कि परंपरागत धर्म और रिवाजों को पूरी तरह से खत्म करना न्यायपालिका का कार्य नहीं है, बल्कि सामाजिक जागरूकता और सुधार साधनों से ही इसे नियंत्रित किया जाना चाहिए।
मृत्यु भोज की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि समाज की एकता व सहानुभूति थी, लेकिन वर्तमान में यह एक कुरीति बन चुकी है जो गरीब परिवारों पर भारी मानसिक व आर्थिक बोझ डालती है। ऐसे में सामाजिक जागरूकता, धार्मिक नेतृत्व और पंचायत स्तर पर नियंत्रण के जरिए इसे मूल रूप में स्थापित करना और दिखावे से बचना आज की परम आवश्यकता है।
AI Assistant
Online👋 Welcome!
I'm your AI assistant. Feel free to ask me anything!