Pune Ashtavinayak Yatra: महाराष्ट्र की अष्टविनायक परिक्रमा, आठ स्वयंभू गणपति मंदिरों की यात्रा

Pune Ashtavinayak Yatra: आइए विस्तार से जानते हैं कि अष्टविनायक परिक्रमा क्या है...

Shivani Jawanjal
Published on: 27 Aug 2025 5:46 PM IST
Ashtavinayak Yatra of Maharashtra
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Ashtavinayak Yatra of Maharashtra

Ashtavinayak Yatra of Maharashtra: भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं में गणपति का स्थान सर्वोपरि है। गणेश जी को विघ्नहर्ता, बुद्धिदाता और मंगलमूर्ति माना जाता है। उनकी पूजा के बिना कोई भी शुभ कार्य प्रारंभ नहीं होता। महाराष्ट्र में गणपति की आराधना एक जीवंत परंपरा है और इसका सबसे बड़ा प्रमाण है अष्टविनायक परिक्रमा। यह परिक्रमा आठ प्रमुख गणेश मंदिरों की यात्रा है, जो पुणे और उसके आसपास फैले हुए हैं। श्रद्धालु मानते हैं कि इन आठ गणेश मंदिरों की परिक्रमा करने से जीवन के सभी संकट दूर हो जाते हैं और मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।

अष्टविनायक परिक्रमा का महत्व

'अष्टविनायक' का अर्थ आठ पवित्र गणेश मंदिरों से है, जो मुख्य रूप से पुणे जिले और उसके आसपास के क्षेत्रों में स्थित हैं। इनमें पाँच मंदिर पुणे, दो रायगढ़ और एक अहमदनगर जिले में स्थित हैं। इन सभी मंदिरों की विशेषता यह है कि यहाँ विराजमान गणेश मूर्तियाँ स्वयंभू मानी जाती हैं। अर्थात वे प्राकृतिक रूप से धरती से प्रकट हुई हैं, न कि मानव निर्मित। परंपरा के अनुसार यदि कोई श्रद्धालु इन आठों मंदिरों की यात्रा निर्धारित क्रम में करता है और उसी क्रम में परिक्रमा पूर्ण करता है, तो उसे अपार पुण्य की प्राप्ति होती है। यह यात्रा न केवल भक्त के जीवन से विघ्न-बाधाओं को दूर करती है, बल्कि उसे आध्यात्मिक शक्ति और संतोष भी प्रदान करती है।

अष्टविनायक यात्रा का क्रम

पारंपरिक रूप से अष्टविनायक यात्रा की शुरुआत मोरेश्वर (मोरेगांव) मंदिर से होती है और यहीं पर इसका समापन भी होता है। यात्रा का पारंपरिक क्रम निम्नलिखित है:

मोरेश्वर (मोरेगांव)

सिद्धिविनायक (सिद्धटेक)

बल्लाळेश्वर (पाली)

वरदविनायक (महाड)

चिंतामणि (थेउर)

गिरिजात्मज (लेण्याद्री)

विघ्नेश्वर (ओझर)

महागणपति (रांजणगांव)

यह क्रम खासतौर से शास्त्रोक्त माना गया है और भक्त अगर इस क्रम में मंदिरों की परिक्रमा करता है तो उसे पूर्ण पुण्य प्राप्त होता है तथा यह यात्रा विशेष आध्यात्मिक महत्व की होती है। इससे व्यक्ति के जीवन से विघ्न दूर होते हैं और मनोकामनाएं पूरी होती हैं।

मोरेश्वर - मोरेगांव

मोरेश्वर गणपति मंदिर जो पुणे जिले के मोरेगांव में भीमा नदी के किनारे स्थित है, अष्टविनायक यात्रा का प्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है। यहाँ स्थापित गणेश प्रतिमा चार भुजाओं वाली है और उनका वाहन मयूर (मोर) है। इसी कारण उन्हें ‘मयूरेश्वर’ नाम से पूजा जाता है। मान्यता है कि इसी पावन स्थल पर भगवान गणेश ने दैत्य सिंधुरासुर का संहार किया था। मंदिर की स्थापत्य कला भी अद्भुत है । इसके चारों कोनों पर ऊँची मीनारें और मजबूत पत्थरों से बनी दीवारें इसे भव्य स्वरूप प्रदान करती हैं। विशेष रूप से मंदिर प्रांगण में स्थापित नंदी की मूर्ति, जो शिव जी के वाहन का प्रतीक है, इसे और भी अनोखा बनाती है।

सिद्धिविनायक - सिद्धटेक

सिद्धटेक का सिद्धिविनायक मंदिर, अहमदनगर जिले के कर्जत तालुका में भीमा नदी के तट पर स्थित है और अष्टविनायक मंदिरों में विशेष महत्व रखता है। यहाँ विराजमान गणेश जी को सिद्धि और शक्तियों का दाता माना जाता है। इस मंदिर की विशेषता इसकी दाहिनी ओर मुड़ी हुई सूंड है, जिसे अत्यंत शुभ माना जाता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, भगवान विष्णु ने दैत्य मधु-कैटभ का वध करने से पहले इसी स्थान पर आकर गणेश जी की आराधना की थी और उनसे आशीर्वाद लेकर सिद्धि प्राप्त की थी। इसी कारण यह मंदिर भक्तों के लिए सिद्धि और सफलता का प्रतीक माना जाता है।

बल्लाळेश्वर - पाळी

पाली गाँव (जिला रायगढ़) स्थित बल्लाळेश्वर मंदिर अष्टविनायक में विशेष स्थान रखता है। क्योंकि यह एकमात्र ऐसा गणेश मंदिर है जिसका नाम किसी भक्त बल्लाळ के नाम पर पड़ा है। मंदिर का मुख पूर्व दिशा की ओर है और इसकी अनोखी विशेषता यह है कि साल के एक निश्चित समय पर सूर्य की किरणें सीधे गणेश प्रतिमा पर पड़ती हैं जिससे यह स्थल और भी पवित्र माना जाता है। कथा के अनुसार, गणेश जी ने अपने परम भक्त बल्लाळ की पुकार पर यहाँ प्रकट होकर उसकी रक्षा की थी। यहाँ विराजमान गणेश प्रतिमा स्वयंभू मानी जाती है और इसके साथ कई पौराणिक कथाएँ जुड़ी हुई हैं। पहले यह मंदिर लकड़ी का बना हुआ था। जिसे बाद में प्रसिद्ध पेशवा मंत्री नाना फड़नवीस ने भव्य पत्थर के मंदिर में परिवर्तित किया।

वरदविनायक - महाड

रायगढ़ जिले के खालापुर तालुका के महाड में स्थित वरदविनायक मंदिर अष्टविनायक यात्रा का एक महत्वपूर्ण तीर्थ है। यह मंदिर पूर्वाभिमुख है और इसकी खासियत यह है कि यहाँ भक्त सीधे गर्भगृह में जाकर स्वयं गणेश प्रतिमा को छू सकते हैं और पूजा-अर्चना कर सकते हैं, जो अन्य मंदिरों में सामान्यतः संभव नहीं होता। यहाँ विराजमान गणेश प्रतिमा स्वयंभू मानी जाती है और परंपरा के अनुसार यह मूर्ति 1690 ईस्वी में ढोंढू पोंडकर नामक व्यक्ति को तालाब से प्राप्त हुई थी। इसके बाद 1725 में पेशवा काल के सूबेदार रामजी महादेव बिवलकर ने इस मंदिर का भव्य निर्माण करवाया। इस मंदिर की विशेषता यह भी है कि भक्त स्वयं गणपति को माला पहनाने और पूजा करने का अवसर पाते हैं, जिससे यह मंदिर श्रद्धालुओं के लिए और भी विशेष बन जाता है।

चिंतामणि - थेउर

पुणे जिले के थेउर गाँव में स्थित चिंतामणि मंदिर अष्टविनायक यात्रा का पाँचवाँ प्रमुख स्थान है। यहाँ भगवान गणेश को ‘चिंताओं का नाश करने वाला’ माना जाता है और उनकी प्रतिमा अत्यंत शांत तथा दिव्य स्वरूप में विराजमान है। पौराणिक कथा के अनुसार, इसी स्थान पर गणेश जी ने कपिला ऋषि की गाय की रक्षा की थी और उनसे छिनी गई ‘चिंतामणि’ नामक मणि वापस दिलाई थी। तभी से उन्हें ‘चिंतामणि’ नाम से पूजा जाने लगा। इस मंदिर की मूर्ति स्वयंभू है और यह भीमा, मुला तथा मुथा नदियों के संगम के पास स्थित है। इतिहास के अनुसार 16वीं-17वीं शताब्दी में चिंतामणि महाराज देव ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। जिसे बाद में पेशवा काल में भी और अधिक भव्य स्वरूप प्रदान किया गया।

गिरिजात्मज - लेण्याद्री

अष्टविनायक में सबसे अनोखे मंदिरों में गिना जाने वाला गिरिजात्मज मंदिर पुणे जिले के जुन्नर तालुका की लेण्याद्री की गुफाओं में स्थित है। पर्वत की गुफाओं में बने इस मंदिर तक पहुँचने के लिए श्रद्धालुओं को लगभग 300 से अधिक सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। इसकी विशेषता यह है कि यहाँ भगवान गणेश के बाल स्वरूप की पूजा की जाती है और अष्टविनायक में यह एकमात्र स्थल है जहाँ बालगणेश की आराधना होती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार यहीं माता पार्वती ने कठोर तप किया था और इसी स्थान पर उन्हें पुत्र रूप में गणेश की प्राप्ति हुई थी। यह मंदिर गुफा संख्या 7 में स्थित है जो एक विशाल चैत्यगृह है और वर्तमान में इसका संरक्षण भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण द्वारा किया जाता है।

विघ्नेश्वर - ओझर

पुणे जिले के ओझर गाँव में स्थित विघ्नेश्वर मंदिर अष्टविनायक यात्रा का सातवाँ तीर्थ माना जाता है। यहाँ भगवान गणेश को ‘विघ्नहर्ता’ के रूप में पूजा जाता है, क्योंकि मान्यता है कि इसी स्थान पर उन्होंने विघ्नासुर नामक राक्षस का वध किया था, जो यज्ञों में बाधा डालता था। यह मंदिर अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध है और इसका शिखर सोने से मढ़ा हुआ है, जिसे पेशवा काल में चिमाजी आप्पा ने बनवाया था। कुकडी नदी के किनारे बसा यह मंदिर न केवल भक्तों के लिए आस्था का केंद्र है, बल्कि अपनी ऐतिहासिक और स्थापत्य कला के कारण पर्यटकों को भी आकर्षित करता है।

महागणपति - रांजणगांव

अष्टविनायक यात्रा का समापन पुणे-अहमदनगर मार्ग पर स्थित रांजणगांव के महागणपति मंदिर में होता है। यहाँ भगवान गणेश ‘महागणपति’ के नाम से पूजे जाते हैं जिनका स्वरूप अत्यंत विशाल और शक्तिशाली माना जाता है। मंदिर पूर्वाभिमुख है और इसकी विशेषता यह है कि सूर्योदय के समय सूर्य की किरणें सीधे गणेश प्रतिमा पर पड़ती हैं, जिससे इसका आध्यात्मिक महत्व और बढ़ जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, इसी स्थल पर गणेश जी ने त्रिपुरासुर नामक दैत्य का वध कर देवताओं को मुक्ति दिलाई थी। यह मंदिर 9वीं-10वीं सदी का माना जाता है और पेशवा काल में इसका जीर्णोद्धार एवं विस्तार किया गया था। एक प्रमुख कथा के अनुसार, भगवान शिव ने भी त्रिपुरासुर से युद्ध करने से पहले यहीं गणेश की आराधना की थी, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें विजय प्राप्त हुई।

अष्टविनायक यात्रा की परंपरा

अष्टविनायक परिक्रमा केवल मंदिरों की यात्रा ही नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक साधना भी है। भक्त इस यात्रा को बस, कार, बाइक या पैदल भी पूरा कर सकते हैं। परंपरागत रूप से यात्रा की शुरुआत मोरेश्वर (मोरेगांव) मंदिर से होती है और परिक्रमा पूरी करने के बाद भी अंत में पुनः मोरेश्वर मंदिर के दर्शन करना अनिवार्य माना जाता है। इस परंपरा का धार्मिक और आध्यात्मिक महत्त्व बहुत उच्च है। क्योंकि माना जाता है कि इस प्रकार यात्रा पूर्ण होती है और भक्त को अधिक पुण्य प्राप्त होता है।

धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व

भक्ति और विश्वास का केंद्र - यह यात्रा महाराष्ट्र की धार्मिक परंपरा का प्रतीक है।

सांस्कृतिक जुड़ाव - परिक्रमा के दौरान गाँव, लोककथाएँ, रीति-रिवाज़ और लोकसंस्कृति से साक्षात्कार होता है।

पर्यटन और आध्यात्मिकता का संगम - इन मंदिरों का दर्शन न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि ये स्थान प्राकृतिक सुंदरता से भी भरपूर हैं।

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