आत्महत्या: पिछली बार आपने किसी हताश व्यक्ति के लिए हाथ कब बढ़ाया था?

Suicide: हर आत्महत्या बताती है कि हम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से विफल हैं

Raj Kumar Singh
Published on: 30 Jun 2025 1:50 PM IST (Updated on: 30 Jun 2025 3:06 PM IST)
आत्महत्या: पिछली बार आपने किसी हताश व्यक्ति के लिए हाथ कब बढ़ाया था?
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Suicide: लखनऊ में एक परिवार के तीन लोगों द्वारा आत्महत्या करने के बाद सामजिक और मानसिक सुरक्षा को लेकर सवाल एक बार फिर से खड़े हो गए हैं। एक सभ्य समाज में यदि कोई व्यक्ति किसी भी कारण से अपनी जान देता है तो इसे महज उस व्यक्ति की कमजोरी मान कर चुप नहीं रहा जा सकता। आत्महत्या के मामलों में आमतौर पर समाज का रवैया बहुत संवेदनशील नहीं रहता है। कई लोग मरने वाले को ही कटघरे में खड़ा करने लगते हैं कि उसने साहस नहीं दिखाया या फिर वह एक कमजोर इंसान था। चूंकि मरने वाला इन बातों का जवाब देने के लिए नहीं होता है तो उस पर अंतिम समय में क्या गुजर रही थी इसका पता नहीं चल पाता है। किसी भी आत्महत्या के मुख्य रूप से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण होते हैं।

आत्महत्या के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण

राजनीतिक कारण इसलिए की एक लोकतांत्रिक देश में आजादी के 78 साल बाद भी हम लोगों को आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता देने में विफल रहे हैं। देश में हर साल किसानों, व्यापारियों और कामगारों की आत्महत्याएं ये बताती हैं कि विकास की चकाचौंध के पीछे एक बहुत बड़ा अंधेरा अब तक काबिज है। अब लखनऊ में 30 जून 2025 को एक ही परिवार के तीन लोगों की आत्महत्या को उदाहरण के तौर पर देखें तो यहां आर्थिक रूप से हमारी कमजोरी साफ नजर आती है। लखनऊ के एक कपड़ा व्यापारी शोभित रस्तोगी, उनकी पत्नी शुचिता रस्तोगी और नाबालिग बेटी ख्याति रस्तोगी ने आर्थिक हालत खराब होने के कारण आत्महत्या कर ली। कपड़ा कारोबारी शोभित ने कर्ज लिया था जिसे वह चुका नहीं पा रहा था। कर्जदार का दबाव तो होगा ही साथ ही समाज में भी उन्हें जब कोई सहारा नहीं मिला होगा तो उन्होंने परिवार समेत आत्महत्या जैसा कठोर कदम उठा लिया।

समाज के रूप में विफल हैं हम

हर आत्महत्या यह बताती है कि एक समाज के रूप में हम विफल हैं। हम अपने ही बीच के किसी इंसान को सहारा देने में असफल रहे हैं। वह इंसान इतना बिखर चुका है कि उसे अब अपनी और कई मामलों में अपने परिवार की भी जीवन लीला समाप्त करने में ही बचाव एक रास्ता दिखता है। हालांकि यह कोई रास्ता नहीं है। आत्महत्या करने वाले इंसान ने यदि थोड़ी समझ दिखाई होता तो यह संभव है कि चीजें सुधर जातीं। लेकिन यहां हम आत्महत्या करने वाले के बजाए समाज की बात करते हैं। देश में सरकार कोई भी हो दावे सभी करते हैं कि आम और गरीब आदमी की आर्थिक हालत सुधर रही है। सच तो यह है कि देश में अमीर और गरीब की खाई लगातार बढ़ रही है। इस तरह की आत्महत्याएं सरकारी व्यवस्था के लिए भी जोरदार झटका हैं कि वह लोगों को जीवन जीने के लिए पर्याप्त सुरक्षा देने में कमजोर साबित हुई है।

पिछली बार हमने किसी से कब कहा था- सब ठीक हो जाएगा, हम हैं ना!

एक समाज के रूप में भी हमें यह सोचना होगा कि क्या हम अपने बीच के किसी इंसान को संभालने में विफल हो रहे हैं। हम अपने तक ही सीमित होते जा रहे हैं। हम किसी भी टूटे हुए इंसान के कंधे पर हाथ रखकर क्या उसे फिर से खड़ा होने का संबल दे रहे हैं या नहीं। कई मामलों में देखा गया है कि आत्महत्या करने वाले व्यक्ति को यदि कोई व्यक्ति सहारा दे दे, उसकी बात सुन ले तो आत्महत्या करने वाले का मन बदल जाता है। कई मामलों में आत्महत्या एक क्षण का फैसला होता है यदि वह समय किसी भी तरह से निकल जाए तो इंसान की जान बच सकती है। जरूरी है हमें अपने आस पास देखने की कि जो लोग जीवन से हताश निराश हो रहे हैं उनके लिए हम क्या कर पा रहे हैं, कुछ नहीं तो क्या हम उनसे कुछ सकारात्मक बात ही कह पा रहे हैं। कम से कम हम किसी टूटे बिखरे इंसान से इतना तो कह ही सकते हैं कि सब ठीक हो जाएगा, हम हैं ना।

मुझे यहां हमारे दौर से सबसे महत्वपूर्ण कवि और हाल ही में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित विनोद कुमार शुक्ल की कविता याद आ रही है-

‘हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था

व्यक्ति को मैं नहीं जानता था

हताशा को जानता था

इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया

मैंने हाथ बढ़ाया

मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ

मुझे वह नहीं जानता था

मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था

हम दोनों साथ चले

दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे

साथ चलने को जानते थे।’

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Snigdha Singh

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