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50th Anniversary of Emergency: इमरजेंसी के वे दिन: एक बचपन की याद, दादा की बेबाकी और इंदिरा गांधी के खिलाफ मेरे नारे
50th Anniversary of Emergency: इमरजेंसी के 50 साल हो गए और मेरी उम्र लगभग 59 साल हो गई। लेकिन बचपन की आपातकाल से जुड़ी यादें आज भी जेहन में ताजा हैं।
Emergency News (Social Media image)
50th Anniversary of Emergency: यह बात 1975 की है, ठीक एक साल बाद जब 9 जून 1974 को मेरी दादी का निधन हुआ था. मेरे बाबा, हिंदी व्याकरणाचार्य आचार्य किशोरी दास वाजपेयी, मेरी मां (स्वर्गीय शारदा) और हम तीनों भाई-बहन (मैं और मेरी दो छोटी बहनें प्रज्ञा व प्रतिभा) को लेकर कनखल, हरिद्वार आ गए थे. मेरे बड़े भैया, स्वर्गीय राजकृष्ण बाजपेई, कानपुर आईआईटी से मैथमेटिक्स में एमएससी कर रहे थे और पिताजी, स्वर्गीय मधुसूदन वाजपेयी, कानपुर में दैनिक जागरण में कार्यरत थे.
इसी बीच राजनीतिक घटनाक्रम तेजी से बदला और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी. उस समय मैं लगभग 9 वर्ष का था और मुझे इन सब बातों की खास जानकारी नहीं थी, लेकिन घर और बाहर इस संबंध में लगातार चर्चाएं होती थीं. इससे यह आभास होता था कि मामला कुछ ज्यादा ही गंभीर है. बाबा, जिन्हें सब प्यार से 'दादा' कहते थे, इंदिरा गांधी के कार्यों से बहुत नाराज़ थे, और आपातकाल की घोषणा ने उनकी नाराज़गी को और बढ़ा दिया था. वह घर से लेकर कनखल चौक तक घूम-घूम कर इंदिरा गांधी की तीखे शब्दों में आलोचना करते रहते थे, और यह आलोचना कई बार बहुत तीखी हो जाती थी.
इसी दौर में एक दिन जब वह इंदिरा गांधी को खरी-खोटी सुना रहे थे, तो किसी ने उनसे कहा, "वाजपेयी जी, आपके पीछे सीआईडी लग गई है. आपातकाल में आप इंदिरा गांधी की आलोचना कर रहे हैं, आपको कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता है." यह सुनकर वह हँस पड़े और कहने लगे, "अरे, यही वजह है कि मैं भी सोच रहा था कि जब मैं खड़ा होकर किसी से बात करता हूँ या बात करना चाहता हूँ तो लोग मुझे देखते ही भाग क्यों जाते हैं. ख़ैर, यह अच्छी बात है कि सरकार की ओर से मुझे सुरक्षा प्रदान कर दी गई है. मुझे इससे कोई दिक्कत नहीं है, और जेल तो मैं आता-जाता रहा हूँ. हाँ, आज़ादी के बाद इधर कोई ऐसा अवसर नहीं आया कि जेल जाना पड़े, तो चलो कोई बात नहीं, एक बार और सही."
इसके बाद वह घर आए और मां से बोले, "बहू, मुझे लग रहा है कि मैं गिरफ्तार हो जाऊँगा, और अगर ऐसा होता है, तो तू बच्चों को लेकर माधव (मेरे पिताजी, स्वर्गीय मधुसूदन बाजपेई) के पास चली जाना." इस पर मां ने कहा, "देखिए दादा, अगर मैं कानपुर में उनके साथ होती तो अलग बात थी, लेकिन मैं आपके साथ यहाँ हूँ, तो जो भी होगा उसे फिर झेला जाएगा. मैं बच्चों को लेकर यहीं रहूँगी."
समय गुज़रता गया. बाबा की गिरफ्तारी तो नहीं हुई, लेकिन 1976 में जब कनखल के सनातन धर्म हायर सेकेंडरी स्कूल में मेरा कक्षा 6 में दाखिला हुआ, तो अपने साथी बच्चों के बीच बातचीत में यह बात आई कि इस समय इमरजेंसी लगी है, और कोई भी अगर सरकार की आलोचना करता है तो उसे गिरफ्तार कर लिया जाएगा. यह सुनकर हमने कहा, "इसमें कौन सी बात है? बोलने पर गिरफ्तार हो जाएँगे कहाँ?" हमने कहा, "अच्छा चलो, आज कनखल चौक में खड़े होकर इंदिरा गांधी के खिलाफ नारे लगाते हैं, देखते हैं कौन गिरफ्तार करता है!" हम चार-पांच बच्चे स्कूल से निकलकर कनखल चौक चौराहे पर पहुँचे और जहाँ झंडारोहण होता था, वहाँ खड़े होकर इंदिरा गांधी मुर्दाबाद, संजय गांधी मुर्दाबाद के नारे चार-पांच बार लगाए. जब तक पुलिस वाले कुछ समझने और उठकर हमारे पास आते, तब तक हम लोग वहाँ से भाग खड़े हुए. उस समय यह नहीं पता था कि इस बात की शिकायत घर पर भी हो जाएगी. थोड़ी देर में पिताजी और बाबा तक यह बात पहुँच गई, और इसके बाद घर में जमकर क्लास ली गई और कहा गया कि "तुझे पढ़ने भेजा जाता है या नेतागिरी करने?" आपातकाल का यह अनुभव भी मेरे लिए यादगार रहा.
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