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Pak ने चीन के पीठ में घोंपा छुरा, CPEC से मोड़ा मुंह, जिनपिंग को दरकिनार कर की ट्रंप से डील
पाकिस्तान ने चीन को दरकिनार कर अमेरिका से नजदीकी बढ़ा ली है। अफगानिस्तान में बमबारी, खनिज सौदे और ट्रंप को नोबेल के लिए नामांकन, सब इस नई रणनीति का हिस्सा हैं। क्या पाकिस्तान का यह दांव उसकी रणनीतिक स्थिति को कमजोर कर देगा? पढ़िए पूरी रिपोर्ट।
Pakistan’s dangerous game (Photo: AI Generated Image/IANS)
रावलपिंडी की सत्ता के गलियारों में एक बार फिर पाकिस्तान की सेना ने अपनी पुरानी रणनीति अपनाई है मगर इस बार बदलाव बड़ा है। हमेशा से चीन को "हर मौसम का दोस्त" कहने वाला पाकिस्तान अब वाशिंगटन की ओर झुकता दिख रहा है, और बीजिंग को दरकिनार कर रहा है।
2025 में डोनाल्ड ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद से पाकिस्तान की ओर से अमेरिका की ओर कई 'दोस्ती' के संकेत दिए गए हैं। इसमें खनिज और क्रिप्टोकरेंसी से जुड़ी डील से लेकर ट्रंप को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित करना जैसी प्रतीकात्मक कोशिशें शामिल हैं। साफ है कि पाकिस्तान की सेना एक बार फिर अमेरिका के साथ गठजोड़ कर खुद को क्षेत्रीय ताकत के रूप में स्थापित करना चाहती है लेकिन इसका मतलब वो चीन को नाराज़ करना हो सकता है।
चीन से मुंह मोड़ता पाकिस्तान?
जिस पाकिस्तान ने कभी चीन के साथ संबंधों को "हिमालय से ऊंचा और समुद्र से गहरा" बताया था, वही अब अमेरिका को बलूचिस्तान के दुर्लभ खनिज संसाधनों तक पहुंच देने को तैयार है वो संसाधन जो पहले CPEC के तहत चीन को विशेषाधिकार के तौर पर दिए गए थे।
इस कदम से चीन में नाराजगी है, क्योंकि उसने पिछले दशक में CPEC के जरिए पाकिस्तान के बुनियादी ढांचे में 60 अरब डॉलर से ज्यादा का निवेश किया है। लेकिन अब पाकिस्तानी सेना इस सहयोग को ठुकरा कर अमेरिका को नए रणनीतिक साझेदार के रूप में पेश कर रही है।
अफगानिस्तान में बमबारी और अमेरिका को संदेश
9 अक्टूबर को पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के काबुल और खोस्त प्रांतों में आतंकी ठिकानों पर हवाई हमले किए। कुछ ही दिनों बाद अफगान सेना के साथ झड़पें हुईं, जिसमें दोनों ओर से कई लोग मारे गए।
इन हमलों के पीछे असली मकसद शायद TTP को रोकना नहीं, बल्कि अमेरिका को यह दिखाना था कि पाकिस्तान अभी भी अफगान क्षेत्र में सबसे अहम खिलाड़ी है। ट्रंप द्वारा बगराम एयरबेस को वापस मांगने के बाद पाकिस्तान की यह 'एक्शन' अमेरिकी वापसी को आसान बनाने की पेशकश के रूप में देखा जा रहा है।
चीन के लिए बढ़ती चिंताएं
बीजिंग अब अफगानिस्तान में अपने निवेश को लेकर चिंतित है। हाल ही में चीन ने तालिबान सरकार के साथ तांबा, लिथियम और अन्य दुर्लभ खनिजों के दोहन के लिए समझौते किए हैं। पाकिस्तान की बमबारी से न सिर्फ अफगान-चीन रिश्तों में खटास आ सकती है, बल्कि चीन की आर्थिक योजनाओं पर भी असर पड़ सकता है।
इसके अलावा, पाकिस्तान की ओर से अमेरिकी कंपनियों के साथ क्रिप्टो ट्रेड और डिजिटल फाइनेंसिंग डील को भी बीजिंग में शक की निगाहों से देखा जा रहा है। यह संकेत है कि पाकिस्तान अब चीनी कर्ज और फंडिंग के बजाय अमेरिकी पूंजी से जुड़ना चाहता है।
क्या यह दांव उल्टा पड़ेगा?
सीपीईसी के तहत चीन ने पाकिस्तान को कूटनीतिक ढाल, सैन्य उपकरण और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर समर्थन दिया है। लेकिन पाकिस्तान की सैन्य लॉबी के लिए फिलहाल तात्कालिक फायदा और सत्ता की गारंटी ज्यादा मायने रखती है।
पाकिस्तान सोचता है कि वह अमेरिका और चीन दोनों से लाभ ले सकता है। लेकिन जिस दुनिया में अब गुटबंदी साफ है, वहां दोनों नावों की सवारी खतरनाक हो सकती है।
अगर पाकिस्तान चीन का भरोसा खो बैठा, तो यह केवल एक साझेदारी का अंत नहीं, बल्कि उसकी बची-खुची रणनीतिक हैसियत का भी नुकसान हो सकता है।
IANS इनपुट के साथ
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