नीतीश पर निर्भर क्यों है BJP? 20 साल से JDU पर निर्भरता बनी पार्टी की मजबूरी, चुनाव में खुल गए राज

बिहार चुनाव 2025 में बीजेपी अब भी नीतीश कुमार पर क्यों निर्भर है? जानें भाजपा के सामाजिक समीकरण, राजनीतिक मजबूरी और बिहार में अकेले सत्ता हासिल न कर पाने की ऐतिहासिक वजहों का गहरा विश्लेषण।

Harsh Srivastava
Published on: 23 Oct 2025 12:58 PM IST
नीतीश पर निर्भर क्यों है BJP? 20 साल से JDU पर निर्भरता बनी पार्टी की मजबूरी, चुनाव में खुल गए राज
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BJP dependence on JDU: बिहार में विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। दो चरणों में होने वाले इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (BJP) और जेडीयू नीत गठबंधन एनडीए का सीधा मुकाबला आरजेडी-कांग्रेस नीत महागठबंधन से है, जिसमें प्रशांत किशोर की पार्टी जन सुराज ने मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश की है। एनडीए की बात करें तो, इसका नेतृत्व इस चुनाव में भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही कर रहे हैं। यह बात बिहार के सियासी गलियारों में साफ़ है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लगातार तीसरे कार्यकाल और पड़ोसी उत्तर प्रदेश में 2017 से बीजेपी सरकार होने के बावजूद, बिहार में भाजपा की निर्भरता अभी भी जेडीयू के मुखिया पर बनी हुई है। बिहार का सियासी इतिहास देखें तो, 1990 तक राज्य में कांग्रेस का वर्चस्व रहा। यही कारण है कि देश की सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद बीजेपी अब तक बिहार में पूरे राज्य में व्यापक जनसमर्थन नहीं बना सकी है। यह राज्य आज भी भाजपा के लिए एक 'अभेद्य दुर्ग' बना हुआ है, जिसे भेदने के लिए उसे नीतीश कुमार के सामाजिक और जातीय समीकरणों की बैसाखी की जरूरत है।

इतिहास की गवाही: क्यों 'संपूर्ण बिहार' की पार्टी नहीं बन सकी BJP?

राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए कहते हैं, “बिहार में कम्युनिस्ट, समाजवादी और जनसंघ/भाजपा का उदय कांग्रेस के प्रभुत्व वाले दौर में एक साथ हुआ। फिर भी भाजपा 'संपूर्ण बिहार' की पार्टी नहीं बन सकी। नीतीश कुमार पर 20 वर्षों से निर्भर रहना इस बात का सबूत है।” मणि बताते हैं कि बिहार के कई महत्वपूर्ण क्षेत्र समाजवादी और वामपंथी आंदोलनों के केंद्र रहे हैं, जहाँ भाजपा की पकड़ सीमित रही है। उदाहरण के लिए, शाहाबाद (भोजपुर, रोहतास, कैमूर, बक्सर) और मगध (औरंगाबाद, गया, जहानाबाद, अरवल) जैसे क्षेत्रों में भाजपा की पकड़ कमजोर है। 2020 विधानसभा चुनाव में यहाँ की 21 सीटों में से बीजेपी को सिर्फ दो पर ही जीत मिली थी, और पिछले लोकसभा चुनाव में तो उसे एक भी सीट नहीं मिली। कोसी बेल्ट (सहरसा, सुपौल, मधेपुरा) में नीतीश कुमार का अच्छा प्रभाव है, जबकि लालू प्रसाद यादव अब भी अपने मूल मुस्लिम-यादव वोट बैंक पर मजबूती से कायम हैं। इन परिस्थितियों में, भाजपा को बिहार में अकेले सत्ता हासिल करना लगभग नामुमकिन है, इसलिए उसे सत्ता साझेदारी की ज़रूरत बनी हुई है।

जनसंघ से भाजपा तक का संघर्ष: लालू के उभार ने बदला इतिहास

बिहार में बीजेपी (पहले भारतीय जनसंघ) का राजनीतिक संघर्ष बहुत पुराना है। 1950 के दशक में भारतीय जनसंघ ने 1952 और 1957 के चुनावों में एक भी सीट नहीं जीती थी। उसे पहली सफलता 1962 में मिली, जब उसने तीन सीटें जीतीं।

1967 का उदय: कांग्रेस विरोधी लहर के दौरान समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया और आरएसएस प्रमुख एम. एस. गोलवलकर की समझदारी से संयुक्त विधायक दल (SVD) सरकार बनी। इसमें जनसंघ को 26 सीटें मिलीं और पहली बार जनसंघ के तीन मंत्री बने।

जेपी आंदोलन के बाद: 1977 में जेपी आंदोलन के बाद जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हुआ, जिसने 325 में से 214 सीटें जीतीं।

1990 के बाद का झटका: 1980 में भाजपा के रूप में पुनर्गठित जनसंघ को अगले तीन चुनावों (1980, 1985, 1990) में सीमित सफलता मिली। 1990 के बाद लालू प्रसाद यादव के ज़ोरदार उभार ने भाजपा को राज्य में और पीछे धकेल दिया।

भाजपा को वास्तविक राजनीतिक बढ़त तब मिली जब उसने नीतीश कुमार की जेडीयू से गठबंधन किया। 2005 में भाजपा-जेडीयू गठबंधन ने सत्ता संभाली और भाजपा धीरे-धीरे राज्य में मजबूत हुई, लेकिन आज भी पार्टी को नीतीश कुमार के जनाधार पर निर्भर रहना पड़ता है।

स्थानीय नेतृत्व का संकट: 'हम नेतृत्वहीन हो गए हैं'

भाजपा के भीतर एक धड़े का मानना है कि बिहार में पार्टी की सीमित पकड़ का सबसे बड़ा कारण स्थानीय नेतृत्व की कमी है। एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने इंडियन एक्सप्रेस से अपनी निराशा ज़ाहिर करते हुए कहा, “सुशील कुमार मोदी के बाद हम लगातार प्रयोग कर रहे हैं। तारकिशोर प्रसाद, रेणू देवी, सम्राट चौधरी या विजय सिन्हा कोई भी नीतीश कुमार के स्तर पर टिक नहीं पाया। हम नेतृत्वहीन हो गए हैं।”

नेता ने आगे कहा कि 2014 की मोदी लहर के बाद भी, 2015 विधानसभा चुनाव में बीजेपी को सिर्फ 53 सीटें मिली थीं। उन्होंने स्वीकार किया, “2020 में 74 सीटें जीतने के बावजूद हमने मुख्यमंत्री पद नीतीश कुमार को दे दिया। अब अगर जेडीयू को 55–60 सीटें भी मिलती हैं, तो नीतीश कुमार ही फिर मुख्यमंत्री बनेंगे।” यह साफ है कि जब तक भाजपा बिहार में नीतीश कुमार के कुर्मी-कोइरी-EBC और महिला वोट बैंक के सामने अपना कोई दमदार स्थानीय नेतृत्व खड़ा नहीं कर पाती, तब तक बिहार का 'अभेद्य दुर्ग' उसके लिए चुनौती बना रहेगा और उसे सत्ता साझेदारी के लिए नीतीश पर निर्भर रहना पड़ेगा।

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