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Caste Census Update: जाने किस करवट बैठेगा जातीय जनगणना का ऊँट
Caste Census Full Report Hindi: उत्तर प्रदेश व बिहार में यादवों को छोड़ कर शायद ही कोई ऐसी जाति होगी, जो भारतीय जनता पार्टी को कम या ज़्यादा संख्या में वोट न देती हो।
Caste Census Full Report Hindi
Caste Census Update: बहुत लंबे समय से एक सवाल भारतीय राजनीति को परेशान किये हुए था। दिलचस्प यह है कि इस सवाल को हल करने के लिए पक्ष और विपक्ष दोनों एकमत थे।दोनों चाहते थे कि इस सवाल पर सत्तारूढ दल आगे बढ़े। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी चाहते थे कि यह सवाल वह हल कर लें। विपक्ष ने भी उन्हें इस सवाल को हल करने के लिए काफ़ी अवसर दिया और बहुत दबाव बनाया। सवाल है जातिगत जनगणना का। हालाँकि भारतीय जनता पार्टी ने खुद सोच समझ कर और विपक्ष के दबाव के बाद जातीय जनगणना की दिशा में काफ़ी क़दम आगे बढ़ा दिये हैं।पर वह शायद यह भूल गयी कि जातीय जनगणना के कर्नाटक के नतीजे आम करने में सत्तारूढ़ दल को दिकक्त पेश आई। बिहार में जातीय जनगणना के जो नतीजे सामने लाये गये, उस पर इतने सवाल उठे कि जातीय जनगणना का सवाल ही नेपथ्य में चला गया। लोगों को यकीन ही नहीं हुआ कि यह जनगणना बिहार के लोगों से की गयी है।
अब सवाल यह उठता है कि जब हिंदुत्व की सियासत करने वाली, सनातन की अलंबदार कोई राजनीति दल जातीय राजनीति का पिटारा खोल दे तो साफ़ साफ़ समझना चाहिए कि फ़िलहाल उस दल के जो प्लानर हैं, वो सही दिशा में काम नहीं कर रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी के इमेरजेंस का इकलौता कारण सिर्फ यह था और हैं भी कि इस पार्टी को सभी जातियों के थोड़े बहुत वोट मिल जाते हैं। उत्तर प्रदेश व बिहार में यादवों को छोड़ कर शायद ही कोई ऐसी जाति होगी, जो भारतीय जनता पार्टी को कम या ज़्यादा संख्या में वोट न देती हो।
एक ऐसा राजनितिक दल जिसके प्रधानमंत्री भले ही खुद को पिछड़ा कहते हों, ओबीसी चेहरा मानते हों, उनका पूरा दल मानता हो। लेकिन हकीकत यह है कि यह पार्टी जब बनी थी, जनसंघ के दौर में, तब यह ब्राह्मण और बनियों की पार्टी थी।फारवर्ड लोगों की पार्टी थी। इसके बाद जब अटल बिहारी वाजपेयी इस पार्टी का चेहरा बने । तब भी यह पार्टी कमोबेश फारवर्ड लोगों की ही पार्टी थी। नरेंद्र मोदी जब 2014 के चुनाव में राष्ट्रीय फलक पर उभर रहे थे।तो भी वह इसलिए नहीं कि वो ओबीसी हैं। बल्कि वह हिंदुत्व का चेहरा थे। और वो लंबे समय से अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के खिलाफ लड़ रहे थे।उन्होंने कभी भी अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की दिशा में कोई फ़ैसला नहीं किया। यही नही, गोधरा और अहमदाबाद के बाद जिस तरह नरेंद्र मोदी को तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताक़तें , कम्युनिस्ट लोगों ने घेरा। उससे भी हिंदुत्व जगा।और सनातन के लोगों को यह लगा कि नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय फलक पर बैठा कर यह साबित कर देना चाहिए कि अल्पसंख्यक के बिना भी केवल बहुसंख्यक मिल कर के बहुमत की सरकार बना सकते हैं। लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि यह पार्टी जातीय राजनीति करने लगी।
प्रधानमंत्री ने खुद कई बार अपने को ओबीसी चेहरा कहा। हिंदुत्व का चेहरा उनके पीछे एक बड़ा जनसमुदाय खड़ा करता है। लेकिन ओबीसी का चेहरा कहे जाने पर उस तरह के जनसमुदाय की उम्मीद नहीं की जाती । ऐसा नहीं कि सरकार ने पिछले दिनों जातीय सर्वेक्षण नहीं किया था। केंद्र सरकार ने पिछली बार जनगणना के समय जातियों से संबंधित आँकड़े इकट्ठा किये थे। उन आँकड़ों को सामने लाना उसके लिए संभव नहीं रहा। उसके पीछे दिक़्क़त क्या रही होगी खुद वह पॉलिटिकल पार्टी जानती होगी। उस समय की सरकार जानती होगी। पर कुछ तो ऐसा था, जिसके नाते सरकार के हौसले पस्त हो गये।
मैं आप को बताता हूँ उन कारणों का एक छोटा सा हिस्सा । पिछली बार की यानी 2011 की जनगणना में 46 लाख जातियाँ सामने आईं।1931 की जनगणना के समय इनकी संख्या 4157 थी। लेकिन भारतीय जनता पार्टी अब जातीय जनगणना करायेगी, उसने यह फ़ैसला कर लिया है। यह केवल फ़ैसला नहीं किया है बल्कि इस फ़ैसले का उसके ओबीसी नेता खूब स्वागत कर रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी में ओबीसी लीडर की बहुत कमी है। राष्ट्रीय अध्यक्ष फारवर्ड क्लास से आते हैं। प्रधानमंत्री ओबीसी नही, हिंदुत्व का कार्ड खेल कर आये हैं। हिंदुत्व ही उनकी फालोइंग है। हिंदुत्व ही उनकी ताकत है।
उत्तर प्रदेश को हम लेते हैं, तो उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने ओबीसी की सियासत तो सबलेट कर रखा है। निषाद जाति की सियासत संजय निषाद के हवाले कर रखी है। राजभर की सियासत ओम प्रकाश राजभर के हवाले कर रखी है। कुर्मी जाति की सियासत अनुप्रिया पटेल के हवाले कर रखी हैं। पार्टी के मुख्य मंत्री पिछले सात आठ सालों से फारवर्ड क्लास से हैं। ऐसे में कोई पॉलिटिकल पार्टी जातीय राजनीति खेले तो समझ में आना थोड़ा मुश्किल होता है।
हालाँकि जातिगत सर्वेक्षण कई पेंच पैदा करेगा। भारतीय जनता पार्टी को आज भले ख़ुशी हो रही हो , लेकिन जो पार्टी हिंदुत्व के अथाह समर्थन पर चल रही थी। वह जाति की बात कर रही हो तो सीधा सा ,साफ़ सा दिखता है कि कुछ न कुछ उस पार्टी के वोटों में सेंध लगना है। जब जातीय जनगणना की बात उठती है तो यह सवाल उठना लाजिमी हो जाता है कि आखिर इसकी माँग सबसे पहले किसने की ? और क्यों की?
जातिगत जनगणना की मांग को संगठित रूप से सबसे पहले बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम जी ने उठाया था। उनका तर्क था कि जब तक जनसंख्या के आधार पर विभिन्न जातियों का सही आंकड़ा नहीं होगा, तब तक सामाजिक न्याय और संसाधनों का समुचित बंटवारा संभव नहीं है। इसी सिद्धांत को आधार बनाते हुए उन्होंने एक प्रसिद्ध नारा गढ़ा था : "जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी"। यह नारा सामाजिक न्याय की लड़ाई में एक महत्वपूर्ण प्रतीक बन कर उभरा।
प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा 2019 से 2020 के बीच किए गए एक सर्वेक्षण में लगभग 30,000 वयस्क भारतीयों से 17 भाषाओं में सवाल पूछे गए। इस अध्ययन में पाया गया कि 98 फ़ीसदी भारतीय, चाहे वे किसी भी धर्म के हों, खुद को किसी न किसी जाति से जोड़ कर के देखते और प्रस्तुत करते हैं।
25 फ़ीसदी लोग ऐसे मिले जो खुद को अनुसूचित जाति (SC) से होना बताते थे।9 फीसदी अनुसूचित जनजाति (ST) से और 35 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) से संबंधित मानते मिले। भारत के 33फीसदी ईसाई स्वयं को अनुसूचित जाति से संबंधित मानते हैं, जबकि 43 फीसदी मुसलमान OBC के रूप में अपनी पहचान बताते हैं।
2011 की जनगणना में:केवल हिंदू, सिख और बौद्ध धर्मावलंबियों को SC के रूप में वर्गीकृत किया गया।अनुसूचित जनजातियों में सभी धर्मों के लोगों को शामिल किया गया।अनुसूचित जातियों के लिए आंकड़ा 17 फीसदी और अनुसूचित जनजातियों के लिए 9 फीसदी रहा। OBC की गणना 2011 की जनगणना में ((नहीं )’ की गई। हालांकि, 1990 में मंडल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सरकारी नौकरियों में OBC के लिए 27 फीसदी आरक्षण लागू किया।।
OBC की जनसंख्या का कोई आधिकारिक आंकड़ा आज भी उपलब्ध नहीं है, क्योंकि 2011 में की गई सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना (SECC) का डेटा गुणवत्ता कारणों से सार्वजनिक नहीं किया गया।आधार यह बनाया गया। पर हकीकत यह है कि उन आँकड़ों को देख कर सरकार के हौसले पस्त हो गये।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS), जो भारत का प्रमुख सरकारी सर्वेक्षण है, ((जाति पूछने के साथ-साथ )) अपनी सैंपलिंग पद्धति में जाति को भी शामिल करता है। 2015-16 के NFHS में जाति पर पूछे गए प्रश्नों के माध्यम से व्यापक डेटा संकलित किया गया। प्यू रिसर्च, NFHS और अन्य सर्वेक्षणों से प्राप्त भिन्न-भिन्न आंकड़े यह बताते हैं कि भारत को एक मजबूत और विश्वसनीय जाति आधारित डेटा प्रणाली की सख्त ज़रूरत है।
भारत में वर्ष 2015-16 में औसत कुल प्रजनन दर (Total Fertility Rate - TFR) 2.2 रही, जो प्रतिस्थापन स्तर 2.1 के बहुत करीब है। यदि धर्म के अनुसार देखा जाए, तो जैन समुदाय की प्रजनन दर सबसे कम 1.2 दर्ज की गई, जो न्यूनतम से भी कम है, बल्कि उनके उच्चतम औसत शिक्षा स्तर को दर्शाती है। इसके बाद सिख समुदाय की TFR 1.6 और बौद्धों समुदाय की 1.7 पाई गयी। ईसाई समुदाय की प्रजनन दर 2.0 रही मुस्लिम समुदाय की TFR 2.6 रही, जो 3.4 से गिरकर काफ़ी नीचे आई। पर प्रतिस्थापन स्तर से अधिक है।
जातीय आधार पर यदि आंकड़ों को देखा जाए, तो अनुसूचित जनजातियों (ST) की प्रजनन दर 2.5, अनुसूचित जातियों (SC) की 2.3, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) की 2.2, और सामान्य वर्ग की 1.9 रही। इससे यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों में प्रजनन दर अपेक्षाकृत अधिक बनी हुई है। आय के आधार पर तुलना करें, तो सबसे गरीब परिवारों में TFR 3.2 रही, जबकि सबसे अमीर वर्गों में यह मात्र 1.5 रही।हिंदू समुदाय की TFR 1.94 है, जो प्रतिस्थापन स्तर से नीचे आ गई है। यह जनसंख्या स्थिरता की ओर इंगित करता है।प्रतिस्थापन दर यह बताती है कि जो दावा किया जा रहा है कि भारत की जनसंख्या बहुत तेज़ी से बढ़ रही है, और ओबीसी समाज या दूसरे समाजों की हिस्सेदारी बढ़ाने की ज़रूरत है। और इसके लिए जातीय आँकड़े इकट्ठा करना ही इकलौता रास्ता है। वह ग़लत है।
ग़लत इसलिए भी कहा जा सकता है कि 2014 में सिद्धारमैया सरकार ने “सामाजिक एवं आर्थिक सर्वे” कराया। 2017 में रिपोर्ट तैयार हुई । लेकिन सार्वजनिक नहीं किया। इसमें हजारों लोगों ने अपनी उपजाति को प्रमुख जाति के तौर पर दर्ज करा दिया। जिससे 192 से अधिक नई जातियों का डेटा सामने आया। इनमें कुछ जातियों की जनसंख्या 10 से भी कम थी। इससे OBC वर्ग की संख्या तो बढ़ी। पर लिंगायत, वोक्कालिगा जैसे प्रभावशाली समुदायों की संख्या कम दिखने लगी। इसलिए रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हो सकी।
बिहार सरकार द्वारा अक्टूबर 2023 में जारी आंकड़ों के अनुसार राज्य की 63 फ़ीसदी आबादी पिछड़ा वर्ग से आती है। 27 फ़ीसदी लोग पिछड़ा वर्ग से आते हैं। 36 फ़ीसदी अति पिछड़े वर्ग से। SC की आबादी लगभग 20 फ़ीसदी है, जबकि 2011 में यह 15.9 फ़ीसदी थी।सामान्य वर्ग की आबादी लगभग 15 फ़ीसदी बताई गई है, अनुसूचित जनजातियाँ (ST): 1.68% हैं। लेकिन इस पर भी बहुत से सवाल उठे। जो लोग जातियों की सियासत कर रहे हैं, उनसे भी आप पूछें तो कोई भी आदमी अपनी जाति को दस बारह फीसदी से कम नहीं बताता है।
उत्तर प्रदेश में संजय निषाद कहते हैं कि बारह फ़ीसदी निषाद हैं। ओम प्रकाश राजभर कहते हैं कि दस फ़ीसदी राजभर हैं। अनुप्रिया पटेल से भी पूछें तो वह भी दो अंकों से नीचे उतरने को तैयार नहीं हैं। अगर इस लिहाज़ से देखा जाये तो ओबीसी की जनसंख्या तकरीबन सत्तर अस्सी फीसदी तक जा सकती है। क्योंकि आँकड़ों के मुताबिक़ शेड्यूल कास्ट , शेड्यूल ड्राइव मोटे तौर पर 22 फ़ीसदी बैठते हैं। 17.5 फीसदी के आसपास अल्पसंख्यक हैं। यह आँकड़ा 39 फ़ीसदी हो जाता है। अब जो बचता है अगर इन ओबीसी की सियासत करने वाले नेताओं से बात करें तो यह आँकड़ा भी आप को कम करना पड़ेगा।हालाँकि ये आँकड़े भारत सरकार के हैं, पर उन्हें इससे कोई मतलब नहीं है।
सवाल यह उठता है कि आखिर जातीय जनगणना के लिए समूचे राजनेता परेशान क्यों हैं। इसका सीधा सा कारण है कि अब वे जाति जाति खेलना चाहते हैं।अब वो समझ गये हैं कि उनके पास कोई बड़ा एजेंडा नहीं है। देश की जनता विकास के नाम पर वोट नहीं देती है। ओबीसी नेताओं ने जातीय जनगणना का सवाल बहुत शिद्दत से इसलिए उठाया क्योंकि डॉ राम मनोहर लोहिया कहते थे- पिछड़े पाँवें सौ में साठ। इन्हें लगा कि पिछड़ों की तादाद साठ फीसदी है और सत्ताइस फीसदी आरक्षण? पर ये भूल गये। इन्होंने राम मनोहर लोहिया जी को पढ़ा नहीं है, इसलिए ये भूल गये कि राम मनोहर लोहिया जी इस साठ फीसदी पिछड़ों में हर समाज की महिलाओं को भी शामिल करते थे। वो महिलाओं को भी पिछड़ा मानते थे। लेकिन अब सवाल यह उठ रहा है कि जब हर जातियों के आँकड़े सामने आयेंगे तो इनके जो अलंबरदार नेता हैं, जो अपनी जाति को दस बारह पंद्रह फ़ीसदी बता कर के सियासत कर रहे हैं। दूसरे दलों से समझौता किये बैठे हैं। और मलाई काट रहे हैं। ये यही तो कहेंगे कि हमारी जाति की गणना ठीक से नहीं की गयी।
दूसरा किसी भी देश के विकास के लिए जाति के आधार पर विकास की कोई रुपरेखा तैयार नहीं की जा सकती है। जब आरक्षण छोडने के लिए ओबीसी और दलित के तीसरी व चौथी पीढ़ी के लोग , जो आरक्षण से लाभान्वित हो चुके हैं, वो तैयार नहीं हैं। तो आखिर ओबीसी की सियासत करने वाले नेता क्यों चाहें कि उनके समाज का विकास उनकी तरह हो जाये। देश के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण सवाल है कि देश को जातियों में बाँटना नहीं चाहिए । बँटना नहीं चाहिए । जाति के आधार पर संसाधनों का बँटवारा नहीं , बँटवारा ज़रूरत के हिसाब से होना चाहिए । अंत्योदय के हिसाब से होना चाहिये । समाजवाद के हिसाब से होना चाहिए। इलाकाई विकास के हिसाब से होना चाहिए । जाति के आधार पर अगर विकास हो रहा है। तो आरक्षण का नतीजा आप देख लिजिए । मुट्ठी भर लोगों तक सिमट कर रह गया है। पता नहीं कितने सौ साल और लगेगें आरक्षण अंतिम आदमी तक पहुँच पायेगा या नहीं।
जातिगत जनगणना को वंचित समुदाय की पहचान व उत्थान के लिए जरूरी मानना एक सही फ़लसफ़ा नहीं हैं । क्योंकि इसी के साथ यह चेतावनी भी छुपी हुई आती है कि इससे जातिगत पहचान और मजबूत हो सकती है। सामाजिक विभाजन भी गहरे हो सकते हैं।देश जातियों में बँट सकता है। जातियों में एक दूसरे की संख्या को कम या ज़्यादा बताने की होड़ देखी जा सकती है।यह होड़ फ़ायदा पहुँचायेगी , कम से कम भारतीय जनता पार्टी को यह तो नहीं कहा जा सकता है। एकसाथ राजनीति दल जिसने अपनी ओबीसी की पूरी की पूरी सियासत सब लेटकर रखी हो , वो इस मुग़ालते में हैं कि जातिगत जनगणना करा कर उसे फ़ायदा हो जायेगा। जातिगत जनगणना का नतीजा क्या होगा?यह तो समय बतायेगा।
पर यह घोषणा व्यापक जातिगत गणना एक बड़े नीति परिवर्तन को दर्शाती है, लेकिन यह देखना अभी बाकी है कि डेटा कैसे एकत्र किया जाएगा, कैसे वर्गीकृत किया जाएगा और इसका उपयोग कैसे किया जाएगा। यह एक ऐसी चाल है, जिसका चलना ही, भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, समाज और दूसरे राजनितिक दलों के लिए भी फायदेमंद नहीं होगा।
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