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Caste Census: कौन है मोदी के मास्टर स्ट्रोक का निशाना, जाति जनगणना के नाम पर कहीं ये तो नहीं...
Caste Census: जब बिहार के राजनीतिक गलियारों में जातीय जनगणना की आवाज़ पहली बार गूंजी थी, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह मुद्दा 2025 के विधानसभा चुनाव का केंद्रीय बिंदु बन जाएगा।
Caste Census in India
Caste Census in India: जब बिहार के राजनीतिक गलियारों में जातीय जनगणना की आवाज़ पहली बार गूंजी थी, तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि यह मुद्दा 2025 के विधानसभा चुनाव का केंद्रीय बिंदु बन जाएगा। लेकिन अब जब नरेंद्र मोदी सरकार जातीय जनगणना की दिशा में कदम बढ़ा चुकी है, तो यह सवाल केवल आंकड़ों का नहीं, बल्कि राजनीतिक चालबाज़ियों, रणनीतियों और ध्रुवीकरण की बुनियाद का बन चुका है।
शुरुआत ऐसे हुई…
बात शुरू हुई जब विपक्षी दलों खासकर राहुल गांधी और तेजस्वी यादव ने जातीय जनगणना को लेकर केंद्र सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया। यह मांग वर्षों से उठती रही, लेकिन उसे सुनवाई अब मिली जब विपक्ष ने इस मुद्दे को अपनी ताकत और जनाधार बढ़ाने का हथियार बना लिया। खासतौर पर बिहार में, जहां जातिगत पहचान राजनीति की रगों में बहती है, यह मुद्दा किसी बम के धमाके से कम नहीं। अब केंद्र सरकार ने जब जातीय जनगणना का ऐलान किया है, तो राजनीतिक विश्लेषक इसे महज एक ‘आंकड़ा संग्रह’ नहीं, बल्कि सत्ता की एक बड़ी ‘सियासी स्क्रिप्ट’ मान रहे हैं।
तेजस्वी-राहुल को पस्त करने की चाल?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह कदम राहुल गांधी और तेजस्वी यादव जैसे नेताओं को मुद्दा विहीन करने के लिए उठाया गया है। ये वही नेता हैं, जिन्होंने जातीय जनगणना को सामाजिक न्याय और पिछड़ों की पहचान का सवाल बनाया था। अब जब सरकार खुद इसे करवा रही है, तो इन नेताओं की प्रमुख मांग पूरी हो चुकी है, और शायद यही सरकार की रणनीति है मुद्दे छीन लो, ताकत भी छिन जाएगी।
क्या मुस्लिम एकता को तोड़ने की कोशिश?
वक्फ बोर्ड संशोधन बिल के बाद मुस्लिम समुदाय ने जबरदस्त एकजुटता दिखाई थी, जो भाजपा के लिए चिंता का विषय बन गई। अब ये चर्चा ज़ोरों पर है कि जातीय जनगणना के ज़रिए इस एकता को जातीय पहचान में विभाजित करने की कोशिश हो रही है। सूत्रों का कहना है कि मोदी सरकार बिहार चुनाव में इसका परीक्षण करना चाहती है,क्या मुस्लिम वोट बैंक को जातियों में बांटकर विपक्ष की ताकत को कम किया जा सकता है?
दानिश इकबाल का बड़ा बयान
बिहार बीजेपी के मीडिया प्रभारी दानिश इकबाल ने एक चौंकाने वाला बयान देते हुए कहा कि मुस्लिम समाज में जातीय व्यवस्था का इनकार करना ही उन्हें पिछड़ा रखने की साजिश है। उन्होंने कई मुस्लिम उलेमाओं की रचनाओं का हवाला देते हुए बताया कि कैसे अरबी मूल के मुसलमानों को अजामी मुसलमानों से श्रेष्ठ बताया गया। उनके अनुसार, इस व्यवस्था ने मुस्लिम समाज में भी 'ऊँच-नीच' को जन्म दिया है, जो इस्लाम की मूल भावना के खिलाफ है।
शादी-ब्याह में भी भेदभाव
दानिश का यह भी कहना है कि मुस्लिम समाज में भी जातिगत ऊँच-नीच की परंपरा मौजूद है। अरब मूल का व्यक्ति गैर-अरब महिला से तो शादी कर सकता है, लेकिन इसके विपरीत विवाह को स्वीकार नहीं किया जाता। इसी तरह, एक पठान पुरुष अन्य जातियों की महिला से विवाह कर सकता है, लेकिन इन जातियों के पुरुष पठान महिला से विवाह नहीं कर सकते। ये सब परंपराएं कुरान की शिक्षाओं से भले ही मेल न खाएं, लेकिन समाज में गहराई तक पैठी हुई हैं।
तो क्या है सियासी गणित?
जातीय जनगणना के ज़रिए सरकार एक तीर से कई निशाने साधने की कोशिश कर रही है एक तरफ विपक्ष को मुद्दा विहीन करना, दूसरी तरफ मुस्लिम वोट बैंक को जातिगत विभाजन से तोड़ना और तीसरी ओर, बिहार चुनाव में सामाजिक समीकरणों को अपने पक्ष में मोड़ना।
जातियों की लंबी फेहरिस्त
जनरल मुस्लिमों में पठान, रिजवी, शेख, सिद्दीकी, सैय्यद, मिर्जा जैसे उच्च माने जाने वाले समुदाय हैं। वहीं, अति पिछड़ी और दलित श्रेणी में अंसारी, नट, फकीर, मेहतर, डफली, धोबी, बंजारा जैसे दर्जनों जातियां हैं। यह सूची न केवल सामाजिक जटिलता को उजागर करती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि मुस्लिम समाज भी जातिगत संरचना से अछूता नहीं है।
सामाजिक न्याय या राजनीतिक दांव?
अब देखना यह होगा कि बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में यह जनगणना किस रूप में सामने आती है,एक ऐतिहासिक सामाजिक सुधार के रूप में या फिर एक चालाक राजनीतिक दांव के तौर पर। एक बात तो तय है, बिहार की राजनीति फिर से जातियों के इर्द-गिर्द घूमने लगी है लेकिन इस बार केंद्र की सत्ता खुद इसे दिशा दे रही है।
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