Caste Census Update: तो गिन ही लो जाति

Caste Census Research Report: गिनती में क्या निकलेगा, अटकलें अपार हैं, अनुमानित आंकड़े अभी से पेश हैं, उम्मीदें और आशंकाएं भी भरपूर हैं। सब नज़रिए नज़रिए की बात है।

Yogesh Mishra
Published on: 7 May 2025 2:29 PM IST
Caste Census Research Report
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Caste Census Research Report

Caste Census Update: जातियों की गिनती का ऐलान हुआ है। मसला काफी अरसे से चला आ रहा था, तमाम नेता पार्टियां इसी मसले का राजनीतिक दानापानी इस्तेमाल कर रहे थे। खैर, अब राष्ट्रीय स्तर पर इसका ऐलान हो ही गया। होना तो था ही, बस कब होता यही इंतजार था। देश में व्यापक गिनती के साथ जाति भी पूछी जाएगी। सन 31 के बाद अब ऐसा होगा, करीब 100 साल बाद। गिनती में क्या निकलेगा, अटकलें अपार हैं, अनुमानित आंकड़े अभी से पेश हैं, उम्मीदें और आशंकाएं भी भरपूर हैं। सब नज़रिए नज़रिए की बात है।

हम और हमारा देश - दोनों ही अनोखे हैं। शायद ही किसी अन्य समाज या देश में इतनी विविधता है। सबसे बड़ी बात है जाति की विविधता। ये ठीक वैसे ही है जैसे अफ्रीकी देशों के कबीले। यूँ तो जाति व्यवस्था कई देशों में विभिन्न रूपों में मौजूद है, लेकिन भारत की टक्कर का कोई नहीं है। कहने को जाति-जैसी व्यवस्था वाले अन्य देशों में नेपाल, श्रीलंका और कुछ अफ्रीकी देश शामिल हैं।


हैरानी की बात ये है कि भारतीय समाज में हजारों साल से चली आ रही जाति व्यवस्था के महत्व के बावजूद, इस बात पर कोई आम सहमति नहीं है कि आज किस जाति वर्ग में कितने प्रतिशत भारतीय शामिल हैं। जो कुछ है, वो सिर्फ अटकल है। मीडिया की भी क्या कहें, एक वेबसाइट ने कहा दिया कि भारत में 46 लाख जातियां हैं। अब कौन तर्क करे कि इस हिसाब से तो 150 करोड़ के देश में हर जाति के हिस्से में मात्र 32 लोग ही आएंगे।

ऐसे में प्यू रिसर्च सेंटर का आंकड़ा सही लगता है कि भारत में 3 हजार जातियां और 25 से 30 हजार उपजातियां हैं। ये इस तरह से भी सही लगता है कि देश में हर राज्य की अपनी अपनी जाति लिस्ट है और उसका आंकड़ा भी इसी के आसपास है। सामाजिक - आर्थिक सर्वे भी ऐसा ही बताते हैं।

खैर, जातियों में बंटे समाज के लिए गिनती का आंकड़ा दो-चार साल में सामने आ ही जायेगा। आंकड़ा आने पर आगे क्या होगा? किस काम में लाया जाएगा जाति का आंकड़ा? क्या होगा उस आंकड़े का? इन सवालों पर न कोई चर्चा है और न कोई जिज्ञासा ही नजर आती है। चर्चा हो भी तो घूम फिर के बात वही कोटा-रिजर्वेशन पर टिक जाती है। लेकिन क्या जातिगत आंकड़े से सिर्फ कोटा ही तय करना है? अगर ऐसा है तो कोटा बढ़ेगा या घटेगा या कुछ और में बंटेगा। उससे हासिल क्या होगा, सवाल ये भी है। जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी- यह हिस्सेदारी होगी किसमें? विकास में, फ्री की सरकारी योजनाओं में, आरक्षण में विधानसभा,संसद और नगर निगम तथा पंचायत चुना में सीटों के आरक्षण में। पर ये कैसे लागू होगा? जब हजारों जातियां निकल कर आएंगी तो नौकरी/पढ़ाई का केक आखिर कितने हिस्सों में कटेगा? कटेगा भी तो किसको कितना मिलेगा । कम ज़्यादा मिलने की लॉग डॉट तो बनेगी ही। जिनको केक नहीं मिलना है, उन्हें अलग किस आधार पर करेंगे?


जिज्ञासा ये भी होनी चाहिए कि हमारे देश में चली आ रही जाति आधारित राजनीति का क्या होगा? क्या वो और भी मजबूती पकड़ेगी और ढेरों अन्य जातिगत समीकरण बन जाएंगे? इतना तय है कि जाति डेटा को भुना कर जाति-आधारित लामबंदी और क्षेत्रीय दल मजबूत हो सकते हैं। एक सवाल ये भी है कि कौमी एकता का क्या होगा? बटेंगे तो कटेंगे का क्या होगा? नम्बर में ज्यादा लेकिन कम प्रतिनिधित्व वाले समुदाय खुद को ज्यादा मजबूती से मुखर कर सकते हैं। वहीं, अनुपातहीन लाभ वाले छोटे ग्रुपों को विरोध का सामना करना पड़ सकता है।

सवाल कई हैं, पहले से न तैयारी है और न चर्चा और न ही कोई समाधान। ये बिहार, तेलंगाना और कर्नाटक में किये गए जाति सर्वे में देख लिया गया है। क्या हुआ उन आंकड़ों का? क्या नीतिगत बदलाव किए गए, क्या फायदा मिला? इनका कोई जवाब तो दूर, अब उनकी बात तक नहीं होती।

बहरहाल, ये जरूर जानिए कि जाति जनगणना के आंकड़ों के जारी होने से सामाजिक, राजनीतिक और नीतिगत निहितार्थ काफी व्यापक हो सकते हैं। सबसे बड़ी बात ये कि आरक्षण को नए सिरे से तय करने की मांग उठना लाजिमी है। ये मांग उन जातियों से आ सकती है जो अपनी संख्या की तुलना में कम भागीदारी महसूस करते हैं। ऐसे में ओबीसी के सब डिवीजन की मांग तेज हो सकती है। प्राइवेट सेक्टर में कोटे की मांग अभी से ही जोर पकड़ने लगी है।


जाति का मामला जटिल है। इतना जटिल कि न सन 31 के पहले किसी शहंशाह, सम्राट ने इसे छेड़ा और न बाद में अंग्रेजों ने। 2025 में हम सामाजिक - राष्ट्रीय विकास के किस मुकाम पर पहुंचे हैं, वो इसी जाति गिनती की राजनीति से पता चलता है। हो सकता है जाति गिनती से अच्छी चीजें भी निकल कर आएं। ऐसी चीजें, जिनका सभी स्वागत करें, जिनसे सभी खुश हूं, सभी संतुष्ट हों। कुछ ऐसा हो कि जाति का झंझट ही अगले सौ साल के लिए किनारे हो जाये। लेकिन क्या ऐसा होगा? इसका ईमानदार जवाब सभी जातियों वाले जानते हैं, लेकिन कहना कोई नहीं चाहता। दिक्कत यही है, जो खत्म होना मुश्किल है।दिक़्क़तों की एक नई शुरुआत की आशंका ज़्यादा डरा रही है।

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