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Bihar Election 2025: बिहार में कांग्रेस! पुराने क़द्दावर, नए संकट और तेजस्वी पर निर्भरता की राजनीति
Congress in Bihar: बिहार की राजनीति में कांग्रेस आज भी एक महत्वपूर्ण नाम है। लेकिन उसका प्रभाव अब गठबंधन की सीमाओं में सिमट कर रह गया है।
Congress in Bihar
Congress in Bihar: बिहार की राजनीति में कांग्रेस आज भी एक महत्वपूर्ण नाम है। लेकिन उसका प्रभाव अब गठबंधन की सीमाओं में सिमट कर रह गया है। कभी राज्य में सत्ता की धुरी रही कांग्रेस अब उस दौर में है, जहाँ वह अपने पुराने जनाधार को वापस पाने के बजाय, सहयोगियों के भरोसे पर टिकी हुई है। बिहार में पार्टी के पास न तो कोई करिश्माई मुख्यमंत्री-स्तर का चेहरा है, न ही राज्यव्यापी संगठनात्मक ताक़त। यही वजह है कि कांग्रेस को हर बार राजद और तेजस्वी यादव की राजनीति का सहारा लेना पड़ता है। यह लेख बिहार कांग्रेस की मौजूदा स्थिति, उसके क़द्दावर नेताओं, उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि, स्ट्रेंथ और वीकनेस के साथ-साथ पार्टी के चुनावी प्रदर्शन की पड़ताल करता है।
कांग्रेस के प्रमुख बिहार नेता, उनकी जाति और प्रभाव का दायरा
बिहार कांग्रेस के मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष राजेश कुमार ओबीसी पृष्ठभूमि से आते हैं। वे संगठन के स्तर पर सक्रिय नेता हैं। लेकिन राज्यव्यापी लोकप्रियता अभी सीमित है। उनकी ताक़त संगठन के भीतर संतुलन साधने और जिलों में समन्वय बनाने की क्षमता है, जबकि कमजोरी है जनता तक अपनी छवि पहुँचाने में सीमित पकड़।
अखिलेश प्रसाद सिंह, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद, जातीय रूप से राजपूत हैं। वे बिहार के ऊपरी-मध्य क्षेत्रों में राजनीतिक प्रभाव रखते हैं। उनकी ताक़त संसद और संगठन दोनों के अनुभव में है, जबकि उनकी कमजोरी है कि वे जनआंदोलन या बड़े पैमाने पर वोट-मोबिलाइज़ेशन की राजनीति में सीमित प्रभावी हैं।
तरीक़ अनवर, 2024 में कटिहार से कांग्रेस सांसद चुने गए। वे मुस्लिम समुदाय से आते हैं। सीमांचल में उनका गहरा प्रभाव है। वे कांग्रेस के सबसे अनुभवी चेहरों में से एक हैं, जो अल्पसंख्यक समाज में स्वीकृति और सम्मान रखते हैं। उनकी कमजोरी यह है कि सीमांचल के बाहर उनका प्रभाव सीमित है। वे बिहार के शेष इलाक़ों में कांग्रेस के लिए वोट-ट्रांसफर नहीं करा पाते।
मोहम्मद जावेद, किशनगंज से सांसद, कांग्रेस के अल्पसंख्यक चेहरों में प्रमुख हैं। उनका असर किशनगंज और सीमांचल में है। वे स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे स्थानीय मुद्दों पर काम करने वाले सरल नेता हैं। उनकी कमी भी वही है—सीमांचल से बाहर उनकी पहुँच सीमित है।
शकील अहमद ख़ान (कदवा से विधायक) और मदन मोहन झा (पूर्व प्रदेश अध्यक्ष, ब्राह्मण) कांग्रेस के अनुभवी संगठनात्मक चेहरे हैं। लेकिन वे जनता के बीच कोई जन-आकर्षक चेहरा नहीं बना पाए हैं। वहीं अजीत शर्मा (पूर्व विधायक, भागलपुर) शहरी नेटवर्क और व्यापारिक वर्ग में जाने जाते हैं, पर लगातार जीत बनाए रखना उनके लिए मुश्किल रहा है।
इन नेताओं पर फिलहाल कोई बड़ा भ्रष्टाचार या कोर्ट में सिद्ध आरोप नहीं हैं। हालांकि स्थानीय स्तर पर कभी-कभी छोटे विवाद सामने आते रहे हैं। लेकिन कांग्रेस के समकालीन नेतृत्व की छवि अपेक्षाकृत साफ़ रही है।
तेजस्वी यादव के सहारे की ज़रूरत
कांग्रेस के पास बिहार में अब तक कोई ऐसा मुख्यमंत्री-स्तर का नेता नहीं है जो पूरे राज्य में करिश्मा पैदा कर सके। पार्टी का संगठन बूथ से लेकर ब्लॉक और जिला स्तर तक राजद, जदयू और भाजपा की तुलना में बहुत कमजोर है। बिहार की जातीय राजनीति में कांग्रेस का परंपरागत वोट-बैंक — ऊँची जातियाँ, दलित, मुसलमान — अब चार हिस्सों में बँट चुका है। यादव और मुसलमान वोट राजद के पास चले गए हैं। ऊँची जातियाँ भाजपा के साथ हैं। महादलित-जदयू के साथ। कांग्रेस का शेष अल्पसंख्यक वोट अब तब ही असरदार होता है, जब वह राजद के यादव वोट के साथ जुड़ जाता है।
तेजस्वी यादव का मजबूत संगठन, बेहतर संसाधन और राज्यव्यापी पहुँच कांग्रेस के लिए अनिवार्य हो गई है। सीट-बंटवारे, प्रचार प्रबंधन और फंडिंग — इन सब मोर्चों पर कांग्रेस अब खुद नहीं, बल्कि राजद की गति पर चलती है।
कांग्रेस के चेहरों की स्ट्रेंथ और वीकनेस
तरीक़ अनवर सीमांचल में सबसे मज़बूत कांग्रेस चेहरा हैं। उनकी ताक़त मुस्लिम वोट-बैंक और कटिहार की पकड़ में है। पर बिहार के बाकी इलाकों में उनका प्रभाव सीमित है। मोहम्मद जावेद किशनगंज में लोकप्रिय हैं। लेकिन उनके नेतृत्व का असर सीमांचल से बाहर नहीं जाता।
अखिलेश प्रसाद सिंह का दिल्ली नेटवर्क और संसदीय अनुभव उन्हें पार्टी में वरिष्ठता देता है, पर वे ज़मीनी स्तर पर जनता से बहुत दूर दिखते हैं। शकील अहमद ख़ान और मदन मोहन झा की ताक़त संगठन की समझ है। लेकिन जन-आकर्षण और नए मतदाता वर्ग से जुड़ने की कमी उन्हें सीमित कर देती है। वहीं राजेश कुमार, जो नए अध्यक्ष हैं, संगठन में नई ऊर्जा लाने की कोशिश कर रहे हैं पर राज्यव्यापी करिश्मा अभी उन्हें हासिल नहीं हुआ है।
कांग्रेस का चुनावी प्रदर्शन
2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को बिहार में लगभग 8.56 फीसदी वोट मिले और उसने सुपौल व किशनगंज की दो सीटें जीतीं।2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 9 सीटों पर चुनाव लड़ा। लेकिन केवल किशनगंज की एक ही वोट जीत पाई। वोट प्रतिशत 7.85 फीसदी रहा और स्ट्राइक रेट 11.1 फासदी।
2024 के लोकसभा चुनाव में किशनगंज से मोहम्मद जावेद, कटिहार से तारिक अनवर और सासाराम से मनोज कुमार जीतने में कामयाब हुए। यह कांग्रेस की सीमांचल-केन्द्रित रणनीति का नतीजा था।
2015 का विधानसभा चुनाव महागठबंधन के साथ कांग्रेस ने 42 सीटों पर चुनाव लड़ा और 27 जीतीं।वोट प्रतिशत 6.7 फीसदी रहा। जबकि स्ट्राइक रेट 64 फीसदी रहा। यह कांग्रेस की हालिया सबसे बड़ी सफलता थी।
2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़ा। 19 सीटें जीतीं। 9.48 फीसदी वोट उसे मिले। और स्ट्राइक रेट 27 फीसदी ही रहा। 2015 की तुलना में 2020 का प्रदर्शन बताता है कि सीटें बढ़ाने से स्ट्राइक रेट घटा। राजद पर निर्भरता और बढ़ गई।
अपना नेतृत्व क्यों नहीं उभार पा रही
कांग्रेस का नेतृत्व-संकट ऐतिहासिक भी है और संरचनात्मक भी। 1990 के बाद बिहार की राजनीति लालू-नीतीश-बजेपी धुरी पर स्थिर हो गई। कांग्रेस का सामाजिक गठजोड़ बिखर गया। बूथ और ब्लॉक स्तर का संगठन ढह गया। पार्टी के पास न स्थानीय फंडिंग है, न प्रचार का इंफ्रास्ट्रक्चर। जातीय और वर्गीय प्रतिनिधित्व में भी पार्टी की पकड़ कमजोर है। वह युवा, महिला, ईबीसी और महादलित समुदायों में अपने विश्वसनीय चेहरे नहीं बना पाई। 2015 की सफलता के बाद 2020 का पतन इस अस्थिरता का प्रमाण है।
तेजस्वी पर निर्भरता के कारण
राजद का यादव-मुस्लिम कोर कांग्रेस के लिए विनिंग समीकरण बनाता है। कांग्रेस अपने अल्पसंख्यक वोट को तेजस्वी की यादव बेस के साथ जोड़कर ही प्रभावी बना सकती है। तेजस्वी के पास रैली और प्रचार प्रबंधन की गति, मीडिया नैरेटिव और बूथ स्तर का तंत्र है, जो कांग्रेस के पास नहीं। मुख्यमंत्री चेहरा न होने के कारण भी कांग्रेस को हर बार गठबंधन में तेजस्वी का सहारा लेना पड़ता है।
वर्तमान पोज़िशनिंग और क्षेत्रीय रणनीति
कांग्रेस की मौजूदा रणनीति सीमांचल और मिथिला के उन इलाकों पर केंद्रित है जहाँ अल्पसंख्यक आबादी अधिक है — किशनगंज, कटिहार, सासाराम जैसी सीटें। 2024 में इन इलाकों से तीन जीत इसी फोकस का परिणाम हैं। कांग्रेस अब महिला, अल्पसंख्यक और युवा मतदाताओं को लक्ष्य बनाकर राजद और वामपंथी पार्टियों के साथ पूरक राजनीति खेल रही है।
हालाँकि सीट-बंटवारे की अनिश्चितता, कार्यकर्ता स्तर पर समन्वय की कमी और “वोट-कट” की आशंका कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है।
बिहार में कांग्रेस के पास अब भी अनुभवी नेता हैं, सीमांचल में जेबें हैं और कुछ संसदीय सफलताएँ भी, लेकिन राज्यव्यापी प्रभाव की कमी बनी हुई है। पार्टी का कॉडर कमजोर है। नेतृत्व ऐसा नहीं जो बिहार की जनता में भावनात्मक आकर्षण पैदा कर सके। इसीलिए कांग्रेस तेजस्वी यादव की राजनीतिक छतरी के नीचे ही अपनी भूमिका तलाशती है।
2015 में जहाँ कांग्रेस ने 42 में से 27 सीटें जीतकर वापसी की थी, वहीं 2020 में 70 में से केवल 19 जीतना दिखाता है कि कांग्रेस को ‘कम सीट, बेहतर स्ट्राइक रेट’की नीति पर लौटना होगा। यानी जहाँ वह लड़े, वहाँ स्थानीय चेहरा और सामाजिक समीकरण सटीक हों। 2024 में किशनगंज, कटिहार और सासाराम की जीत ने यह साबित किया कि सही उम्मीदवार और सही गठजोड़ कांग्रेस को अब भी सफलता दिला सकता है।
लेकिन यदि कांग्रेस को भविष्य में बिहार में स्वतंत्र राजनीतिक पहचान बनानी है, तो उसे बूथ से लेकर ब्लॉक तक संगठन मजबूत करना होगा। मुख्यमंत्री स्तर का नया चेहरा उभारना होगा। वरना पार्टी गठबंधन में भागीदार तो रहेगी, लेकिन उसकी भूमिका निर्णायक नहीं बल्कि परिधीय ही बनी रहेगी।
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