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'धृतराष्ट्र' बने बैठे हैं नीतीश कुमार! अपराध से बजबजाते मोकामा पर बिहार सीएम ने क्यों साधी ली चुप्पी
मोकामा में हुई हत्या ने बिहार की राजनीति में हलचल मचा दी है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की खामोशी पर सवाल उठ रहे हैं, जबकि जनता बाहुबलियों और अपराध से त्रस्त है।
मोकामा का नाम फिर चर्चा में है लेकिन किसी विकास परियोजना या नई पहल के लिए नहीं, बल्कि एक खून से सनी सियासी कहानी के लिए। बिहार की राजनीति में उफान है, और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर उंगली उठ रही है। लोग पूछ रहे हैं क्या वह सचमुच ‘धृतराष्ट्र’ बन चुके हैं, जिनकी आंखें खुले होने के बावजूद कुछ देखना नहीं चाहतीं? क्योंकि मोकामा की गलियों में गोलियों की आवाजें अब सत्ता की खामोशी में गुम हो गई हैं।
शनिवार की देर रात जब जेडीयू उम्मीदवार व बाहुबली पूर्व विधायक अनंत सिंह को पुलिस ने गिरफ्तार किया, तो मोकामा थर्रा उठा। जनसुराज समर्थक दुलारचंद यादव की हत्या के आरोपों ने चुनावी मुकाबले की दिशा ही पलट दी। गांव का माहौल मातम में डूब गया। दुलारचंद के पोते नीरज जब थाने पहुंचे, तो आंखों में गुस्सा नहीं, बस अविश्वास था। उन्होंने कहा, “दादा सिर्फ समझाने निकले थे... उन्होंने गोली मार दी, फिर गाड़ी चढ़ा दी।”
यह बयान सिर्फ एक शोकग्रस्त पोते की नहीं, बल्कि उस पूरे समाज की चीख थी जो अपराध और राजनीति के इस संगम से थक चुका है। मोकामा में लोग अब हताश हैं यह जानते हुए कि सियासी ताकतों के लिए उनकी जिंदगियां बस एक आंकड़ा हैं।
जनसुराज उम्मीदवार पीयूष प्रियदर्शी का आरोप है कि यह हत्या कोई अचानक हुई घटना नहीं, बल्कि योजनाबद्ध हिंसा थी। उनका कहना था “मुझे मारने की साजिश नाकाम हुई, तो मेरे साथी को शिकार बना लिया गया।” सत्ता और प्रशासन पर सवाल उठाने वाले उनके वीडियो वायरल हो चुके हैं।
उधर, आरजेडी की उम्मीदवार वीणा देवी अपने पति और पूर्व सांसद सूरज भान सिंह के साथ मैदान में हैं। दुलारचंद यादव की अंतिम यात्रा सियासत के प्रदर्शन में तब्दील हो गई। ट्रैक्टरों पर जनसुराज और आरजेडी के समर्थक एक साथ नारे लगा रहे थे, पर असली दर्द कहीं खो गया, उस परिवार के बीच जो अब एक खाली कुर्सी को देख रहा है।
मोकामा का इतिहास बार-बार खुद को दोहरा रहा है। यह इलाका जैसे एक ऐसी बंद पगडंडी पर फंसा है जहाँ हर पांच साल में नया बाहुबली जन्म लेता है, और जनता फिर वही पुराने वादे सुनती है। अनंत सिंह को ‘छोटे सरकार’ कहने वाले लोग आज चुप हैं, लेकिन डर अब भी कायम है।
2020 में जब जेडीयू ने एक गैर-आपराधिक चेहरे, राजीव लोचन को टिकट दिया था, तो उम्मीद की किरण जगी थी। पर मोकामा ने एक बार फिर वही रास्ता चुना, डर का, ताकत का, धमक का। स्थानीय विश्लेषक कहते हैं, “यहां राजनीति नहीं, वर्चस्व चलता है। लोग नतीजे जानते हैं, लेकिन सवाल पूछने से डरते हैं।”
इस सबके बीच नीतीश कुमार की चुप्पी सब पर भारी है। वह जानते हैं कि मोकामा बिहार का आईना है जहाँ सत्ता और अपराध की साझेदारी इतनी पुरानी है कि अब उसे ‘सामान्य’ समझ लिया गया है। शायद इसी लिए लोग उन्हें ‘धृतराष्ट्र’ कहने लगे हैं एक ऐसा शासक जो सब देखता है, लेकिन सुनना और बोलना भूल गया है।
मोकामा की कहानी सिर्फ अपराध की नहीं, बल्कि उस लोकतंत्र की है जो धीरे-धीरे अपनी आत्मा खो रहा है।
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