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चुप्पी में छुपी है बिहार की लोकतांत्रिक जंग: वोटर लिस्ट पर सियासी मौन का असर
ECI: राजनीतिक दल व्यस्त हैं प्रेस कॉन्फ्रेंस में और मतदाता खुद ही लोकतंत्र की रक्षा में जुटे हैं।
ECI on Bihar Election: बिहार की राजनीति में जहां एक तरफ नेता जनता के बीच माइक लेकर लोकतंत्र बचाने की बात कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ लोकतंत्र की रीढ़ मतदाता सूची की रीढ़ खुद ही तुड़वाने में व्यस्त है। बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के ड्राफ्ट पर 1 अगस्त से चल रही दावा-आपत्ति की प्रक्रिया 1 सितंबर को थ्योरी में समाप्त हो चुकी है पर प्रैक्टिकली अभी तक इसकी आखिरी सांस कितनी गहरी थी इसका पता चुनाव आयोग को भी नहीं है... या शायद है, मगर मौन व्रत का पालन जरूरी है।
आयोग ने 1 सितंबर की सुबह 10 बजे तक के आंकड़े तो जारी किए शायद इसलिए कि सुबह-सुबह आंकड़े देना आयोग की फिजिकल फिटनेस में शामिल है। लेकिन उसके बाद क्या हुआ? कितने मतदाता लिस्ट में जुड़ने को मचल उठे, कितनों ने हमें क्यों निकाला? का फॉर्म भरा इसका कोई हिसाब नहीं। लगता है चुनाव आयोग को भी इस लोकतांत्रिक उत्सव से ब्रेक चाहिए था। सुप्रीम कोर्ट ने जब डांटा तो आयोग ने कहा कि डरिए मत। नामांकन की आखिरी तारीख तक हम सुनते रहेंगे। लेकिन अगर सुनने की प्रक्रिया इसी तरह कान में तेल डालकर होती रही तो अंतिम मतदाता सूची 30 सितंबर को नहीं बल्कि 2025 के चुनाव तक आए तो गनीमत मानी जाएगी।
राजनीतिक पार्टियों की ‘मौन क्रांति’
अब जरा उस त्रिमूर्ति पर नजर डालिए बीजेपी, आरजेडी और सीपीआई-एमएल। ये वो दल हैं जो हर गली-मोहल्ले में लोकतंत्र खतरे में है चिल्लाते नहीं थकते। लेकिन जब बात बीएलए के जरिए दावा-आपत्ति दर्ज कराने की आई तो तीनों मिलकर कुल 144 आवेदन दे पाए यानी प्रति दल 48। इसमें भी 25 नाम जोड़ने और 119 नाम हटाने के लिए। इतनी तपस्या करने के बाद ये दल अब शायद एक सप्ताह का पार्टी व्रत मनाएं। आखिर लोकतंत्र की रक्षा भाषणों से होती है फार्म-6 भरने से नहीं, यह शायद उनका नया राजनीतिक मंत्र है।
'डिजिटल इंडिया' बनाम 'फॉर्म इंडिया'
राजनेताओं की चुप्पी के बीच असली हीरो निकले आम मतदाता। वही मतदाता जिसे आम दिनों में नेता जी अज्ञानी जनता कहकर नजरअंदाज करते हैं। इन मतदाताओं ने डिजिटल इंडिया को पीछे छोड़ते हुए खुद फॉर्म भर-भरकर चुनाव आयोग को जगा दिया। 1 सितंबर तक कुल 36475 नाम जोड़ने और 2.17 लाख नाम हटाने के आवेदन आ चुके हैं। और तो और, 16 लाख 56 हज़ार युवाओं ने अपना नाम जोड़ने के लिए आवेदन किया। इसमें से केवल 45 आवेदन राजनीतिक दलों के बीएलए से आए बाकी सब जनता जनार्दन की कृपा। शायद अब वक्त आ गया है कि बूथ लेवल एजेंट का नाम बदलकर बूटलेस लेवल एजेंट रख दिया जाए। जो ना दिखते हैं, ना चलते हैं, और ना फॉर्म भरते हैं।
मतदाता सूची जनता की, मगर नेताओं से बचाकर
इस पूरे ड्रामे में चुनाव आयोग मौन है, राजनीतिक दल व्यस्त हैं प्रेस कॉन्फ्रेंस में और मतदाता खुद ही लोकतंत्र की रक्षा में जुटे हैं। यह दृश्य बिहार की राजनीतिक विडंबना का वह आईना है जिसमें नेताओं की गंभीरता धुंधली और जनता की जागरूकता चमकदार दिखती है। आखिर में एक सवाल बचता है कि जब 65 लाख नाम काट दिए गए और दलों ने मुंह फेर लिया तो लोकतंत्र का ‘कस्टमर केयर नंबर’ कौन है? जब तक जवाब नहीं आता बिहार की जनता फॉर्म भरती रहेगी... और चुनाव आयोग मौन साधे रहेगा।
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