TRENDING TAGS :
Suicide Cases: किशोरावस्था में बढ़ती आत्महत्याएं और हम.... किस दिशा में
Increasing Suicide Cases Among Teens : अहमदाबाद के एक विद्यालय की दसवीं कक्षा की छात्रा ने विद्यालय के चौथे तल्ले से कूद कर आत्महत्या कर ली।
Increasing Suicide Cases Among Teens (Image Credit-Social Media)
Increasing Suicide Cases Among Teens: सीसीटीवी फुटेज में छात्रा सामान्य रूप से विद्यालय के कॉरीडोर में चल रही है और हाथ में चाभी के रिंग को घुमा रही है। अचानक वह ग्रिल पर चढ़कर कूद जाती है। यह सब इतनी तेजी से होता है कि आसपास मौजूद दूसरे छात्र कुछ नहीं कर पाते हैं। छात्रा के कूदते ही अफरा-तफरी मच जाती है और छात्राएं और शिक्षिकाएं नीचे की तरफ भागते हैं। चौथीं मंजिल से गिरने से उसके सिर में गंभीर चोट आती है। उसे मस्तिष्काघात हुआ और उसके हाथ-पैर टूट गए और उस लड़की की जिंदगी नहीं बचाई जा पाई। एक और घटना में एक लड़का अपने माता-पिता से एक कंप्यूटर की मांग करता है। उसके माता-पिता जब उसे समझाते हैं कि वह कुछ समय बाद उसे लेकर दे देंगे क्योंकि अभी उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है। वह लड़का उस बात पर घर में बहुत झगड़ा करता है और घर छोड़कर चला जाता है। यह गनीमत रही कि वह दो दिन तक घर से गायब रहता है लेकिन कहीं पर भी वह आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाता है। दो दिन बाद उसके माता-पिता उसे खोज कर घर ले आते हैं। वह लड़का इस बीच में किन्हीं गलत हाथों में भी पड़ सकता था, गलत लोगों की संगत में भी पड़ सकता था। हो सकता था कि वह खुद आत्महत्या का विचार कर लेता या कुछ और बड़ा घातक कदम उठा लेता।
क्या होता जा रहा है हमारी युवा पीढ़ी को? क्या वे मानसिक रूप से इतने कमजोर हैं कि छोटी-छोटी बातों में भी बड़ा कदम उठाने से गुरेज नहीं करते है। जिस देश में 5 साल में 13 लाख महिलाएं और लड़कियां गायब हो जाती हैं, उस देश के बच्चों की सहनशक्ति, इच्छा शक्ति इतनी कमजोर हो चुकी है कि वे इस तरह के कदम उठा लेते हैं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, भारत में हर घंटे में एक छात्र आत्महत्या करता है, जिसमें हर दिन लगभग 28 आत्महत्याएं होती हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि 2018 में 10,159 छात्रों ने आत्महत्या की, 2017 में 9,905 और 2016 में 9,478 छात्रों ने आत्महत्याएँ की।
भारत में, खासकर बच्चों और किशोरों में आत्महत्या इस समय एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता का विषय बन चुका है। वार्षिक राष्ट्रीय आँकड़े इन आयु वर्गों में आत्महत्या से होने वाली मौतों में वृद्धि का चिंताजनक रुझान दर्शाते हैं।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी एक फैसले में छात्रों की बढ़ती हुई आत्महत्या को शिक्षा व्यवस्था की ढांचागत विफलता बताया है। न्यायालय ने शुक्रवार को छात्र आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं को लेकर चिंता जताई और इसे व्यवस्था की नाकामी बताया। उसने कहा कि इन घटनाओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की बेंच ने कहा कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट में बढ़ते आंकड़े परेशान करने वाले हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2022 में देशभर में कुल 1 लाख 70 हजार 924 लोगों ने आत्महत्या की, जिनमें से 13,044 छात्र थे। साल 2001 में छात्रों की मौत के आंकड़े 5,425 थे। रिपोर्ट के मुताबिक, 100 आत्महत्याओं में करीब 8 छात्र शामिल थे। इनमें से 2,248 छात्रों ने सिर्फ इसलिए जान दे दी, क्योंकि वे परीक्षा में फेल हो गए थे। ये सिर्फ आंकड़े नहीं हैं बल्कि ये हमारे समाज की भावी पीढ़ी की टूटती उम्मीदों से उपजी निराशा और पीड़ा का द्योतक हैं। हम अपने बच्चों को सिर्फ यही सिखा रहें हैं कि अलग-अलग बोर्ड की परिक्षाएं किस तरह से पास की जानी है। पर हम जिंदगी में आने वाली असफलताओं , नैराश्य से कैसे बचें , कैसे पार पाएं यह नहीं सिखा पाते हैं।
आज की युवा पीढ़ी पढ़ाई के बोझ, समाज के तानों, मानसिक तनाव और स्कूल-कॉलेज की बेरुखी जैसी वजहों से अपनी जान दे रही है। 4 मई को नीट की परीक्षा के कुछ घंटे पहले कोटा में 17 साल की छात्रा ने आत्महत्या कर ली। 4 मई को ही आईआईटी खड़गपुर के 22 वर्षीय छात्र ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। 6 मई को उच्चतम न्यायालय ने इन दोनों मामलों को स्वत: संज्ञान लिया और इस पर आगे कार्यवाही करी। उच्चतम न्यायालय का कहना है कि कॉलेजों को माता-पिता की तरह भूमिका निभानी होगी। कॉलेजों में आज भी जातिगत भेदभाव है, जिससे वंचित समुदायों के छात्रों में अलगाव की भावना बढ़ रही है जो कि संविधान के अनुच्छेद 15 का स्पष्ट उल्लंघन है। जब छात्र अपने घरों से दूर जाकर कॉलेजों में पढ़ते हैं, तो विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को लॉको पेरेंटिस (अभिभावक की भूमिका) निभाने की जरूरत है। कॉलेजों को सिर्फ नियम लागू नहीं करना है, बल्कि संकट की घड़ी में छात्रों को भावनात्मक सहारा भी देना है।
पिछले 26 वर्षों में किशोरावस्था में आत्महत्या की बढ़ती संख्या दिख रही है कि बच्चों के प्रति हम कितने संवेदनशील है। इन बढ़ती आत्महत्याओं के सबसे आम कारण पारिवारिक समस्याएँ, शैक्षणिक असफलता, बीमारी और बेरोज़गारी थे। दुनिया में अधिकांश आत्महत्याएँ निम्न और मध्यम आय वाले देशों में होती हैं। अध्ययन बताते हैं कि माता-पिता द्वारा बच्चों पर ध्यान नहीं दिया जाना ,बच्चों को बहुत अधिक छूट देना, उनकी सारी ज़रूरतें पूरी करना, बच्चों के प्रति अत्यधिक सुरक्षात्मक होना, बच्चों के ऊपर बहुत ज्यादा अपना नियंत्रण रखना, माता-पिता का खुद बहुत अधिक हाइपर होना, बच्चों के भविष्य के प्रति बहुत अधिक इच्छा रखना जैसे कारण भी बच्चों के ऊपर मानसिक दबाव डालते हैं। आजकल विवाह भी बहुत देरी से हो रहे हैं तो स्वाभाविक है कि बच्चे भी देरी से होते हैं और जब किशोरावस्था में हार्मोनल बदलाव होते हैं तो इस समय में एक मां के अंदर में भी बहुत सारे प्रीमेनोपॉज और मेनोपॉज को लेकर बदलाव होते हैं। उसकी वजह से भी किशोरावस्था के बच्चों में भी और मां में भी मूड स्विंग होने लगते हैं और दोनों बहुत अधिक एक दूसरे के साथ में असंतुलित व्यवहार करते हैं, उसका भी बच्चों पर बहुत अधिक असर पड़ता है। हर पीढ़ी को यह लगता है कि हम पिछली पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी से अधिक सुधरें हुए हैं। हम बजाय उनके साथ संतुलन बनाने के हम उन पर दोषारोपण ही करते हैं। खुद हमारे अपने बचपन के प्रतिकूल अनुभव भी हमारे बच्चों पर, हमारे स्वयं पर और हमारे बच्चों के प्रति लालन-पालन पर भी प्रभाव डालते हैं। हम जानते होते हैं कि हम गलत हैं पर हमें यह नहीं पता होता है कि हम उसे कैसे ठीक करें, जिससे हमारे ऊपर और हमारे बच्चों पर सकारात्मक प्रभाव पड़े।
आजकल बच्चे दिन भर फोन की स्क्रीन से लगे रहते हैं। यह हमें पता होता है कि हमारा बच्चा इस समय सोशल मीडिया, फोन का इतना अधिक आदी हो चुका है कि उन्हें अपनी डिजिटल आदतों को समझाना और उसे सही दिशा के लिए प्रेरित करना बहुत मुश्किल है। संतुलन बहुत जरूरी है , बच्चों को जहां प्यार चाहिए, वहीं थोड़े अनुशासन की भी आवश्यकता होती है। बजाए बहस या टकराव के सभी को बच्चों की परवरिश में बातचीत करके शामिल होना चाहिए। बच्चों के प्रति एक अहिंसक माता-पिता बनें। आजकल देखा जा रहा है कि पॉडकास्ट आदि पर बच्चे बड़े ही आत्मविश्वास के साथ अपने कंटेंट को प्रस्तुत करते नजर आते हैं। क्या हम बच्चों को सोशल मीडिया पर इतना लाना चाहिए? क्या हमें उन्हें इस तरह का इनफ्लुएंसर बनाना चाहिए कि जिसमें उनकी सक्रियता इतनी अधिक बनी रहे और अपनी फैन फॉलोइंग के प्रति वे बहुत ज्यादा सोचने लगे। क्या हम बच्चों को इस एडल्ट तरीके से सोचने ,बोलने ,समझने और एक्ट करने के लिए बढ़ावा नहीं दे रहे हैं? क्या यह सुरक्षित है? इससे जरूर उनकी सफलता बढ़ती है ,इससे जरूर वे आत्मविश्वासी भी होते हैं और उनको बहुत अधिक लोग जानने लगते हैं लेकिन यह आगे चलकर उनके लिए बिल्कुल भी सकारात्मक प्रभाव पैदा नहीं करता है। बच्चों को मारना ठीक नहीं होता है। अगर माता-पिता बहुत अधिक भावनात्मक है, उन्हें स्वयं को डर लगता है, वह बच्चों के लिए रोते हैं, उन्हें शर्म आती है या दुख होता है या छोटी-छोटी बातों पर भी टूट पड़ते हैं या उनकी सिर्फ ज़रूरतें पूरी करते हैं और उनके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ नहीं पाते हैं तो यह भी बच्चों के बचपन के प्रति प्रतिकूल अनुभव देते हैं। बच्चे चाहे किशोरावस्था के हों या युवावस्था के, हमारे साथ हों यह हमसे दूर, उनके साथ हमेशा संवाद बनाए रखना चाहिए, एक सकारात्मक संवाद। हम उन्हें सिर्फ सुझाव दे सकते हैं और उनमें इस तरह की समझ को विकसित कर सकते हैं कि वे सही और गलत सोचने में स्वयं ही सक्षम बनें। और जहां भी गलत हो वहां उन पर अतिरिक्त दबाव न डालकर, उन्हें समझदारी से समझा देना ही जरूरी होता है। आज की पीढ़ी भावनात्मक रूप से अत्यधिक कमजोर हो चुकी है और शारीरिक रूप से भी। क्योंकि पिछली पीढ़ी को अपने समय में जो सब नहीं मिला, वह सब कुछ अपने बच्चों को देना चाहती है , इस इच्छापूर्ति में वह उन्हें कोमल बना दे रही है। आवश्यकता है कि बच्चों को समझे , उनकी पीढ़ी को समझें और उनको उनके अनुसार, आज के अनुसार आगे बढ़ाएं ना् कि हम अपने समय से, हम जिस तरह से बड़े हुए उनको उसे तरह से आगे बढ़ाएं क्योंकि समय बदल चुका है, तकनीक बदल चुकी हैं और अब समझ के दायरे भी काफी हद तक बदल चुके हैं।
(लेखिका प्रख्यात स्तंभकार हैं।)
AI Assistant
Online👋 Welcome!
I'm your AI assistant. Feel free to ask me anything!