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हां... नड्डा और रिजिजू ने ही किया 'खेल' लेकिन इशारा 'बड़े साहब' का था! एक फोन कॉल, खुल गए धनखड़ के इस्तीफे के 'राज'
Jagdeep Dhankhar New Update: सरकार इस महाभियोग को लोकसभा से शुरू करना चाहती थी। क्यों? क्योंकि वहाँ बहुमत है और विरोधाभास की संभावना...
Jagdeep Dhankhar New Update: राजनीति में कुछ बातें सार्वजनिक होती हैं, कुछ गोपनीय और कुछ इतनी ‘संवैधानिक’ होती हैं कि हर संवैधानिक पदधारी उन्हें समझकर भी अनसुना कर देता है। लेकिन शायद उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ इस कला में थोड़े कच्चे निकले। इसलिए उन्होंने नियमों के दायरे में रहकर एक ऐसा काम कर दिया, जिससे सत्ता के गलियारों में ‘रूल बुक’ जलने लगी और तुरंत स्वास्थ्य कारणों का बहाना देकर उन्हें 'स्वस्थ लोकतंत्र' से छुट्टी लेनी पड़ी।
धनखड़ जी ने इस्तीफा दे दिया। कारण बताया स्वास्थ्य। अब इसमें भी संशय है कि यह शारीरिक स्वास्थ्य का मामला था या राजनीतिक ब्लड प्रेशर का। आखिरकार लोकतंत्र में कुछ बीमारियां भी ‘संवैधानिक’ होती हैं जैसे नियमों के पालन से उत्पन्न बेचैनी, निर्भीकता से फैली एलर्जी और स्वतंत्र फैसलों से होने वाली खुजली। मामले के दौरान जेपी नड्डा और रिजिजू ने कई बार धनखड़ से बात की लेकिन बात कुछ बन न पाई।
महाभियोग से 'मूड बिगड़ने' तक
घटना कुछ यूँ घटी कि राज्यसभा में न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ विपक्ष ने महाभियोग प्रस्ताव दिया और धनखड़ जी ने उसे स्वीकार कर लिया। यह सब नियमों के तहत था, लेकिन यही नियमों में रहना आजकल शायद सबसे बड़ा नियम-भंग माना जाता है।
फिर क्या था दो केंद्रीय मंत्री स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा और संसदीय मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू तत्काल ‘संवैधानिक फर्स्ट एड किट’ लेकर उपराष्ट्रपति भवन पहुँचे। अंदरूनी सूत्रों की मानें तो बातचीत की टोन ऐसी थी कि मानो उन्होंने पूछा हो 'आपको नियम पसंद हैं या कुर्सी?'
रिजिजू ने कथित तौर पर समझाया कि महाभियोग की संवैधानिक प्रक्रिया लोकसभा से निकलती है, जैसे देश की सारी योजनाएं ‘मन की बात’ से। उन्होंने यह भी संकेत दिया कि प्रधानमंत्री जी इस स्वतंत्र कदम से प्रसन्न नहीं हैं। जिस पर धनखड़ जी ने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया, मैं तो नियमों में ही हूँ, बाकी लोग चाहें तो संविधान का नया संस्करण छपवा लें।
स्वास्थ्य कारण: अब नया राजनैतिक कोडवर्ड?
‘स्वास्थ्य कारण’ आज की राजनीति का वह मासूम मास्क है जिसके पीछे से सबसे धूर्त खांसी भी बेकसूर लगती है। जब कोई नेता पार्टी बदलता है तो वो ‘विचारधारा की खांसी’ बताता है। जब कोई इस्तीफा देता है, तो ‘पारिवारिक सिरदर्द’ होता है। और जब उपराष्ट्रपति पद छोड़ता है तो 'ब्लड प्रेशर' ही बढ़ जाता है भले ही BP का कारण PMO की कॉल हो।
खबरों की मानें, तो इस महाभियोग नोटिस पर 63 सांसदों ने हस्ताक्षर किए थे और यह संख्या ही शायद सत्ता के लिए 'तापमान सूचक' बन गई। राजनेताओं की आदत होती है कि जब 63 लोग एक तरफ हों, तो सरकार को लगता है कि देश की दिशा ही गलत है और वह नोटिस की जगह नोटबंदी पर विचार करने लगती है।
BAC मीटिंग और 'अचानक आई अनुपस्थिति'
सोमवार को दो BAC (बिजनेस एडवाइजरी कमेटी) की बैठकें थीं। पहली में सब उपस्थित थे, लेकिन दूसरी में नेताओं ने पर्यावरण के अनुरूप मौन अपनाने का फैसला किया। खबरों के मुताबिक, शाम 4:30 की बैठक में कोई नहीं पहुँचा। ऐसा पहली बार हुआ जब राजनेताओं ने समय से पहले ही 'वाकआउट' कर लिया वो भी बिना नारेबाजी के।
सत्ता की हैरानी या नियमों की हार?
मीडिया की एक रिपोर्ट बताती है कि सरकार इस महाभियोग को लोकसभा से शुरू करना चाहती थी। क्यों? क्योंकि वहाँ बहुमत है और विरोधाभास की संभावना कम है। लेकिन धनखड़ जी ने शायद भूल से यह मान लिया था कि राज्यसभा भी कोई ‘संसद’ है, न कि सिर्फ पासिंग स्टेशन।
धनखड़ जी चले गए। कारण स्वास्थ्य बताया गया, लेकिन असल में बीमारी लोकतंत्र के उस हिस्से को लगी है जहाँ ‘नियमों का पालन’ अब बगावत समझा जाता है। सत्ता की उम्मीद थी कि संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति ‘संवैधानिक मौन’ अपनाएगा। लेकिन धनखड़ जी ने नियमों को पढ़ लिया, समझ भी लिया और सबसे बड़ी गलती उन्हें लागू भी कर दिया।
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