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Left Parties in Bihar: बिहार में वामदल! संघर्ष की ज़मीन पर कायम एक वैचारिक राजनीति
Left Parties in Bihar: बिहार आज भी भारत का वह राज्य है जहाँ वामदल अपनी वैचारिक और संगठनात्मक उपस्थिति बनाए हुए हैं।
Left Parties in Bihar Assembly Election 2025
Left Parties in Bihar: बिहार आज भी भारत का वह राज्य है जहाँ वामदल अपनी वैचारिक और संगठनात्मक उपस्थिति बनाए हुए हैं। देश के अधिकांश हिस्सों — बंगाल, केरल, त्रिपुरा — में वामपंथी राजनीति का प्रभाव घट चुका है, लेकिन बिहार में ये अब भी ज़मीन पर जिंदा हैं। वजह है — वर्ग आधारित संघर्ष, भूमि सुधार आंदोलन की विरासत, और सामाजिक–आर्थिक असमानता के बीच आम आदमी तक पहुँच रखने वाली वैचारिक राजनीति। बिहार के गाँवों में वामदलों की पकड़ दलित, महादलित, मुसलमान, खेत-मज़दूर और गरीब किसानों के बीच आज भी मजबूत है। वामदलों की राजनीतिक ताक़त बिहार के पश्चिमी–मध्य पट्टी (अरवल–जहानाबाद–गया–रोहतास–आरा/भोजपुर–काइमूर) और सीमांचल (किशनगंज–कटिहार–अररिया–पूर्णिया) में अधिक दिखाई देती है। यही वे बेल्ट हैं जहाँ वर्ग-आधारित गतिशीलता, ज़मीनी मुद्दे (भूमि, मज़दूरी, स्कूल–स्वास्थ्य, स्थानीय प्रशासन) और छात्र-युवाओं की वैचारिक सक्रियता एक साथ दिखती है।
बिहार में सक्रिय वामदल और उनका प्रभाव क्षेत्र
बिहार की वाम राजनीति का केंद्र तीन प्रमुख दल हैं — भाकपा (माले) लिबरेशन, भाकपा (CPI) और माकपा (CPI-M)।इन तीनों में भाकपा (माले) लिबरेशन सबसे प्रभावशाली है। यह दल अपने आक्रामक कैडर, मज़दूर–किसान आंदोलनों और छात्र संगठनों से जुड़ाव के कारण आज भी ग्राउंड पर सबसे सक्रिय है।
भाकपा (माले) का प्रभाव आरा, भोजपुर, अरवल, जहानाबाद, गया, सीवान, दरभंगा, पालीगंज, बलरामपुर, तरारी और अगिआंव जैसे क्षेत्रों में दिखता है।
CPI और CPI(M) की उपस्थिति सीमांचल, मगध और पटना ज़िले के कुछ हिस्सों में है। माले की जड़ें गाँवों, पंचायतों और आंदोलनों में हैं, जबकि CPI और माकपा का असर कुछ यूनियनों, शिक्षकों, सरकारी कर्मचारियों और बुद्धिजीवी वर्ग तक सीमित है।
वामदलों के क़द्दावर नेता
डिपांकर भट्टाचार्य (CPI-ML) - भाकपा (माले) लिबरेशन के महासचिव। जातीय रूप से ब्राह्मण, पर राजनीतिक पहचान वर्ग-संघर्ष की वैचारिक धारा में।विचारधारा की स्पष्टता, ईमानदार और जन-आंदोलनकारी छवि। युवाओं, छात्रों और बुद्धिजीवियों के बीच मजबूत अपील पर राज्यव्यापी करिश्मा सीमित; मुख्यमंत्री चेहरे की संभावना नहीं बन पाई।आंदोलनकारी मामलों के अलावा कोई भ्रष्टाचार या व्यक्तिगत केस नहीं।
कुनाल (राज्य सचिव, CPI-ML) - भोजपुर-आरा बेल्ट से आते हैं, संगठन के मजबूत चेहरा।बूथ नेटवर्क, पंचायत और जिला स्तर पर पकड़; हर छोटे आंदोलन को मुद्दा बनाने की क्षमता।कमजोरी मीडिया अपील सीमित, नेतृत्व क्षमता मुख्यालय तक केंद्रित होना है।
सुदामा प्रसाद (MLA, तरारी) - दलित पृष्ठभूमि से आने वाले आक्रामक आंदोलनकारी नेता हैं। वर्ग-आधारित राजनीति, स्थानीय जनता से जुड़ाव, ईमानदार छवि वाले नेता माने जाते हैं। पर कमजोरी यह है कि संसाधनों की कमी और गठबंधन की राजनीति में सीमित प्रभाव।
मनोज मंजिल (MLA, अगिआंव) - अति-दलित समाज से आने वाले छात्र राजनीति से निकले युवा नेता हैं। ये युवाओं में लोकप्रिय हैं। आंदोलनकारी नेताओं में शुमार इनको पास लोक-भाषा में संवाद के हुनरमंद माने जाते हैं।पर प्रशासनिक अनुभव कम है। साथ ही गुटबाज़ी के आरोपों से जूझते रहते हैं।
अमरजीत कुशवाहा (MLA, दरौली) - कुशवाहा (ओबीसी) समुदाय से; सीमांचल से जुड़ा कैडर चेहरा।जातीय समीकरण और वर्ग आंदोलन दोनों को जोड़ने की क्षमता है पर राज्य-स्तर पर पहचान सीमित।
महबूब आलम (MLA, बलरामपुर) - मुस्लिम समाज के लोकप्रिय नेता। सीमांचल में दलित–मुस्लिम एकता के प्रतीक माने जाते हैं। लेकिन मुस्लिम बहुल इलाक़े के बाहर वोट-ट्रांसफर सीमित।
CPI और CPI(M) के पुराने नेताओं में अजय कुमार, अवधेश कुमार, और राम नरेश पांडे जैसे नाम संगठन चलाते रहे हैं, पर नई पीढ़ी में उनका राजनीतिक करिश्मा कमज़ोर है।
वामदलों की सामाजिक संरचना
बिहार में वामदलों की राजनीति जाति से ऊपर वर्ग संघर्ष के सिद्धांत पर आधारित रही है। लेकिन बिहार की सामाजिक संरचना को देखते हुए जातीय प्रतिनिधित्व को नज़रअंदाज़ भी नहीं किया जा सकता। CPI(ML) ने दलित, अति-दलित, ओबीसी, और मुसलमानों के बीच गहरी पैठ बनाई है।यह पार्टी किसान–मज़दूर, शिक्षक, बेरोजगार, और छात्र समूहों में सबसे ज्यादा सक्रिय है। CPI और माकपा की पकड़ सीमांचल के गरीब–मुस्लिम समुदायों और पुराने यूनियनों में है।
तेजस्वी यादव के सहारे की जरूरत
बिहार का राजनीतिक गणित यह तय करता है कि बिना किसी बड़े जातीय आधार के कोई दल अकेले सत्ता तक नहीं पहुँच सकता।राजद के पास यादव–मुस्लिम का ठोस सामाजिक आधार है।एनडीए के पास सवर्ण, ईबीसी और महिला मतदाता हैं। वामदलों का वोट कुछ जिलों में मजबूत है लेकिन पूरे बिहार में ट्रांसफर योग्य नहीं।
तेजस्वी यादव के साथ गठबंधन करने से उन्हें मुस्लिम यादव वोट का सहारा मिलता है, जिससे उनकी सीटें बढ़ जाती हैं।
दूसरा कारण संसाधन और प्रचार तंत्र का है। वामदलों के पास मीडिया अपील, प्रचार वाहन, फंडिंग या बड़े स्तर पर प्रबंधन का अभाव है। तेजस्वी की मशीनरी इस कमी को पूरा करती है।तीसरा कारण मुख्यमंत्री चेहरा न होना है। तेजस्वी का युवा चेहरा और जन-अपील गठबंधन को एक ‘फ्रंट’ देता है, जिसमें वामदल एक वैचारिक पूरक की भूमिका निभाते हैं।
वाम नेताओं की ताक़त और कमज़ोरी
तेजस्वी यादव का राजनीतिक करिश्मा और संगठन वामदलों के लिए लाभदायक है, लेकिन यही उनके लिए चुनौती भी है।डिपांकर भट्टाचार्य विचार और ईमानदारी के प्रतीक हैं, पर करिश्मा और लोक-भाषा की कमी उन्हें सीमित बनाती है।कुनाल संगठन के माहिर हैं, लेकिन राज्यव्यापी पहचान नहीं बना पाए।मनोज मंजिल जैसे युवा चेहरे लोकप्रिय हैं पर अनुभवहीन।सीपीआई और माले के पुराने नेता अब बूढ़े पड़ चुके हैं, और नई पीढ़ी में वैचारिक गर्मी तो है, पर संसाधन और संगठन उतना मज़बूत नहीं।
लोकसभा चुनावों में प्रदर्शन
2014, 2019 और 2024 — तीनों चुनावों में वामदलों की सीटें शून्य रहीं।2019 में बेगूसराय में CPI ने कन्हैया कुमार को उम्मीदवार बनाया। उन्होंने चर्चाएँ जरूर बटोरीं लेकिन जीत नहीं सके।2024 में INDIA गठबंधन के हिस्से के रूप में CPI, CPI(M) और CPI(ML) को सीमित सीटें मिलीं, लेकिन जीत का खाता नहीं खुला।
विधानसभा चुनावों में प्रदर्शन
2015 में वामदल लगभग ग़ैर-मौजूद रहे।2020 में उन्होंने शानदार वापसी की। माले ने 19 में से 12 सीटें जीतीं। सीपीआी ने 6 में से 2, और माले ने 4 में से 2 सीटें जीतीं।
कुल मिलाकर 16 सीटें और लगभग 5 फ़ीसद वोट शेयर, यह वामदलों के लिए एक बड़ी उपलब्धि थी।यह वही चुनाव था जिसमें महागठबंधन में शामिल होकर वामदलों ने दिखाया कि सही सीट चयन और राजद का वोट ट्रांसफर मिलने पर वे दोहरे अंकों में पहुँच सकते हैं।
बिहार में ही क्यों जिंदा हैं वामदल
देश के बाकी हिस्सों में वामदल अपनी वैचारिक ज़मीन खो चुके हैं क्योंकि वहाँ वर्ग-संघर्ष की राजनीति को क्षेत्रीय जातीय दलों और भाजपा-कांग्रेस की सत्ता प्रतिस्पर्धा ने निगल लिया।लेकिन बिहार की राजनीति अभी भी भूमि, मज़दूरी, गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य और पंचायत जैसे मुद्दों पर जिंदा है।यहाँ जातीय विभाजन जितना गहरा है, वर्गीय विषमता उतनी ही बड़ी है।भोजपुर, गया, जहानाबाद, अरवल और सीमांचल के गाँवों में आज भी किसान-मज़दूर संघर्ष, भूमि विवाद और प्रशासनिक भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे हैं जिन पर वामदल राजनीति करते हैं।
बिहार में राजद और वामदल का पूरक समीकरण- मुस्लिम व यादव तथा वामदलों का वर्ग कैडर दोनों के लिए लाभकारी साबित होता है।इसलिए वामदल यहाँ ज़िंदा हैं, मज़बूत हैं और प्रासंगिक हैं।
बिहार की वाम राजनीति की नई परीक्षा
बिहार के वामदल वैचारिक रूप से अब भी सबसे ईमानदार राजनीतिक ताक़त माने जाते हैं। लेकिन नेतृत्व की कमी और संसाधन-संकट उन्हें गठबंधन पर निर्भर बनाता है।2020 की सफलता ने यह दिखाया कि वामदल जब अपने गढ़ों में चुनाव लड़ते हैं और राजद के साथ तालमेल सही रहता है, तो वे निर्णायक साबित हो सकते हैं।2025 में उनके सामने यही परीक्षा है — क्या वे 2020 के स्ट्राइक-रेट को फिर दोहरा पाएंगे?क्या वे वर्ग संघर्ष के मुद्दों को फिर से जनता की भावनाओं में बदल पाएंगे? अगर हाँ, तो बिहार में वामदल एक बार फिर ‘किंगमेकर लेयर’ साबित होंगे।अगर नहीं, तो वे भी गठबंधन-निर्भर विपक्षी सहयोगी बनकर रह जाएँगे।
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