नेपाल बन सकता था कभी भारत का हिस्सा? नेहरू ने कर किया था इनकार

नेपाल में राजनीतिक संकट और विरोध-प्रदर्शनों के बीच यह सवाल उठता है कि क्या नेपाल कभी भारत में विलय हो सकता था?

Shivam Srivastava
Published on: 9 Sept 2025 6:48 PM IST (Updated on: 9 Sept 2025 6:49 PM IST)
नेपाल बन सकता था कभी भारत का हिस्सा? नेहरू ने कर किया था इनकार
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वर्तमान समय में नेपाल एक गहरे राजनीतिक संकट से गुजर रहा है। सोशल मीडिया बैन के खिलाफ जन-आक्रोश ने ऐसा रूप लिया है कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली समेत उनके कई सहयोगी मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा है। काठमांडू सहित देश के कई हिस्सों में युवाओं के नेतृत्व में विरोध-प्रदर्शन, आगजनी, पथराव और हिंसा की घटनाएं लगातार हो रही हैं। राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल के आवास तक पर भीड़ ने कब्ज़ा कर लिया और तोड़फोड़ की।

इस अशांति और अराजकता के बीच एक पुराना सवाल फिर चर्चा में है क्या नेपाल कभी भारत का हिस्सा बन सकता था? और अगर हां, तो क्या भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने नेपाल को भारत में मिलाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया था?

भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अपनी चर्चित आत्मकथा ‘The Presidential Years’ में यह दावा किया था कि नेपाल के राजा त्रिभुवन बीर बिक्रम शाह ने नेहरू को सुझाव दिया था कि नेपाल को भारत का एक प्रांत बना दिया जाए। लेकिन नेहरू ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। नेहरू का मानना था कि नेपाल को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान बनाए रखनी चाहिए। उन्होंने नेपाल में लोकतंत्र को मज़बूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनके नेतृत्व में भारत ने नेपाल के राणा शासन के खिलाफ हुए आंदोलन का समर्थन किया और वहां संवैधानिक राजतंत्र की बहाली में सहयोग किया।


नेहरू के काल में ही, 1950 में भारत और नेपाल के बीच एक महत्वपूर्ण शांति और मैत्री संधि पर हस्ताक्षर हुए। यह संधि भारत के प्रतिनिधि चंद्रेश्वर प्रसाद नारायण सिंह और नेपाल के प्रधानमंत्री मोहन शमशेर राणा के बीच हुई थी। इसका उद्देश्य दोनों देशों के बीच राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक सहयोग को बढ़ावा देना था। इस संधि में कहीं भी नेपाल के भारत में विलय की बात नहीं थी बल्कि यह स्पष्ट रूप से दो संप्रभु देशों के बीच मित्रता की बात करती है।

क्या वाकई नेपाल ने भारत में विलय की इच्छा जताई थी?

इस मुद्दे पर इतिहासकारों और राजनयिकों की राय बंटी हुई है, लेकिन ज़्यादातर विशेषज्ञ इसे महज़ अफवाह मानते हैं। प्रोफेसर मुनि का कहना है कि न तो नेपाल के राजा त्रिभुवन ने कोई औपचारिक प्रस्ताव दिया था और न ही भारत के पास ऐसा कोई दस्तावेज़ मौजूद है। उनके अनुसार यह पूरी कहानी महज राजनीतिक कल्पना और अफवाहों पर आधारित है।

नेपाल में भारत के पूर्व राजदूत लोकराज बराल भी इसी विचार को दोहराते हैं। उनका कहना है कि राजा त्रिभुवन भारत से करीबी रिश्तों के पक्षधर जरूर थे, लेकिन भारत में विलय की कोई औपचारिक या स्पष्ट मांग नहीं थी।

कुछ लेखों में यह दावा किया गया है कि सरदार वल्लभभाई पटेल ने नेहरू से नेपाल को भारत में मिलाने की सिफारिश की थी। लेकिन इन दावों के पीछे भी कोई ठोस दस्तावेज़ या प्रमाण नहीं हैं। यह पूरी बहस केवल अनुमानों और राजनीतिक एजेंडों पर आधारित लगती है।

नेहरू एक दूरदर्शी नेता थे और अंतरराष्ट्रीय राजनीति को अच्छी तरह समझते थे। वे जानते थे कि उस दौर में भारत अगर किसी और देश को अपने में मिलाने की कोशिश करता, तो अमेरिका, ब्रिटेन और चीन जैसे देश राजनयिक दबाव बना सकते थे। इसीलिए, उन्होंने नेपाल को स्वतंत्र और संप्रभु बनाए रखने की नीति को अपनाया। उस समय गोवा के भारत में विलय को लेकर भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय में काफी विरोध हुआ था। ऐसे में नेपाल जैसे पड़ोसी देश को भारत में मिलाना भारत की छवि को अंतरराष्ट्रीय मंच पर नुकसान पहुंचा सकता था।


1951 में जब नेपाल में राणा शासन का अंत हुआ, तब राजा त्रिभुवन नेपाल लौटे और संवैधानिक राजतंत्र की स्थापना की। इस बदलाव के पीछे नेपाली कांग्रेस, असंतुष्ट राणाओं और भारतीय समर्थन की अहम भूमिका थी। 1950 में नेपाली कांग्रेस ने राणा शासन के खिलाफ क्रांति की घोषणा की थी, और यही विद्रोह त्रिभुवन की सत्ता में वापसी का कारण बना।

लेखक अमीश राज मुल्मी के अनुसार, यह बदलाव आसान नहीं था, लेकिन संयुक्त प्रयासों से नेपाल में लोकतंत्र की नींव रखी गई। शुरुआत में नेपाल भारत पर अत्यधिक निर्भर था। लेकिन समय के साथ नेपाल ने अपनी विदेश नीति में विविधता लानी शुरू की। राजा महेंद्र के समय में भारत से थोड़ी दूरी और अन्य देशों जैसे चीन से निकटता की नीति अपनाई गई। यह कूटनीतिक संतुलन आज भी नेपाल की राजनीति में देखा जा सकता है। शोधगंगा में प्रकाशित एक शोध लेख के अनुसार, कुछ विचारकों का मानना है कि राजा त्रिभुवन भारत में विलय के इच्छुक थे। लेकिन यह केवल एक विचार था, न कि कोई औपचारिक प्रस्ताव।

प्रोफेसर मुनि और अन्य विशेषज्ञ इस दावे को पूरी तरह से खारिज करते हैं। दिल्ली स्थित नेपाली पत्रकार आकांक्षा शाह भी मानती हैं कि नेपाल हमेशा से एक स्वतंत्र राष्ट्र रहा है और किसी विलय के पीछे कोई दस्तावेज़ नहीं है।

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Shivam Srivastava is a multimedia journalist with over 4 years of experience, having worked with ANI (Asian News International) and India Today Group. He holds a strong interest in politics, sports and Indian history.

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