संघ के 100 साल पूरे: भागवत के दादा-पिता ने रखी थी नींव, पोते ने पहुंचाया शिखर तक

मोहन भागवत के परिवार की प्रेरणादायक यात्रा जानिए, जिसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के विकास में अहम भूमिका निभाई। उनके दादा ने डॉ. हेडगेवार के साथ संघ की नींव रखी, जबकि उनके पिता मधुकर राव भागवत ने संघ को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

Harsh Sharma
Published on: 30 Sept 2025 10:59 AM IST
संघ के 100 साल पूरे: भागवत के दादा-पिता ने रखी थी नींव, पोते ने पहुंचाया शिखर तक
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आरएसएस के वर्तमान प्रमुख मोहन भागवत के परिवार का संघ से बहुत गहरा नाता रहा है। यह नाता बहुत पुराना और मजबूत है। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के साथ उनके दादा का योगदान तो ऐतिहासिक है, वहीं उनके पिता ने संघ को बड़ी ताकत देने में अहम भूमिका निभाई। आज तक संघ के 100 वर्षों की यात्रा में मोहन भागवत परिवार की एक अहम कहानी है।

मोहन भागवत के परिवार का संघ में महत्वपूर्ण योगदान

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हर घर तक पहुंचाने में कई परिवारों की मेहनत लगी है, और मोहन भागवत के परिवार का योगदान इसे समझने के लिए एक बेहतरीन उदाहरण है। उनके दादा, श्रीनारायण पांडुरंग नाना साहेब, संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के साथ मिलकर संघ की नींव को मजबूत करने में सहायक रहे। वहीं उनके पिता, मधुकर राव भागवत ने संघ को वटवृक्ष बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया और देश के कई बड़े नेताओं जैसे लाल कृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी को संघ और राजनीति की शिक्षा देने का काम किया। जब घर में नाना साहब और पिता जैसे दो बड़े नेता हों, तो उनके प्रभाव से बच्चों पर भी असर पड़ना तय था। मोहन भागवत के संघ के शीर्ष पर पहुंचने में उनके परिवार से मिली प्रेरणा का बड़ा हाथ है।


श्रीनारायण पांडुरंग भागवत: संघ के महान नेता का जीवन

डॉक्टर हेडगेवार के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले मोहन भागवत के दादा, श्रीनारायण पांडुरंग भागवत, यानी नाना साहेब का जन्म 1884 में महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के वीरमाल गांव में हुआ था। उनका परिवार आर्थिक रूप से कमजोर था, जिसके कारण वे अपने मामाजी के पास नागपुर जिले के कस्बे काटोल आ गए। यह कस्बा महाभारत के अश्वमेघ सर्ग में कुंतलपुर के नाम से जाना जाता है। नाना साहब ने प्रयागराज (तब इलाहाबाद) से कानून की डिग्री प्राप्त की और फिर चंद्रपुर जिले की वरोरा नगरपालिका में कुछ कारोबार शुरू किया। उनका जीवन संघर्ष से भरा था, लेकिन उनकी मेहनत और समर्पण ने उन्हें समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया।


नाना साहेब का वकालत से कांग्रेस तक का सफर

वरोरा उस समय कोयला खदानों के लिए प्रसिद्ध था और नाना साहब ने यहां वकालत शुरू कर दी। साथ ही, वरोरा उस समय कांग्रेस गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र बन चुका था, जिससे नाना साहब भी कांग्रेस से जुड़ गए। 1930 में, उनका पूरा परिवार चंद्रपुर में बस गया। चंद्रपुर में उनकी मित्रता लोकमान्य तिलक के करीबी सहयोगी बलवंत राव देशमुख से हुई, जिन्होंने देश, समाज और संस्कृति के प्रति तिलक की विचारधारा को नाना साहब के मन में भी गहरे रूप से अंकित किया। धीरे-धीरे, नाना साहब चंद्रपुर के प्रतिष्ठित वकीलों में गिने जाने लगे। जब डॉ. हेडगेवार ने संघ की शाखा चंद्रपुर में शुरू की, तो नाना साहब ने उनके विचारों से प्रभावित होकर उनका नेतृत्व स्वीकार किया, हालांकि डॉ. हेडगेवार उनसे पांच साल छोटे थे।

नाना साहब का गुस्सा उस समय काफी प्रसिद्ध था, वे जिनसे भी केस लेते थे, उन्हें साफ-साफ बता देते थे कि उनका मुकदमा मजबूत नहीं है। इसके बावजूद, लोग उनके पास आते थे और कहते थे कि चाहे जो हो, हम वही मुकदमा आप ही से लड़वाएंगे। वे हमेशा यही कहते थे कि जो होगा, सो होगा, लेकिन मुकदमा आप ही लड़ेंगे। दिलचस्प बात यह थी कि नाना साहब पर मुसलमानों और ईसाइयों का भी पूरा विश्वास था, और उनके पास अधिकतर मुकदमे आते थे।



घर को बना दिया कार्यकर्ताओं के लिए ठिकाना

यह वह समय था जब संघ के पास न तो कोई ऑफिस था और न ही शाखाओं में ज्यादा कार्यकर्ता आते थे। तब नाना साहब ने चंद्रपुर में संघ को बहुत समर्थन दिया। उन्होंने अपने घर को संघ कार्यकर्ताओं की बैठकों, रात्रि प्रवास और भोजन के लिए सालों तक खोला। जिनका स्वभाव आमतौर पर गुस्से वाला माना जाता था, नाना साहब उसी शाखा में बच्चों के साथ सबसे प्यार से बात करते थे। उनका बच्चों के प्रति सरल और स्नेहपूर्ण स्वभाव ही कारण बना कि इस शहर से बहुत सारे संघ प्रचारक निकले। उनके परिवार पर भी इसका गहरा असर पड़ा। उनके बेटे, मधुकर राव भागवत ने संघ के प्रसार के लिए घर छोड़कर प्रचारक बनने का निर्णय लिया।

मधुकर राव का मोदी और आडवाणी पर गहरा असर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ज़िंदगी पर मोहन भागवत के पिता, मधुकर राव भागवत का गहरा असर रहा है। मधुकर राव को गुजरात में प्रचारक बनाकर भेजा गया, और आज गुजरात में संघ को मजबूत करने का श्रेय उन्हीं को जाता है। वह अक्सर गुजराती गांधी शैली की धोती और विदर्भ की पारंपरिक ऊपरी परिधान एक साथ पहनते थे, जो उनके अनोखे व्यक्तित्व को दर्शाता था।

मधुकर राव का प्रभाव लाल कृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी की ज़िंदगी पर भी पड़ा। मोदी ने अपनी किताब ‘ज्योतिपुंज’ में इस बारे में विस्तार से लिखा है कि कैसे 20 साल की उम्र में पहली बार उनका सामना मधुकर राव से हुआ था। मोदी ने बताया कि नागपुर में संघ के तृतीय वर्ष के प्रशिक्षण के दौरान वे एक महीने तक उनके साथ रहे थे, और इस दौरान उन्हें संघ के कामकाज और मधुकर राव की सोच का गहरा प्रभाव पड़ा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी किताब में विस्तार से बताया है कि कैसे, मधुकर राव ने 1941 में प्रचारक बनने के बाद एकनाथ रानाडे के साथ मिलकर महाकौशल और कटनी क्षेत्र का बड़ा दौरा किया। इस अनुभव से प्रेरित होकर वह गुजरात पहुंचे, जहाँ उन्होंने सूरत के पारेख टेक्निकल इंस्टीट्यूट और अहमदाबाद में संघ की शाखाएँ स्थापित कीं।

मधुकर राव की संगठन क्षमता का अंदाजा इस आंकड़े से लगाया जा सकता है कि 1941 से 1948 तक उन्होंने गुजरात के 115 शहरों और कस्बों में संघ का संगठन खड़ा किया था। 1943-44 में, गुरु गोलवलकर ने उन्हें उत्तर भारत और सिंध के कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देने का जिम्मा सौंपा था, और लाल कृष्ण आडवाणी भी उन कार्यकर्ताओं में से एक थे। 1984 में जब आडवाणी नागपुर से प्रचार के लिए निकलने वाले थे, तो उन्होंने समय निकालकर मधुकर राव से मिलने के लिए उनके घर का दौरा किया, जो उनकी गहरी नजदीकी और आदर को दर्शाता है।

मनोहर की मृत्यु के बाद भी मधुकर राव ने पिता को नहीं छोड़ा

मधुकर राव के भाई मनोहर की मृत्यु के बाद भी, उन्होंने अपने पिता को अकेला नहीं छोड़ा और उन्हें वापस बुलाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। लेकिन जब उनकी मां का निधन हुआ, तो परिवार ने दबाव डाला और मधुकर राव को वापस लौटना पड़ा। इसके बाद उन्हें विवाह के बंधन में भी बंधना पड़ा। हालांकि शादी के बाद भी, वह संघ के काम में पूरी तरह सक्रिय रहे। वह लगातार गुजरात आते रहे और संघ को मजबूत करने के लिए अपना योगदान देते रहे। समय के साथ उनकी सक्रियता चंद्रपुर में भी बढ़ी। अपने पिता की तरह, उन्होंने अपने बेटे मोहन भागवत को भी संघ के प्रति समर्पित किया। आज मोहन भागवत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक के रूप में काम कर रहे हैं।

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